kashmirसाउथ कश्मीर, कश्मीर का सबसे चर्चित इलाक़ा है. साउथ कश्मीर को मिलिटेंट्‌स के सघन क्षेत्र के रूप में जाना जाता है. यहीं पर सेना की गतिविधियां ज्यादा चल रही हैं. सेना का ऑल-आउट ऑपरेशन भी इसी क्षेत्र में हो रहा है. इस क्षेत्र के  अधिकांश हिस्से मिलिटेंट्‌स के प्रभाव वाले क्षेत्र माने जाते हैं और यहां के लोग अधिकांशत: मिलिटेंट्‌स का साथ देते हैं. इस क्षेत्र में लोग जाने से हिचकते हैं. स्थानीय निवासी भी शाम छह बजे के बाद अकेले नहीं गुज़रते, दो या तीन के झुंड में ही गुज़रते हैं. उन्हें डर होता है कि कहीं सुरक्षा बल उन्हें मिलिटेंट का साथी या हमदर्द न समझ लें और उनपर कोई विपत्ति न आ जाए.

कश्मीरी नौजवान की उत्तेजना स़िर्फ भावनात्मक नहीं है

इसी साउथ कश्मीर के एक डिग्री कॉलेज के सेमिनार में शरीक होने के लिए श्रीनगर से बशीर असद का फोन आया था. बशीर असद ने प्रस्ताव रखा कि साउथ कश्मीर के स्टूडेंट्‌स विचार के धरातल पर मेरे साथ रूबरू होना चाहते हैं. क्या मैं एक दिन के बाद श्रीनगर आ सकता हूं. मेरे लिए बशीर असद का फोन आना आश्चर्यजनक भी था और एक अवसर भी था. 2016 में जब कश्मीर सुलग रहा था, तब सबसे पहले वहां पहुंचने वालों में मैं, अभय दुबे और अशोक वानखेडे थे. हमने वहां जाकर समाज के हर वर्ग के लोगों से बातचीत की थी. कश्मीर के लोगों का दर्द समझा था और उसे खुलकर हमने सारे देश को बताया भी था.

तब से मेरा कई बार कश्मीर जाना हुआ, पर छात्रों से कभी संगठित मुलाक़ात नहीं हो पाई. कश्मीर यूनिवर्सिटी के कुछ विद्यार्थी मुझे श्रीनगर में मिले थे, पर जहां जाने का मुझे प्रस्ताव मिला था, वो मेरे लिए कश्मीर के नौजवानों का दिमाग समझने का एक अवसर था. इसे मैंने गंवाया नहीं और वह समय आया कि मैं इस डिग्री कॉलेज के सेमिनार रूम में बैठा था. सेमिनार रूम में आने से पहले कॉलेज के प्रिंसिपल ने मुझे कह दिया था कि बच्चे हैं और ये बच्चे सवाल भी कर सकते हैं और कुछ शरारत भी कर सकते हैं. मैं अपेक्षा कर रहा था कि मुझे कुछ नारेबाज़ी सुनने को मिलेगी, का़फी तल़्खी देखने को मिलेगी.

इसलिए सेमिनार रूम में जब सबसे पहले मुझे कुछ कहने के लिए कहा गया, तो मैंने उन्हें अपने विद्यार्थी जीवन के कुछ अनुभव सुनाए. जैसे, किस तरह हम शिक्षकों को परेशान करते थे. इस अनुभव ने तनाव थोड़ा कम किया. इसके बाद उन्हें मैंने लाहौर के मशहूर गर्ल्स कॉलेज के कुछ क़िस्से सुनाए कि जब मैं वहां गया तो किस तरह वहां की लड़कियों ने सवालों के गोले दाग़े. ऐसा लगा जैसे भारत और पाकिस्तान के बीच उसी कमरे में युद्ध होने वाला है. पर जब मैं उस हॉल से बाहर निकला तो एक कोने पर लड़कियों का झुंड था. उस झुंड ने मुझे बुलाया और मुस्कुराते हुए बोलीं, सर आप तो हमारे ही जैसे लगते हैं.

मैंने इस डिग्री कॉलेज के छात्र और छात्राओं को बताया कि मेरे जीवन का वो अब तक का सबसे बेहतरीन कमेंट था, मैं ऐसा मानता हूं. वातावरण थोड़ा नॉर्मल हुआ और अपने आने की वजह बताकर मैंने उनसे कहा कि मैं यह जानने-समझने आया हूं कि आप कश्मीरी नौजवानों का दिमाग़ क्या कह रहा है, क्या चल रहा है, आप क्या करना चाहते हैं. मैंने उन्हीं से बोलने के लिए कहा और तब पहले वक्ता (जो शायद 19-20 साल के होंगे) ने बहुत स़फाई से और तार्किक ढंग से कश्मीर के दर्द को सामने रखा. उसने बताया कि नौजवान सिर्फ भावना में उत्तेजित नहीं हैं, विचारों के साथ भी उत्तेजित हैं.

वहीं बैठी एक छात्रा ने भी बताया कि कश्मीर में क्या हो रहा है और कितनी परेशानियां हैं. फिर तो वहां बोलने वाले लोगों की क़तार लग गई. लगभग आठ या दस छात्र और छात्राओं ने अपनी बातें सामने रखीं. तब मुझे लगा कि भारत सरकार अपनी कोशिशों में कैसे चूक रही है. भारत सरकार के पास ऐसा कोई भी प्लान नहीं है कि वो कश्मीर के नौजवानों को तार्किक ढंग से अपनी बात समझा पाए. इतनी बड़ी सरकार, जो 125 करोड़ लोगों की प्रतिनिधि होने का दंभ भरती है, कश्मीर के साठ लाख लोगों में से कुछ हज़ार नौजवानों को अपनी बात नहीं समझा पा रही है. कश्मीरी नवयुवकों की पीड़ा और उत्तेजना ने मुझे यह आभास दिया कि भारत सरकार रोज़ाना अवसर खोती जा रही है.

