छतरपुर-मध्यप्रदेश -टाइगर रिज़र्व के बाद नई मुसीबत बना केन-बेतवा रिवर लिंकिंग प्रोजेक्ट : विकास के सपने के बीच विस्थापन का दंश झेलने को मजबूर ग्रामीण

mpमध्यप्रदेश के गंगऊ प्रवेश द्वार भतौर से 20-25 किलोमीटर अंदर पन्ना टाइगर रिज़र्व के कोर जोन में बसा हैं, ग्राम पंचायत पल्कोहं और खर्यानी, जिसकी जनसंख्या लगभग 5000 है. यहां कभी गोंड राजा का वानव गढ़ का किला हुआ करता था.

पन्ना टाइगर रिजर्व के बफर जोन में ऐसे गांवों की संख्या 49 है. यहां के ग्रामीणों का जीविकोपार्जन कई मायनों में पन्ना टाइगर रिजर्व पर निर्भर है, अथवा इससे प्रभावित है. यहां प्रवेश द्वार भतौर से अंदर जाने के लिए वन विभाग की अनुमति लेना जरूरी है.

स्थानीय निवासियों को भी गेट पर नाम दर्ज करवाना होता है. प्रवेश द्वार से पल्कोहं तक कच्ची सड़क है, जिसमें गड्ढे ही गड्ढे हैं. लेकिन फिर भी लोग छोटी गाड़ियों से आते-जाते हैं. टाइगर रिज़र्व के अधिकारी सड़क की मरम्मत और पक्कीकरण का कार्य नहीं करने देते हैं. रास्ते में गंगऊ बांध है. यह बांध अंग्रेजों ने 1909 से 1915 के दौरान केन नदी पर बनवाया था.

जो अभी तक बांदा जिला को पानी पिला रहा है. बांध आज भी उत्तर प्रदेश सरकार के नियंत्रण में ही है. स्थानीय लोगों के मुताबिक 1915 में पल्कोहं, डोडन, खर्यानी और कुछ दूसरे गांवों की कृषि भूमि इस बांध में जलमग्न हो गई थी. उसके बाद से स्थानीय लोग डूब क्षेत्र के पीछे केन नदी के किनारे खेती करने लगे.

बरसात में तो फसल पानी में डूब जाती है, लेकिन रवि की फसल, खासकर सरसों और गेहूं की अच्छी ऊपज होती है. जमीन इतनी उर्वर है कि खेतों में कभी खाद डालने की जरूरत नहीं पड़ती. हालांकि जंगली जानवरों से खेती को नुक़सान पहुंचता है. पल्कोहं गांव में पहुंचने पर पता चला कि यहां आठवीं तक की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूल व आंगनबाड़ी केंद्र हैं, लेकिन आगे की पढाई, इलाज व बाजार के लिए 35 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है.

स्थानीय ग्रामीण तो पहले से ही टाइगर रिजर्व के कारण डर और संकट के साए में जी रहे हैं, अब केन-बेतवा रिवर लिंकिंग परियोजना का प्रस्तावित बांध इनके लिए नई समस्या लेकर आया है. केन-बेतवा नदियों को जोड़ने की परियोजना के कारण करीब 7.2 लाख पेड़ और 90 वर्ग किलोमीटर में फैले पन्ना बाघ अभयारण्य के डूब जाने की आशंका है.

करीब 9000 करोड़ की लागत वाली इस परियोजना से 13.42 लाख लोगों को पेयजल मुहैया कराने की योजना है. साथ ही इससे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र की 6.75 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई के लिए पानी मिलने की भी बात कही जा रही है.

नेशनल बोर्ड ऑफ वाइल्ड लाइफ की स्थाई समिति ने केन-बेतवा रिवर लिंकिंग परियोजना पर अपनी रिपोर्ट में कहा है कि प्रस्तावित जलप्लावित क्षेत्र के दायरे में पूरा वन क्षेत्र आ जाएगा. इस प्रोजेक्ट के तहत मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के धौदान गांव में एक डैम का निर्माण होना है, जिसमें ये तीनों गावों डूब रहे हैं.

