अन्ना हजारे के साथ किसान संगठन क्यों नहीं हैं, यह एक प्रश्‍न है. और जो संगठन हैं, उनमें भी ज़्यादातर ऐसे हैं, जो दूसरे काम करते हुए किसानों के बीच भी काम करते हैं, क्योंकि बिना किसानों का नाम लिए उनकी समस्याएं दूर नहीं हो पातीं. इनमें मेधा पाटकर का नाम प्रमुख है. मेधा पाटकर बुनियादी तौर पर भूमि अधिग्रहण से विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास का काम करती हैं और इसके लिए आंदोलन करती हैं तथा नर्मदा के आसपास का इलाका उनका मुख्य इलाका है. लेकिन, जबसे उनका नाम नर्मदा आंदोलन की नेत्री के तौर पर हुआ है, वह जगह-जगह दूसरे आंदोलनों में भी जाती रही हैं. 

arvind-6अन्ना हजारे काफी दिनों के बाद दिल्ली आए, उन्होंने जंतर-मंतर में धरना दिया और इस धरने ने भूमि अधिग्रहण क़ानून के ख़िलाफ़ देश के लोगों के कानों में इस समस्या की गंभीरता को उजागर किया. यह सच है कि अन्ना हजारे का अकेले का कर्तव्य नहीं है कि वह हर समस्या के विरुद्ध आंदोलन करें. देश में बाकी लोग भी हैं, जो सवाल उठा सकते हैं, आंदोलन कर सकते हैं और आपस में हाथ मिला सकते हैं, पर वे हाथ नहीं मिलाते. अगर देखा जाए, तो भूमि अधिग्रहण के मसले पर सबसे बड़ा दोष देश के किसान संगठनों का है. किसान संगठनों में आपस में मिलकर बातचीत ही नहीं होती और हर किसान संगठन चाहता है कि वह देश का सिरमौर किसान संगठन रहे और सारे लोग उसके नेतृत्व में काम करें. साथ काम करें, यह किसी किसान संगठन की मंशा नहीं है. उसके अंतर्गत काम करें, यह मंशा है. इसीलिए किसानों के ख़िलाफ़ सरकारें क़ानून बनाती जा रही हैं, किसानों के हितों के ख़िलाफ़ सरकारें काम कर रही हैं और किसानों को तोड़ने में सफल हो पा रही हैं. इस देश में अगर सबसे बेबस कोई आर्थिक क्षेत्र है, तो वह किसान का आर्थिक क्षेत्र है. इस देश का कृषि क्षेत्र सबसे बेबस है, जिसे न कोई सुविधा है, जिसके ऊपर न किसी सरकार का ध्यान है और जिसे चौपट करने में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय ताकतें लगी हुई हैं. विदेशी ताकतें चाहती हैं कि इस देश की कृषि संपूर्ण रूप से उनके कब्जे में आ जाए, ताकि देश का अर्थ तंत्र उनके कब्जे में चला जाए. और, दूसरी तरफ़ देश के बड़े पैसे वाले चाहते हैं कि कृषि क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा यानी ज़मीन उनके कब्जे में आ जाए और सरकारें इन दोनों ताकतों के पक्ष में काम कर रही हैं और वह भी स़िर्फ इसलिए, चूंकि किसान संगठन आपस में मिलकर किसानों को लामबंद करने की बात नहीं करते और फिर मर्म सवाल, वे साथ काम करने के लिए तैयार नहीं होते और अपने नेतृत्व में सबको लाना चाहते हैं.