कश्मीरी नौजवानों से बात नहीं करना सरकार की चूक

इसके बाद वहां से मुझे लगभग 30 किलोमीटर दूर एक हायर सेकेंडरी स्कूल ले जाया गया. मुख्य सड़क से लगभग छह किलोमीटर अंदर बसे इस गांव के हायर सेकेंडरी स्कूल के एक कमरे में लड़के -लड़कियों का झुंड था और ये सारे हायर सेकेंडरी के शायद सबसे समझदार छात्र रहे होंगे. यहां भी जब मुझसे बोलने के लिए कहा गया तो मैंने उनसे यही गुज़ारिश की कि आप बोलिए, मैं तो आपको सुनने आया हूं. मैं आपको बता दूं कि डिग्री कॉलेज में सबने अंग्रेज़ी में बात की और इस हायर सेकेंडरी स्कूल में भी सबने अंग्रेज़ी में बात की. मैंने डिग्री कॉलेज के लड़कों से भी पूछा था और यहां भी हायर सेकेंडरी के बच्चों से पूछा कि क्या आप अपने घरों में अंग्रेज़ी में बात करते हैं? इस सवाल के जवाब में छोटा सा ठहाका मिला. मैंने कहा कि मैं आपकी उर्दू सुनने आया हूं.

फिर सबने खूबसूरती से उर्दू में बातचीत की. हायर सेकेंडरी स्कूल के पांच-छह बच्चों ने अपनी बातें कहीं. उन्होंने भी उसी भावना को सामने रखा कि कश्मीर का दर्द किसी को सुनाई क्यों नहीं देता. लड़के-लड़कियां अपना, अपने पड़ोसियों का, रिश्तेदारों का, दोस्तों का दर्द बयान कर रहे थे और मैं उनके चेहरे पर छाई बेबसी और कुछ कर गुज़रने का भाव देखकर यही सोच रहा था कि भारत सरकार कश्मीरी नौजवानों से बात नहीं कर के कितनी बड़ी चूक कर रही है. इससे पहले, डिग्री कॉलेज में मेरे आने की खबर फैल गई थी. इसलिए स्थानीय न्यूज़ चैनल ईटीवी, ज़ी नेटवर्क और गुलिस्तान न्यूज़ के संवाददाता वहां पहुंच गए थे.

उन्होंने भी मुझसे बातचीत की. मैंने उनसे कहा कि एक पत्रकार के नाते मैं देख रहा हूं कि सरकार की कोशिशों में और नौजवानों की समझ में कितना फर्क़ है. इसलिए मैं सरकार से अपील करूंगा कि वह फौरन बातचीत की शुरुआत करे और बातचीत की शुरुआत कश्मीर के नौजवानों से करे. संवाददाताओं के पूछने पर मैंने कहा कि सरकार को तीन-चार-पांच ग्रुप्स बनाना चाहिए और उन ग्रुप्स को विश्वविद्यालयों में, डिग्री कॉलेजों में और सेकेंडरी स्कूलों में भेजना चाहिए. यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि कश्मीर के नौजवान क्या चाहते हैं.

संवाददाताओं ने मुझसे कहा कि आपको कश्मीर में लोग चाहते हैं. आपका चेहरा कश्मीर में बहुत परिचित है और सभी लोग आपकी इज्ज़त करते हैं. आपके अ़खबार की वजह से और न्यूज़ चैनलों पर आप इंसानियत के हक़ में जो बात करते हैं, उसका यहां बहुत असर है. संवादताताओं ने ही मुझसे कहा कि आप त्राल ज़रूर जाइए. मैं उनसे पूछता रह गया कि त्राल क्यों जाऊं, तो उन्होंने इसका कोई जवाब नहीं दिया.

हायर सेकेंडरी स्कूल से मैं यह सोचते हुए बाहर निकला कि ये सोलह-सत्रह-अठारह साल के लड़के-लड़कियां निराशा के किस बिन्दु पर पहुंच रहे हैं. दोनों जगह सामूहिक बातचीत के बाद मुझे लगा कि यहां के नौजवान ज़िंदगी और मौत के बीच का ़फर्क़ भूल चुके हैं. उन्हें मौत का डर नहीं सताता. वो सोचते हैं कि हम जितना अपने आसपास देख रहे हैं, जो होता हुआ देख रहे हैं, उससे बेहतर मौत है. यह भावना मुझे अपने पूरे साउथ कश्मीर के दौरे में दिखाई दी. ऐसा जीना भी क्या जीना, इससे तो बहादुरी की मौत अच्छी. अगर ये भावना नौजवानों के बीच फैल जाए तो यह उनके लिए शर्म की बात है, जो शासन चलाते हैं, जिन्हें लोग चुनते हैं या जिन्हें अपने मसलों के हल की ज़िम्मेदारी सौंपते हैं.

साउथ कश्मीर में थोड़ा और घूमने का फैसला मन में लिए मैं वापस श्रीनगर लौट आया. रास्ते में सेना के जवान दिखाई दिए. लगभग हर दस मिनट के बाद सेना के जवानों का झुंड गाड़ियां रोक रहा था, चेकिंग कर रहा था और चेकिंग के बाद ही लोगों को जाने दे रहा था. पर एक कमाल की बात थी कि साउथ कश्मीर में, जहां लोग जाने से डरते हैं या आसपास भी नहीं घूमते, वहां सिर्फ एक वर्ग को कोई डर नहीं था और वो थे सैलानी. पर्यटकों को हर तरफ जाने की आज़ादी थी. शायद सेना के लोग भी उन्हें देखकर पहचान लेते हैं और शायद छुपे तौर पर मिलिटेंट भी उन्हें आने-जाने की आज़ादी देते हैं.

