‘एक्सक्यूज मी!’ सुनकर किनारे हट गया यह सो़च कर कि पीछे वाले को उतरना है शायद। आए दिन दिल्ली मेट्रो में ये घटना सामान्य है। लेकिन, आज आवाज़ कुछ जानी-पहचानी थी! दोनों की नज़रें एक पल को मिली और उसी एक पल में मैं छः साल पीछे चला गया। जब उससे आख़िरी बार बात हुई थी। इससे पहले कि कुछ कहता उसने टोक ही दिया- आप? कैसे हैं? मैंने कहा-खुश हूँ…तुम कहो? ‘अच्छी हूँ!’ तुम अच्छी नहीं बहुत अच्छी हो आज भी, मैंने छेड़ते हुए कहा..दोनों हँसते हैं..फिर, ध्यान आया कि उसका स्टेशन पीछे छूट चुका है। पर उसे अफ़सोस नहीं था।

लगभग, छः साल बाद आज मिलना हुआ ..फिर, हम लोग काफी देर तक राजीव चौक मेट्रो स्टेशन पर बतियाते रहे। मैंने कहा कि फेसबुक पर तो तुमने मुझे ब्लॉक कर रखा है पर रेडियो पर तुम्हारा प्रोग्राम मैं रोज़ सुनता हूँ!! क्या कहती? कहा कि आपका मुस्कुराता हुआ चेहरा देख कर काँटा सा चुभता है..इसलिए ब्लॉक कर रखा है। फिर, एक एक कर कई परतें खुलती चली गईं।

मुझे याद है हमारी आख़िरी मुलाक़ात..बहुत सारी खटास थी दोनों के मन में…फिर, वक्त की आपाधापी में हम कभी मिल न सके, मिलना तो छोड़िये, कभी फोन पर बात भी नहीं हुई। आज न मालुम क्यों दोनों ने एक दूसरे को सॉरी भी कहा। अब चलती हूँ..बहुत देर हो रही है…मेरा नंबर होगा आपके पास शायद। मैंने कहा- नहीं तो…फिर, उसने अपना नम्बर बताया। यह कहते हुए कि मैं फोन नम्बर बदल न सकी, इस उम्मीद में कि कभी तुम कॉल करो शायद।

आप से तुम पर आ गयी थी हमारी ये बातचीत। क्या कहता- बस इतना ही कह सका- हाँ, ठीक है जाओ…अब बहुत देर हो गयी है।

हीरेंद्र झा

(एक प्रेमी की डायरी से चुनकर कुछ पन्ने हम आपके लिए लाते रहेंगे)

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