अन्ना हजारे दिल्ली आए, तो किसानों के ख़िलाफ़ आने वाले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को रद्द कराने और यह क़ानून का रूप न ले, इसके ऊपर देश का ध्यान खींचने के लिए, पर उन्हें लाने वाले तीन प्रमुख लोगों का किसानों से कोई सीधा रिश्ता नहीं है. पीवी राजगोपाल मध्य प्रदेश में काम करने वाले प्रसिद्ध समाजसेवी हैं, जो भूमिहीन आदिवासियों के बीच काम करते हैं और जिनकी पहली मांग जंगल के आदिवासियों या भूमिहीनों को ज़मीन मिले और उस पर उन्हें अधिकार मिले. उनका भूमि अधिग्रहण से कोई रिश्ता नहीं, किसानों से कोई रिश्ता नहीं, केवल आदिवासियों से रिश्ता है. दूसरे श्री राजेंद्र सिंह, जिन्हें मैग्सेसे अवॉर्ड मिला है और जो अब तक कांग्रेस के साथ मिलकर देश में पानी की समस्या के ऊपर काम करते रहे हैं. उनका भी किसानों की समस्याओं से कोई सीधा रिश्ता नहीं रहा है. और तीसरे श्री गोविंदाचार्य, जो मोहन भागवत के अभिन्न मित्र हैं, सलाहकार हैं और जो अगले कुछ दिनों में भारतीय जनता पार्टी की मुख्य धारा में संजय जोशी की तरह वापसी कर सकते हैं. दरअसल, संजय जोशी एवं गोविंदाचार्य आरएसएस के ऐसे चेहरे हैं, जिनका कार्यकर्ताओं के बीच बेहद प्रभाव है और संघ से जुड़े कार्यकर्ता गोविंदाचार्य के ऊपर बहुत विश्‍वास रखते हैं.
गोविंदाचार्य जी संघ की कार्यप्रणाली और भाजपा की कार्यप्रणाली से दु:खी अवश्य हैं, लेकिन उसे वह अव्यवहारिक नहीं मानते. वह चाहते हैं कि उसमें सुधार हो और यह देश संघ की नीतियों के हिसाब से चले. इन तीनों का अन्ना हजारे के साथ बैठना किसानों की समस्याओं की जगह कुछ अन्य समस्याओं को रेखांकित करता है.
अन्ना हजारे के साथ किसान संगठन क्यों नहीं हैं, यह एक प्रश्‍न है. और जो संगठन हैं, उनमें भी ज़्यादातर ऐसे हैं, जो दूसरे काम करते हुए किसानों के बीच भी काम करते हैं, क्योंकि बिना किसानों का नाम लिए उनकी समस्याएं दूर नहीं हो पातीं. इनमें मेधा पाटकर का नाम प्रमुख है. मेधा पाटकर बुनियादी तौर पर भूमि अधिग्रहण से विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास का काम करती हैं और इसके लिए आंदोलन करती हैं तथा नर्मदा के आसपास का इलाका उनका मुख्य इलाका है. लेकिन, जबसे उनका नाम नर्मदा आंदोलन की नेत्री के तौर पर हुआ है, वह जगह-जगह दूसरे आंदोलनों में भी जाती रही हैं. इन चारों की विचारधारा से जुड़ी संवेदनाओं पर देश में किसी को कोई संदेह नहीं है, इन चारों की ईमानदारी पर भी किसी को संदेह नहीं है, लेकिन इसके बावजूद जिस विषय का सहारा इन चारों ने लिया है और जिसके लिए श्री अन्ना हजारे को दिल्ली लेकर आए, वह विषय इनके अपने नेतृत्व के लिए तो ठीक है, लेकिन इन्होंने देश के किसान नेताओं कोे इसमें क्यों नहीं शामिल किया? क्योंकि, देश के बड़े किसान संगठन कुछ कहते हैं और दिल्ली में एकत्र हुए नेता कुछ और कहते रहे. अन्ना हजारे का स्वर बिल्कुल साफ़ था और किसानों के पक्ष में था. यही अंतर्विरोध हमें डराता है.

अन्ना हजारे दिल्ली आए, तो किसानों के ख़िलाफ़ आने वाले भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को रद्द कराने और यह क़ानून का रूप न ले, इसके ऊपर देश का ध्यान खींचने के लिए, पर उन्हें लाने वाले तीन प्रमुख लोगों का किसानों से कोई सीधा रिश्ता नहीं है. पीवी राजगोपाल मध्य प्रदेश में काम करने वाले प्रसिद्ध समाजसेवी हैं, जो भूमिहीन आदिवासियों के बीच काम करते हैं और जिनकी पहली मांग जंगल के आदिवासियों या भूमिहीनों को ज़मीन मिले और उस पर उन्हें अधिकार मिले.