बीते दिनों ग़लती से एक पर्यटक पत्थरबाज़ी के बीच फंस गया था और उसकी मौत हो गई थी. सबने उसकी मौत पर अ़फसोस जताया था. वापस आते हुए मैं सोच रहा था कि डिग्री कॉलेज और हायर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ने वाले लड़के और लड़कियां कितने समझदार हैं. दुनिया के सारे विषयों से उनका रिश्ता है. सबके मन में कुछ न कुछ बनने की इच्छा है. कोई इंजीनियर, कोई डॉक्टर, कोई आईपीएस अ़फसर बनना चाहता है, पर वो सिस्टम से नाराज़ है और सिस्टम चलाने वाली सरकार से तो बेहद नाराज़ है. सरकार इस नाराज़गी को क्यों नहीं समझ रही है और क्यों नहीं इस नाराज़गी को दूर करने की कोशिश कर रही है? इसके पीछे क्या तर्क हो सकते हैं, क्या रणनीति हो सकती है? का़फी दिमाग़ लगाने के बाद भी उस दिन मुझे उत्तर नहीं मिला.

कश्मीर अंतरराष्ट्रीय ताक़तों का लुभावना केंद्र बन चुका है

अगले दिन सुबह हुर्रियत के वरिष्ठ नेता प्रोफेसर अब्दुल ग़नी बट्‌ट से मेरी मुलाक़ात हुई और उनसे लगभग डेढ़ घंटे बातचीत हुई. प्रोफेसर बट्‌ट विचारों में बहुत सा़फ हैं. वे कश्मीर के दर्द को भी समझते हैं और अंतरराष्ट्रीय स्थिति को भी समझते हैं. उन्होंने मुझसे सा़फ-सा़फ कहा कि भारत, पाकिस्तान और यहां के लोग कई सारी सच्चाइयां नहीं समझ पा रहे हैं. इनमें एक सच्चाई ये है कि चीन पाकिस्तान में घुस गया है और वहां उसका बड़ा इन्वेस्टमेंट है. अमेरिका का इन्वेस्टमेंट पाकिस्तान में भी है, हिंदुस्तान में भी है. रूस, अ़फग़ानिस्तान में अपनी हार का दर्द और ग़ुस्सा लिए हुए नज़र रख रहा है और अमेरिका को जीतने नहीं देना चाहता.

इस स्थिति में दोनों देशों के बीच युद्ध तो हो नहीं सकता, सिर्फ बातचीत हो सकती है. बातचीत चाहे आज हो या एक साल बाद हो. बातचीत तो भारत और पाकिस्तान के बीच होगी ही. उन्होंने कहा कि मैं समझ रहा हूं कि इसमें अब अमेरिका, चीन और रूस भी शामिल होंगे, क्योंकि कश्मीर अंतरराष्ट्रीय ताक़तों का सबसे महत्वपूर्ण और लुभावना केंद्र बन चुका है. प्रोफेसर ग़नी बट्‌ट ने सा़फ कहा कि हमारे यहां आज से चालीस साल पहले जो दर्द और ग़ुस्सा था वो अगली पीढ़ी में ट्रांसफर हुआ. आज वो ऩफरत और ग़ुस्सा आने वाली पीढ़ी में सफलतापूर्वक ट्रांसफर हो गया है. उनका कहना था कि भारत सरकार बातचीत में जितनी देर कर रही है उतना ही वो ग़लत कर रही है. प्रोफेसर ग़नी बट्‌ट की बातों में पूरी सच्चाई थी. कश्मीर के जितने लोगों से मेरी मुलाक़ात हुई वो सारे लोग सार्थक बातचीत शुरू हो, इसकी बात करते दिखाई दिए.

क्योें निडर हो गए हैं कश्मीरी? 

प्रोफेसर ग़नी बट्‌ट के बाद मेरी मुलाक़ात श्रीनगर के सात व्यापारियों से हुई. इन व्यापारियों से मुझे जो पता चला, उससे मैं थोड़ा कांप गया. व्यापारियों के नेता ने मुझसे कहा कि वे तीन दिन पहले शोपियां में एक मिटिंग करने गए थे. शोपियां कश्मीर के सबसे अशांत क्षेत्रों का केंद्र है, जहां अभी भी हड़ताल चल रही है. वेे वहां व्यापारियों के बीच भाषण करने गए थे. लेकिन और भी नौजवान वहां पर आ गए और उस भीड़ में मिलिटेंट भी थे. उन्होंने अपनी बात रखी और कहा कि कश्मीर में व्यापार समाप्त हो गया है, तरह-तरह की परेशानियां हैं. स्कूल नहीं चल पा रहे हैं, विद्यार्थी नहीं पढ़ पा रहे हैं. इस पर भीड़ में शामिल लोेगों ने कहा कि न चले व्यापार, हमें कोई ़फर्क़ नहीं पड़ता. जिस अल्लाह ने पैदा किया है वो अगर ज़िंदा रख रहा है तो हमारे लिए खाने का इंतज़ाम भी करेगा. लेकिन अगली बात जो इन व्यापारियों ने बताई वो बात अबतक देश में कहीं नहीं आई है.

वहां मौजूद मिलिटेंट्स ने सार्वजनिक रूप से कहा कि हमारी आज़ादी की लड़ाई उस मुक़ाम पर पहुंच गई है, जहां पर हमें हर घर से एक नौजवान चाहिए और भीड़ में मौजूद लोगों ने कहा कि हां हम अपने हर घर से एक नौजवान देंगे. साउथ कश्मीर में मिलिटेंट्‌स की इसलिए इज्ज़त है, क्योंकि वो आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले महान योद्धा माने जाते हैं. जिस घर का नौजवान हाथ में हथियार लेकर जंगलों और पहाड़ों में निकल जाता है, उस घर की का़फी इज्ज़त की जाती है. इसीलिए जब किसी मिलिटेंट की मौत होती है तो कश्मीर में इसे मौत नहीं शहादत कहते हैं और उसके जनाज़े में बीस से चालीस हज़ार तक की भीड़ शामिल होती है. इन व्यापारियों ने कहा कि हमसे लोगों ने सा़फ कहा कि हमें किसी चीज़ की चिंता नहीं है. लड़ते हुए मौत आ जाए, वही बड़े फक़्र की बात है.