जन सुनवाई में तीनों गावों वालों ने इस शर्त पर सहमति दी है कि उन्हें वाजिब पैसा दिया जाए, ताकि वे कहीं दूसरी जगह जाकर बस सकें. ग्रामीणों का कहना है कि जब से टाइगर रिज़र्व बना है, तब से हमारे तमाम विकास कार्य रुक गए हैं. गांव में किसी भी तरह के रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं हैं.

जंगली वस्तुओं को इकट्ठा कर उन्हें बेचने, जंगल में पशु चराई करने और मछली पकड़ने जैसे पारम्परिक कार्यों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है. यहां मनरेगा के अंतर्गत भी काम नहीं मिलता है. रोजगार की इन समस्याओं के कारण गांव के 80% घरों में ताले लगे हैं. फसलों की बिजाई के बाद लोग सपरिवार रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करते हैं. अब तो घरों पर तालों के साथ-साथ घर के बाहर आंगन में बाड़ भी लगाई जाती है.

पल्कोहं के ग्रामीणों ने बताया कि 1998-99 तक हम अपनी खेतिहर जमीन के लिए राजस्व विभाग को सालाना 50 रुपया प्रति एकड़ बोली देते थे. बाद में इसे बढ़ा कर तीन साल के लिए 200 रुपया कर दिया गया था. लेकिन टाइगर रिजर्व बनने के बाद बोली लेना बंद कर दिया गया और अब हमारी कृषि भूमि को वन विभाग अपना कह रहा है.

हमें कहा जा रहा है कि खेती बंद कर भूमि खाली करें. 1998-99 से पहले कुछ ग्रामीणों को जमीन के पट्टे भी दिए गए थे, लेकिन अब पटवारी कह रहे हैं कि उनके पट्टे निरस्त कर दिए गए हैं. पल्कोहं के सरपंच जमना यादव ने बताया की इस गांव में 17 जातियों के लोग रहते हैं. जिनमें मुख्य रूप में कोइदा आदिवासी, बसुर, कोरी, डिमर (सभी दलित) और यादव हैं. यहां के ज्यादातर आदिवासी और दलित भूमि हीन हैं.

ऐसे लोगों का जिविकोपार्जन वन उत्पादों जैसे कंद, फल, जड़ीबुटी, चिरोंजी, गोंद, तेंदू पत्ता, नदी से मछली पकड़ना, पशुपालन और दस्तकारी इत्यादि पर निर्भर था. टाइगर रिजर्व इनके लिए अभिशाप बन कर आया है. इनके सभी निस्तार अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं. लोगों का कहना है कि वन उत्पादों के लिए जंगल में जाने, मछली पकड़ने और पशुओं के गांव से बाहर जाने पर वन विभाग ने जुर्माना करता है, साथ ही पशुओं को कांजी घर में बंद कर दिया जाता है.

हिमालय नीति अभियान के गुमान सिंह बताते हैं कि यहां के सरपंचों को भी वन अधिकार कानून के बारे में पता नहीं है. छतरपुर यहां का जिला मुख्यालय है. आदिम जाति कल्याण विभाग के जिला संयोजक कार्यालय से मिली जानकारी के मुताबिक जुलाई 2014 को विशेष अभियान के दौरान 8,238 व्यक्तिगत और 1,124 सामुदायिक वन अधिकार के दावे जिला स्तर पर प्राप्त हुए थे. जिनमें से 497 व्यक्तिगत और 240 सामुदायिक दावे मान्य किए गए. अब सवाल यह उठता है कि जब पूरे जिले में विशेष अभियान चलाया गया, तो इन दो पंचायतों में वन अधिकार कानून लागू कराने का कार्य क्यों नहीं किया गया.

जिला संयोजक ने बताया कि यह क्षेत्र टाइगर रिजर्व में पड़ता है. परन्तु असली मसला तो केन-बेतवा रिवर लिंकिंग परियोजना है, जिस कारण यहां वन अधिकार कानून लागू करवाने की पहल नहीं की गई. इस परियोजना में टाइगर रिज़र्व के कोर ज़ोन की ही 4,100 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहित होगी, जिस पर वन विभाग ने सहमति दे दी है. अब सवाल यह उठता है कि किसी अच्छे जगह पर विस्थापन के लिए वाजिब मुआवजे की मांग कर रहे लोगों का सपना क्या पूरा होगा?

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