CENTRAL-JAIL-FATEHGARH-(1)मेरठ के हाशिमपुरा-मलियाना दंगे की ऐसी अनकही दर्दनाक दास्तां और भी है, जो न केवल सुनने वालों के रोंगटे खड़े कर देती है, बल्कि जो मानवता को भी शर्मसार कर देने वाली है. दरअसल, इन दंगों को कुचलने के नाम पर तमाम ऐसे बेगुनाहों को पुलिस ने गिरफ्तार किया था, जो या तो महज तमाशबीन थे या फिर जिनके परिवार दंगों की आंच में बुरी तरह झुलस चुके थे. जाहिर है, पुलिस की उस ज़्यादती का शिकार सारे अल्पसंख्यक समुदाय के ही लोग थे. गिरफ्तारी के बाद ऐसे सौ से अधिक लोगों को फतेहगढ़ केंद्रीय कारागार भेजा गया. दंगा भड़काने के आरोप में गिरफ्तार किए गए उन लोगों में तमाम ऐसे भी थे, जिनकी उम्र सत्तर पार कर चुकी थी. गिरफ्तारी के बाद उन्हें पुलिस और पी.ए.सी. के जवानों ने बुरी तरह पीटा. फिर घायल अवस्था में ही बिना कोई उपचार कराए उन तथाकथित दंगाइयों को पुलिस के ट्रकों में जानवरों की तरह ठूस कर फतेहगढ़ रवाना कर दिया गया.
फतेहगढ़ सेंट्रल जेल देश के सबसे खूंखार अपराधियों को सुधारने के लिए मशहूर है. चम्बल घाटी के तमाम बागी लम्बे समय तक इस जेल में कैद रहे हैं. कहते हैं कि सरकार ने इस जेल का चुनाव मेरठ के कथित दंगाइयों से ठीक ढंग से निबटने के लिए ही किया था. जाहिर है कि सरकार का इरादा उन बेचारे और बेगुनाह लोगों को सबक सिखाने का था. बरहाल, इसी गहरी और सोची-समझी साजिश के तहत दंगों के आरोपियों के जेल में दाखिल होने के पूर्व कैदियों के बीच हाशिमपुर-मलियाना के दंगो के बारे में तरह-तरह की अफवाहें फैलाई गईं. उन्हें दंगों की बावत झूठी कहानियां गढ़कर सुनाई गईं. उन्हें यह समझाया गया कि मेरठ में हुए दंगों में अल्पसंख्यक समुदाय के बलवाइयों ने हिन्दुओं पर जमकर अत्याचार किए हैं. हिन्दुओं की बहू-बेटियों की इज़्ज़त रौंदी गई है. दर्जनों महिलाओं के स्तन काट दिए गए हैं. इससे जेल में सजा काट रहे अपराधियों के बीच न केवल उत्तेजना फैल गई, बल्कि साम्प्रदायिक हिंसा का जुनून भी उनके सिर चढ़ कर बोलने लगा और फिर वही हुआ, जिसका अंदेशा पहले से था. साफ़ है, इस साजिश में जेल प्रशासन की पूरी मिलीभगत थी.
बहरहाल, मेरठ जेल से रातों-रात रवाना किए गए उन बेगुनाहों के फतेहगढ़ केंद्रीय कारागार में दाखिल होते ही जेल के पुराने सजायाफ्ता कैदी उन पर टूट पड़े. निहत्थे और बेक़सूर लोगों पर जमकर लाठी-डंडे बरसाए गए. उन्मादियों ने घायलों और बूढ़ों तक को नहीं बख्शा. कोई डेढ़-दो घंटे तक जेल के भीतर खुलेआम हिंसा का यह तांडव जारी रहा. कैदियों ने मेरठ के मजलूमों को मार-पीट कर जेल परिसर के भीतर बिछा दिया. लोहे की पत्तियों को पैना करके बनाए गए चाकुओं से उनके शरीर गोद दिए गए. इस दौरान जेल के तमाम सिपाही और अफसर इस खौफनाक मंजर के मूक दर्शक बने रहे. बताते हैं कि सेंट्रल जेल के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक एच.पी. यादव इस दौरान अपने बंगले पर बैठे-बैठे हालत का जायज़ा लेते रहे. इसमें कोई शक नहीं कि यह साजिश पूर्व नियोजित थी. वरना, जेल के सजायाफ्ता कैदियों के पास एकाएक इतनी बड़ी तादात में लाठी-डंडे और धारदार हथियार कहां से आ गए?
कैदियों के इस बर्बर हमले में मेरठ से लाए गए अकलियत के पांंच लोगों की जेल के भीतर मौके पर ही मौत हो गई, जबकि 70-80 लोग बुरी तरह जख्मी हो गए. इस घटना के काफी देर बाद जेल की पगली घंटी बजाई गई. वरिष्ठ अधीक्षक यादव समेत पूरा सरकारी अमला जेल में दाखिल हुआ. फ़ोन की घंटियां घनघनाने लगीं. जिला मजिस्ट्रेट बी.एन. गर्ग की रजामंदी से सारे मामले को रफा-दफा करने की कोशिशें शुरू हो गईं. आनन-फानन में जेल के वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक डॉ. एस. के. मिश्रा की देखरेख में डॉक्टरों की एक टीम ने घायलों का इलाज शुरू किया. गंभीर रूप से घायलों को फ़ौरन जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया. कुछ को लखनऊ रेफर कर दिया गया. मरने वालों का जेल के भीतर ही पोस्टमॉर्टम कराकर उनकी लाशों को गुपचुप तरीके से मेरठ रवाना कर दिया गया. दलील यह दी गई कि ये दंगों में बुरी तरह घायल हो गए थे और इन्हें नाजुक हालत में ही फतेहगढ़ जेल लाया गया था, जहां दाखिल होते ही उन्होंने दम तोड़ दिया. हैरत की बात यह रही कि इतना सब कुछ होने के बावजूद सरकार का कोई नुमाइंदा जेल में झांकने तक नहीं आया. अलबत्ता जेल के भीतर दम तोड़ने वालों की क्षत-विक्षत लाशों को मेरठ भेजकर पुलिस की देख-रेख में सुपुर्द-ए-ख़ाक कर दिया गया. उस दिन दंगो की दहशत में उनकी मौत पर कोई आंसू बहाने वाला भी नहीं था. फर्रुखाबाद के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट वी. एन. गर्ग ने जेल के भीतर सुबह के उजाले में हुई इस घटना की मजिस्ट्रेटी जांच के आदेश दिए, लेकिन कुछ दिनों के भीतर ही इस जांच में लीपापोती कर मामले को रफा-दफा कर दिया गया.
बाद में कई मृतकों के परिजनों व घायलों ने इस सिलसिले में मेरठ की अदालतों में मुक़दमे दर्ज कराए. लगभग दो दशक बाद अदालत ने जेल के तत्कालीन वरिष्ठ अधीक्षक एच. पी. यादव, वरिष्ठ चिकित्सा अधीक्षक डॉ. एस. के. मिश्रा और सिपाही बिहारी लाल सहित कई जेलकर्मियों को सम्मन जारी किया, लेकिन तब तक सब कुछ लम्बी और थकाऊ कानूनी प्रक्रिया की भेंट चढ़ चुका था. यानी न मुद्दई बचे और न कसूरवार. बची तो सिर्फ सियासत, जिल्लत और गरीबों को मुंह चिढ़ाती नाइंसाफी.

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