वहां मौजूद लोगों ने कहा कि हम अपने बच्चों को अल्लाह के रास्ते पर डाल देना चाहते हैं. यानि, मां-बाप को भी अपने बच्चों की संभावित मौत का कोई डर नहीं रहा. उन्होंने सा़फ कहा कि सरकार बातचीत का दिखावा बंद कर हुर्रियत के लोगों से सीधी बातचीत करे, लेकिन बातचीत गंभीर होनी चाहिए, बातचीत का दिखावा नहीं होना चाहिए. उन्होंने कहा कि मौजूदा वार्ताकार की जब नियुक्ति हुई थी तो उनका का़फी स्वागत हुआ. लेकिन अब उन्हें लोग गंभीरता से नहीं लेते.

डोभाल की रणनीति असफल हो गई है

व्यापारियों के बाद मेरी मुलाक़ात सिविल सोसायटी के लोगों से हुई, जिसमें लेखक, प्रोफेसर, रिटायर्ड सिविल सर्विस के लोग थे. इन लोगों ने कहा कि कम से कम बातचीत शुरू हो तो उससे पता चलेगा कि सरकार हमारी तकली़फ को इतने दिनों के बाद कुछ समझी भी है या नहीं. उन्हें इस बात का दुख था कि पिछली सरकार के वार्ताकार रहे तीनों सदस्यों की रिपोर्ट को पिछली मनमोहन सरकार ने रद्दी की टोकरी में डाल दिया और मोदी सरकार ने पिछले चार साल में कश्मीर समस्या को हल करने की दिशा में आधा कदम भी नहीं बढ़ाया. सिविल सोसायटी के लोग भी कहने लगे कि अभी तो फिर भी हुर्रियत का एक नाम है और हुर्रियत में कश्मीर के अधिकांश लोगों का भरोसा है. अगर उनसे सरकार बातचीत करती है तो बात कहीं पहुंचे या न पहुंचे, लेकिन दोनों तऱफ तनाव में कमी आएगी और कश्मीर के लोगों को लगेगा कि सरकार ने एक क़दम आगे बढ़ाया.

सिविल सोसायटी के लोगों को इस बात की भी चिंता थी कि जिस तरह हुर्रियत की साख सरकार द्वारा कम की जा रही है, फिर जब कभी बातचीत का मौक़ा आया तो सरकार किससे बातचीत करेगी. सिविल सोसायटी के लोगों ने एक बात और कही. उनका कहना था कि डोभाल साहब की थ्योरी या डोभाल साहब की रणनीति कश्मीर में बेकार साबित हो चुकी है. उन लोगों ने बताया कि ये डोभाल साहब की रणनीति थी कि कश्मीर के लोगों को जितना क्रश करो, जितना दबाओ, जितना उन्हें खत्म करो, उतनी ही मिलिटेंसी पर लगाम लगेगी. लेकिन पिछले चार सालों में जितने मिलिटेंट मारे गए, उनसे ज्यादा मिलिटेंट पैदा हो गए और बुरहान वानी की मौत ने तो कश्मीर में सरकार के विरोध में और मिलिटेंसी के पक्ष में एक आंदोलन ही खड़ा कर दिया.

अब डोभाल साहब की रणनीति असफल हो गई है और खुद सुरक्षा बल मानते हैं कि कश्मीर में स्थानीय नौजवान मिलिटेंसी में शामिल हो रहे हैं. हालांकि ज्यादातर की ज़िंदगी छह महीने या साल भर से ज्यादा नहीं है, इतने में ही उनकी किसी न किसी तरह मुठभेड़ में मौत हो जाती है. इसके बावजूद, जिस तरह से 18-22 साल के नौजवान मिलिटेंट बन रहे हैं या मिलिटेंसी का समर्थन कर रहे हैं, वो बताता है कि सरकार की सोच में बुनियादी दिक्क़त है. सिविल सोसायटी के लोगों ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात बताई. उनका कहना था कि पहले तो जम्मू के लोगों की मांग होती थी कि जम्मू और कश्मीर को दो हिस्सो में बांट दिया जाए, यानि जम्मू को कश्मीर से अलग कर दिया जाए. लेकिन अब यही मांग कश्मीर के स्थानीय लोग करने लगे हैं. अब कश्मीरी लोग कह रहे हैं कि कश्मीर को जम्मू से अलग कर दिया जाए.

कश्मीरियों के खिला़फ ज़हर उगलते न्यूज़ चैनल

एक मशहूर महिला प्रोफेसर ने बातचीत में कहा कि कश्मीर के लोगों को लेकर सारे हिन्दुस्तान में इतना ज़हर फैला दिया गया है कि क्या कहा जाए. उन्होंने कहा कि वो एक दिन पहले न्यूज़ चैनल देख रही थीं. तमिलनाडु में पुलिस द्वारा पैलेट गन इस्तेमाल करने पर एक महिला ने टीवी पर कहा कि यह कश्मीर नहीं है, जहां तुम लोगों पर पैलेट गन चलाओ. हालांकि दो सेकेंड के बाद उन्होंने उसे सुधारा और कहा कि कश्मीर में भी पैलेट गन नहीं चलनी चाहिए. महिला प्रोफेसर ने कहा कि न्यूज़ चैनलों ने कश्मीर को लेकर ज्यादा ज़हर फैलाया है. सिविल सोसायटी को इस बात से भी काफी ग़ुस्सा था और वही ग़ुस्सा मुझे छात्रों के बीच भी मिला कि दिल्ली के न्यूज़ चैनल और उनके एंकर कश्मीर समस्या को बिगाड़ने में लगे हैं.