अन्ना हजारे भी वक्त-वक्त पर अपनी रणनीति बदलते रहते हैं, अपने क़दमों की गति बदलते रहते हैं, दिशा भी बदलते रहते हैं. वह एक संत पुरुष हैं. उन्होंने पहले कहा कि उनके मंच के ऊपर कोई राजनीतिक व्यक्ति नहीं आएगा और वह किसी के साथ मंच साझा नहीं करेंगे. फिर वह राजनेताओं के साथ मंच पर बैठे. पहले उन्होंने अरविंद केजरीवाल को स्वयं से दूर रखा, लेकिन जैसे ही एक बार अरविंद केजरीवाल ने उन्हें इशारा किया, वह उन्हें गले लगाने को आतुर हो गए. मैं इसे शुभ लक्षण मानता हूं. अरविंद केजरीवाल एक विशुद्ध राजनीतिक व्यक्ति हैं और उनकी मान्यता भी उन सवालों के साथ है, जिन्हें अन्ना हजारे ने उठाया है. अगर अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल ईमानदारी से साथ मिल जाएं, तो देश में एक नई राजनीति की शुरुआत की जा सकती है. अरविंद केजरीवाल जनता से जुड़े सवालों पर लड़ने वाले दूसरे राजनीतिक दलों का साथ लेना पसंद नहीं करते और न उन्हें करना चाहिए. क्योंकि, जैसे ही अरविंद उन नेताओं को अपने साथ लेंगे, वह उनमें से एक माने जाएंगे. और, आज की तारीख में अगर अरविंद केजरीवाल को अन्ना हजारे का समर्थन मिल जाता है, तो केजरीवाल का राजनीतिक दल सारे देश में अपना संगठन बनाने की कोशिश कर सकता है और वह ऐसे संभावित नेताओं को आइसोलेट कर सकते हैं, जो देश में नरेंद्र मोदी को चुनौती देने का काम करना चाहते हैं. इनमें सबसे पहला नाम नीतीश कुमार का है. अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे की जोड़ी सबसे पहले नीतीश कुमार, मुलायम सिंह एवं लालू यादव जैसों को राजनीतिक परिदृश्य में एक तरफ़ ढकेलने का काम कर सकती है. कांग्रेस अपनी बेवकूफियों से पहले ही छिपने के लिए कोना तलाश रही है.
भारतीय जनता पार्टी के सामने अरविंद केजरीवाल अन्ना हजारे का साथ लेकर स्वयं को एकमात्र ईमानदार और जनता के लिए संवेदनशील नेतृत्व का दावेदार बना सकते हैं. अरविंद केजरीवाल ने बिजली और पानी के दामों में कमी करके दिल्ली के साथ-साथ देश को भी यह बता दिया है कि वह अगर ठान लें, तो साधनों को जनता के पक्ष में इस्तेमाल करने की कोशिश कर सकते हैं और जनता के पक्ष में फैसला भी कर सकते हैं. अन्ना हजारे को बहुत कुछ तय करना है, क्योंकि यह देश विश्‍वास करने वाले लोगों का देश है और लोगों का विश्‍वास हमेशा टूटता रहता है. इसलिए अन्ना हजारे की यह व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी है कि अगर उन्होंने अरविंद केजरीवाल का हाथ थामा है, तो अब राजनीतिक, ग़ैर-राजनीतिक जैसे सवालों को उठाकर उन्हें अरविंद केजरीवाल को न स्वयं से अलग करना चाहिए, न दूर करना चाहिए, बल्कि अरविंद केजरीवाल को समर्थन देकर देश में घूमने का सिलसिला शुरू करना चाहिए.

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