कश्मीर का माहौल बिगाड़ने में इनका 90 प्रतिशत योगदान है. जिस तरीके से न्यूज चैनलों पर बहस होती है, एंकर जिस तरीक़े से विषय को उठाते हैं और जिस तरह से टिप्पणियां करते हैं, वो कश्मीर के लोगों के स्वाभिमान पर सीधी चोट होती है. तब कश्मीर के लोग सोचते हैं कि क्या यही कश्मीर के हिंदुस्तान का अभिन्न अंग होने का सबूत है? हमारा रोज अपमान और हमें रोज गालियां, हमें रोज़ मिलिटेंट बताना, पाकिस्तान समर्थक बताना, तो फिर हम क्यों रहें आपके साथ? फिर तो वो ज्यादा सही हैं, जो आज़ादी मांगते हैं. उन्होंने सारे चैनलों को इसका हिस्सा बताया. स़िर्फ एक एनडीटीवी के लिए उन्हें थोड़ी सहानुभूति थी, लेकिन एनडीटीवी भी जब यहां के नौजवानों को क्रिटिसाइज़ करता है, तो फिर कुछ बच ही नहीं जाता.

सेना, गोली, मौत का डर नहीं

स्थानीय लोग यह भी बताते हैं कि सेना के लोग रात में घरों के अन्दर आ जाते हैं, मर्दों को बाहर निकाल देते हैं, खाना बनवाते है और रात में वहां सोते हैं. यह सच है या झूठ, पता नहीं. लेकिन इस तरह के क़िस्सों की भरमार पूरे साउथ कश्मीर में हर जगह बिखरी मिलती है. हो सकता है एकाध क़िस्से हुए हों या बहुत सारे क़िस्से हों. लेकिन यह तो पता चलता है कि सेना का रिश्ता स्थानीय लोगों से बहुत अच्छा नहीं है.

त्राल की यात्रा से मेरे सामने यह सा़फ हुआ कि जब तक स्थानीय लोगों का समर्थन मिलिटेंट को मिलता रहेगा तब तक मिलिटेंसी की समाप्ति कम से कम गोली से संभव नहीं है. सबको मालूम है कि आज कितने लोग मिलिटेंट बनने गए हैं. ये सब 20 से 25 साल के नौजवान होते हैं. अभी तक किसी लड़की के मिलिटेंसी में शामिल होने का सबूत नहीं मिला है. लेकिन जिस तरह लड़कियों के तेवर मुझे दिखे, उससे लगा कि बहुत जल्द हमारे सामने यह खबर भी आएगी कि लड़कियां भी मिलिटेंट बन रही हैं.

सरकार ने कहा कि श्रीनगर में पत्थरबाज़ी कम हो गई है, क्योंकि एनआईए का ऑपरेशन हुर्रियत नेताओं के खिला़फ हुआ. लेकिन लोगों ने मुझे बताया कि पत्थरबाज़ी और खतरनाक हो गई है. पहले पत्थरबाज़ी पुलिस या सीआरपीएफ के जवानों पर होती थी, लेकिन अब वहां हो रही है, जहां सेना का मिलिटेंट के खिला़फ ऑपरेशन होता है. पांच सौ से हज़ार लोग निकल कर सेना पर पत्थरबाज़ी करते हैं. कुछ क़िस्से तो ऐसे सामने आए कि पत्थरबाज़ी की वजह से सेना का ऑपरेशन असफल हो गया या सेना को अपना ऑपरेशन रोकना पड़ा. सेना का डर नहीं, गोली, मौत का डर नहीं, सीधे-सीधे मिलिटेंट के समर्थन में पत्थरबाज़ी. जनरल रावत के इस बयान का कोई असर नहीं कि वे पत्थरबाज़ों को भी मिलिटेंट की तरह ट्रीट करेंगे.

त्राल से वापस लौटते हुए यह समझ में आ गया कि कश्मीर, खास कर साउथ कश्मीर में कहीं वियतनाम का इतिहास न दुहराया जाए. कई जगह नौजवानों ने मुझसे कहा कि अमेरिका वियतनाम में इसलिए हार गया था, क्योंकि स्थानीय लोग कुछ और चाहते थे और अमेरिका जैसी महाशक्ति कुछ और. कुछ जगह लोगों ने यह भी कहा कि रूस अ़फग़ानिस्तान में हारा और रूस उस हार के परिणास्वरूप टूट गया. यूएसएसआर से वह केवल रूस रह गया. इस बात ने मुझे यह लिखने को मजबूर किया कि सरकार को अपनी कश्मीर नीति के बारे में दोबारा सोचना चाहिए और प्रधानमंत्री को अपने उस वाक्य का स्मरण करना चाहिए, जिसमें उन्होंने कहा था कि बात गोली से नहीं बनेगी, बात बोली से बनेगी.

कश्मीर में बढ़ता भ्रष्टाचार

श्रीनगर से वापस आते समय मैं एक आरटीआई एक्टिविस्ट से मिलने के लिए रुका. उनके यहां सात-आठ लोग बैठे थे. जब बातचीत शुरू हुई तो पता चला कि श्रीनगर में किस क़दर भ्रष्टाचार का बोलबाला है. ये सारे लोग अपने-अपने क्षेत्र के माहिर लोग थे. इनके लिए कश्मीर में अवसर नहीं है, कश्मीर में अवसर उनके लिए है, जो भ्रष्टाचार करते हैं. उदाहरण के तौर पर, सरकारी अस्पतालों में सामग्री सप्लाई करने के लिए टेंडर उन्हें नहीं मिलता जो इसके लिए क्वालिफाई करते हैं, बल्कि उन्हें मिलता है, जो मिस्त्री होते हैं, मैकेनिक होते हैं. अलग-अलग क्षेत्रों के नौजवान, जो एमईएस के साथ काम कर रहे हैं, उनसे किस तरह पैसे का लेनदेन होता है, दवाओं की सप्लाई में कैसे पैसा चलता है, शिक्षा विभाग में किस तरह से भ्रष्टाचार चल रहा है, सहकारिता में प्रमोशन किस गड़बड़ ढंग से हो रहे हैं, ये सारे सवाल भ्रष्टाचार से पीड़ित नौजवानों के ग्रुप ने मुझे बताया.

अगर इनकी अलग-अलग कहानियां लिखी जाएं तो किसी की भी कहानी तीन हज़ार शब्दों से कम में बताई ही नहीं जा सकती. आरटीआई कार्यकर्ता जम्मू-कश्मीर के लोगों को सूचना के अधिकार की ताक़त भी बताते हैं और उसके हिसाब से लड़ाई भी लड़ते हैं. लेकिन उनका भी एक दर्द है कि श्रीनगर में भ्रष्टाचार की बात इसलिए दबा दी जाती है, क्योंकि यहां सबका प्रिय विषय राजनीति है और राजनीति की आड़ में जम्मू-कश्मीर में भ्रष्टाचार का बोलबाला क़ायम है. हिना बट्‌ट ने भी कहा कि जम्मू कश्मीर को बाक़ी प्रदेशों से ज्यादा पैसा मिलता है. लेकिन उस पैसे का अबतक कोई इस्तेमाल ही नहीं हो पाता था, पैसा लौट जाता था. अभी भी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट्‌स जितनी तेजी से चलने चाहिए, नहीं चल रहे हैं.

स्कूलों के सामने पुलिस पिकेट क्यों?

अब सवाल फिर सरकार का है. क्या सरकार को इन सारी बातों के बारे में नहीं पता? मेरा मानना है कि सरकार को सब पता है, लेकिन सरकार के लिए काम करने वाली एजेंसियां ऐसी रणनीति बनाती हैं, जिससे सरकार परेशानी में आ जाए. उदाहरण के लिए, स्कूल के लिए पुलिस पिकेट रखने की क्या जरूरत है? जब सरकार को मालूम है कि लोग पुलिस की उपस्थिति से चिढ़ते हैं, तो स्कूल के दरवाज़े के पास पुलिस पिकेट रखने का मतलब स़िर्फ तनाव को बढ़ावा देना है. शुक्रवार को मीरवाइज़ उमर फारूक़ जामा मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने गए. नमाज़ के बाद लोग बाहर निकले और उन्होंने पुलिस को देखकर नारे लगाए और पत्थर चलाए, जिसके जवाब में पुलिस ने पैलेट गन चलाई. दस लोगों की आंखों में छर्रे लगे.

जैसे ही मुझे पता चला, मैंने अपने परिचित लोगों को फोन किया. उनमें से एक ने मुझे क़िस्सा बताया कि उसी शुक्रवार को दिन में बारह बजे वो एक जगह से गुज़र रहे थे. स्कूल में छुट्‌टी हुई थी. चार बच्चे बाहर निकले. उन्होंने देखा कि बाईं तरफ एक घर के पास ही सीआरपीएफ के कुछ सिपाही बैठे हैं. उन्होंने पत्थर उठाए और उन सिपाहियों पर फेंकना शुरू कर दिया और भाग गए. अगर सरकार स्कूलों और मस्जिदों के पास से पुलिस पिकेट हटा ले तो ऐसी घटनाएं नहीं घटेंगी. लेकिन स्थानीय अ़फसर जानबूझ कर स्कूलों और मस्जिदों के पास सुरक्षा बल तैनात कर देते हैं, जहां किसी प्रकार की हिंसा की संभावना नहीं होती है. इसी तरह, एक महत्वपूर्ण सवाल सिविल सोसायटी के लोगों ने उठाया. उन्होंने कहा कि मान लीजिए किसी घर में मिलिटेंट्स छुपे हैं, जब उन्हें पांच सौ सिपाही नहीं मार पाते या मार भी देते है तो इस आशंका में उस घर को उड़ा देते है कि कहीं कोई और उसमें छुपा तो नहीं है. वह घर मिलिटेंट का नहीं, किसी बेबस आदमी का होता है.

केंद्र सरकार को क्या करना चाहिए?

मुझे ऐसा लगता है कि कश्मीर को लेकर भारत सरकार को नए ढंग से सोचने की ज़रूरत है. अगर आप सोचते हैं कि दस लाख लोगों को मारने से शांति आ जाएगी तो यह दिवास्वप्न ही है. इसका समाधान स़िर्फ एक है कि प्रधानमंत्री अपने कैबिनेट में से किसी समझदार सहयोगी को कश्मीर में वार्ता के लिए लगाएं. वे सबसे बात करें. हुर्रियत से भी बात करें, कश्मीर के छात्रों से भी बात करें. क्या होगा अगर छात्र नारा लगा देंगे, क्या होगा अगर हिंदुस्तान मुर्दाबाद या पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा लगा दें. क्या इससे हिंदुस्तान मुर्दाबाद हो जाएगा या पाकिस्तान ज़िंदाबाद हो जाएगा. नहीं होगा. लेकिन भड़ास है, जो निकल जाएगी.

भारत सरकार को चिढ़ाने के लिए एक समय कश्मीर के हर घर में पाकिस्तानी झंडा लग जाता था. जब सरकार पाकिस्तानी झंडे से नहीं चिढ़ी तो घरों में पाकिस्तान और चीन दोनों के झंडे लगने लगे. सरकार उससे भी नहीं चिढ़ी तो अब चिढ़ाने के लिए पत्थरबाज़ी हो रही है. ये पत्थरबाज़ी देश के हर हिस्से में पहुंच रही है, जहां लोगों के मन में ग़ुस्सा पैदा होता है. मुगलसराय की एक घटना है. वहां पिछले दिनों एक गाड़ी छह घंटे से खड़ी थी. राजधानी ट्रेन वहां से गुजरी, लोगों ने पत्थर उठाया और राजधानी पर बरसा दिए, राजधानी के शीशे टूट गए. गाड़ी छह घंटे से क्यों खड़ी थी, किसी को नहीं पता और न कोई बताने को तैयार था. जब लोगों ने पत्थर फेंके तो हर जगह ़खबरें आने लगीं. न्यूज़ चैनलों को कश्मीर के बारे में बोलने से पहले अपने नागरिक कर्तव्य का ध्यान रखना चाहिए. उनकी भाषा, शैली, शब्दों से लोगों के मन आहत होते हैं. वे अपने ही देश के लोग हैं.

साउथ कश्मीर की इस यात्रा ने और छात्रों के साथ हुए विमर्श ने मुझे थोड़ा सा डरा दिया है. पर कश्मीर के लोग चाहते हैं कि उत्तर भारत के लोग कश्मीर जाएं और वहां की स्थिति देखें. वे खुद महसूस करें कि टेलीविज़न चैनल जो स्थिति बताते हैं, वैसी स्थिति है या नहीं है. श्रीनगर में कृष्णा ढाबा है, वेजिटेरियन ढाबा है. टूरिस्ट और स्थानीय लोगों से भरा पड़ा रहता है. चाहे हिंदू हों या मुसलमान हों. उस ढाबे में मैं खाना खाने गया. वहां स्थानीय लोग मिले, उन्होंने बताया कि देखिए हम सब लोग यहां प्यार मोहब्बत से रहते हैं. दिल्ली के टेलीविज़न चैनल चाहते हैं कि हम प्यार मोहब्बत से न रहें. वे हमारे ऊपर झूठे आरोप, झूठी तोहमतें लगाते रहते हैं. यहां कोई किसी से नहीं लड़ता. सब आपस में प्यार से रहते हैं. कश्मीर की मेरी इस यात्रा ने सा़फ कर दिया है कि सरकार को कश्मीर को लेकर फौरन आंख खोलनी चाहिए. सरकार को मानवीय तरीक़े से मनोवैज्ञानिक भाषा का इस्तेमाल करते हुए कश्मीर के लोगों से तत्काल बातचीत शुरू करनी चाहिए.

जब मैं बुरहान के घर पहुंचा…

टीवी चैनल के पत्रकारों ने मुझे त्राल जाने की सलाह दी थी. त्राल साउथ कश्मीर का वो मशहूर नाम है, जो शोपियां के बाद सबसे ज्यादा लिया जाता है. त्राल बुरहान वानी के इलाक़े के नाम से भी जाना जाता है. वानी यहीं का था. 2016 में बुरहान वानी के जनाज़े में 5 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे. बुरहान इस क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय था. स्थानीय लोग उसे अपने दुखों के खिलाफ लड़ने वाला सिपाही मानते थे. त्राल के रास्ते में मुझे बंकर दिखे, सेना के सिपाही दिखे. लोग बे़खौ़फ घूमते दिखे. हालांकि, मुझे श्रीनगर में कहा गया कि मैं त्राल संभल कर जाऊं और वहां से 5 बजे तक वापस आ जाऊं.

बुरहान वानी के नाम और इन डरावनी चेतावनियों की वजह से मेरे अन्दर के दुस्साहस ने मुझे निडर बना दिया. मैंने तय किया कि मैं सबसे पहले बुरहान वानी के घर जाउंगा. बुरहान वानी का घर त्राल की शुरुआत में ही है. बुरहान के पिता अपने घर के लॉन में अकेले बैठे थे. उनसे परिचय हुआ, धीरे-धीर बातचीत शुरू हुई. मैं बिल्कुल खामोश था और वेे बोल रहे थे. उनके दो बेटों की बलि चढ़ गई. उन्होंने बताया कि किस तरह से नौजवान मिलिटेंसी की तरफ आकर्षित होते हैं. वे जो देखते हैं, महसूस करते हैं और जब उन्हें उसका कोई नतीजा नहीं मिलता, तो हाथ में बन्दूक़ लेकर मौत को गले लगाने निकल प़डते हैं.

बुरहान वानी के घर में गांव की औरतें, मर्द बर्तन लेकर पानी भरने आ रहे थे. मैंने पूछा क्या गांव में पानी नहीं आता या स़िर्फ आपके घर में ही नल है. तब बुरहान वानी के पिता ने बताया कि यहां पर एक चश्मा है, जो शायद हज़ारों साल से है. वहां से अनवरत पानी आता रहता है. उसमें कैल्शियम की मात्रा ज्यादा है. इसलिए इलाक़े के लोग उस चश्मे से पानी भरते हैं. मुझे वहां सिख धर्म के लोग भी पानी भरते दिखे. वो त्राल में ही रहते हैं और स्थानीय आबादी के साथ रच-बस गए हैं. स्थानीय लोगों ने और खास कर सिख धर्म के लोगों ने बुरहान वानी के स्वभाव की का़फी तारी़फ की. तब मुझे समझ आया कि शायद बुरहान वानी का व्यवहार, शरीर की भाषा का ही असर रहा होगा कि उसकी शवयात्रा में 5 लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए. बुरहान वानी के भाई खालिद का भी इन्काउंटर हुआ था. जब मैंने बुरहान वानी के पिता से बुरहान और ़खालिद के इन्काउंटर के बारे में पूछा तो वे खामोश हो गए.

मैंने फिर त्राल के और लोगों से जानकारी ली तो पता चला कि बुरहान वानी 2010 में ही मिलिटेंसी में शामिल हो गया था. उसका भाई खालिद एक बार उससे मिलने पहाड़ों में गया, जिसे लौटते हुए सुरक्षाबलों ने पकड़ लिया और जब पता चला कि ये बुरहान का भाई है तो उसे मारा-पीटा और कहा कि हमें वहां ले चलो जहां बुरहान है. खालिद सुरक्षाबलों को लेकर उस जगह गया, लेकिन तब तक बुरहान वानी वहां से जा चुका था.

स्थानीय लोगों के अनुसार, खालिद के सिर के पिछले हिस्से पर ज़ोर से राइफल के बट से प्रहार किया गया. खालिद ने जैसे ही हाथ पीछे किए, उसे ज़मीन पर गिरा कर सारे दांत तोड़ दिए गए. लोगों ने बताया कि उसके शरीर पर कोई निशान नहीं था, मुंह पर पट्‌टी बंधी थी, सिर्फ नाक दिखाई दे रही थी, क्योंकि उसके सारे दांत शायद पैर की ठोकर से या राइफल की बट से तोड़ दिए गए थे. लोगों ने बताया कि बुरहान वानी के पुलिस के साथ कोई इन्काउंटर उनकी जानकारी में नहीं हुई.

बुरहान वानी की मौत के बारे में भी स्थानीय लोगों ने एक घटना बताई. बुरहान वानी को ये पता चला कि सुरक्षाबल अमरनाथ यात्रा पर आने वाले लोगों पर हमले की योजना बना रहे हैं, इससे बुरहान वानी परेशान हो गया. उसने त्राल के अपने दो सम्पर्क सूत्रों से कहा कि वे उसकी बातचीत त्राल के विधायक से कराएं. वे लोग विधायक के पास गए. विधायक ने बुरहान वानी से बातचीत की. बुरहान वानी ने उनसे कहा कि हमलोग कभी भी अमरनाथ यात्रियों पर हमला नहीं करेंगे, लेकिन हमारे नाम पर कुछ लोग हमला कर सकते है. विधायक ने ़फौरन वहीं से महबूबा मुफ्ती को फोन मिलाया और उनसे मिलने की इजाज़त मांगी. महबूबा मुफ्ती ने उन्हें ़फौरन बुला लिया. विधायक डे़ढ घंटे के भीतर पहुंचे और महबूबा मुफ्ती को सारी बात बताई.

महबूबा मुफ्ती ने डीजीपी को बुलाया और सारी जानकारी दी. डीजीपी वहां से निकल कर गए और एमएलए त्राल का फोन निगरानी पर (सर्विलांस) लगा दिया. उससे पता चला कि किन दो लड़कों के फोन से एमएलए को फोन जा रहा है. उन्हें पकड़ लिया गया. उन दोनों लड़कों को थर्ड डिग्री दी गई. उनसे कहा गया कि पुलिस फोर्स को लेकर वहां चलोे, जहां बुरहान वानी के होने की संभावना है. स्थानीय पुलिस को पता नहीं चला और डीजीपी के निर्देश पर एक स्पेशल टास्क फोर्स ने वहां छापा मारा और बुरहान वानी का इन्काउंटर हो गया. इन क़िस्सों में कितनी सच्चाई है, मैं नहीं जानता. लेकिन ये दोनों क़िस्से ऐसे हैं, जो त्राल के हर आदमी की ज़ुबान पर हैं. त्राल और शोपियां मिलिटेंसी के बड़े केंद्र हैं और यहां आर्मी का मूवमेंट भी बहुत ज्यादा है.

कश्मीर के भाजपा नेता भी बातचीत चाहते हैं

साउथ कश्मीर की यात्रा के बाद मुझे लगा कि भारतीय जनता पार्टी के उन लोगों से मिलना चाहिए, जिन्होंने कश्मीर में या श्रीनगर में भारतीय जनता पार्टी के लिए जगह बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. एक शाम मेरी मुलाक़ात दरख्शां अंद्राबी से हुई. उनसे लंबी बातचीत हुई. दरख्शां जी का मानना है कि नौजवानों को भटकाया जा रहा है, भरमाया जा रहा है. कैसी आज़ादी, कहां की आज़ादी, आज़ादी लेकर क्या करेंगे, आज़ादी का कोई कॉन्सेप्ट किसी के सामने सा़फ नहीं है. वे इस बात पर आकर चुप हो गईं कि आ़िखर सरकार कश्मीर के लोगों से बातचीत क्यों नहीं करती. उनका कहना था कि वे  पार्टी में हैं, लेकिन पार्टी में रहते हुए सरकार से यह हमेशा अनुरोध करती हैं कि कश्मीर के लोगों से बातचीत शुरू होनी चाहिए और उनके संदेहों को दूर करना चाहिए.

अगले दिन मेरी मुलाक़ात हिना बट्‌ट से हुई. हिना बट्‌ट मेडिकल डॉक्टर हैं. उनके पिता संसद सदस्य और विधायक रहे हैं. हिना बट्‌ट ़खुद इस बार चुनाव लड़ कर विधानसभा जाना चाहती थीं, लेकिन वे चुनाव जीत नहीं पाईं. हिना बट्‌ट प्रधानमंत्री की क़रीबी हैं और प्रधानमंत्री उनसे लगभग हर दो महीने में मिलते रहते हैं. हिना बट्‌ट से भी का़फी लंबी बातचीत हुई कश्मीर के सवालों पर. शुरू में उनका नज़रिया का़फी तल़्ख था और वे कश्मीर समस्या का दोष सफलतापूर्वक फैलाए जा रहे भ्रम और संदेहों को देती रहीं. लेकिन इस सवाल से उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें आ गईं कि क्यों कश्मीर का नौजवान ज़िंदगी से निराश होकर मौत से मोहब्बत करने लगा है. उन्होंने कहा कि हां, कहीं हमसे बातचीत में चूक हो रही है या लोगों को जिस भाषा में समझाना चाहिए, उतनी कोशिश नहीं हो पा रही है. उन्होंने इस बात को सा़फ किया कि वे  खुद प्रधानमंत्री से मिलकर गंभीर और सार्थक बातचीत शुरू करने के लिए अनुरोध करेंगी.

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