harish-rawatउत्तराखंड में विश्वास मत हासिल करने से पहले राष्ट्रपति शासन लगाने के मामले की सुनवाई उत्त्तराखंड हाईकोर्ट से होती हुई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है. इस प्रकरण के दो पहलू हैं, पहला तो घटनाक्रम है, जिसकी प्रकृति राजनीतिक है. इसमें अदालत बहुत कुछ नहीं कह सकती. दरअसल, राजनीतिक दलों को इस सिलसिले में स्वस्थ मानक स्थापित करने चाहिए. दल-बदल क़ानून जिस मकसद से बनाया गया था, बदकिस्मती से वह मकसद पूरा नहीं हो पा रहा है. लोगों के अंदर नैतिकता अलग से नहीं डाली जा सकती है. एक पार्टी से चुनाव जीतना और दूसरी पार्टी में जाना आ़खिरकार नैतिकता का ही विषय है.

विधायकों को एंटी डिफेक्शन क़ानून के दायरे में लाने से कोई मकसद पूरा नहीं होगा. जो उत्तराखंड में हुआ और इससे पहले दूसरे राज्यों में हुआ, उसमें आम तौर पर यह देखा गया कि जब विधायकों की संख्या इतनी नहीं होती कि वे पार्टी को क़ानूनी तौर पर तोड़ सकें, तो अयोग्यता के दायरे में आने से बचने के लिए वे बगावत कर देते हैं. ऐसे में सत्ताधारी पक्ष का स्पीकर उनकी सदस्यता खत्म कर देता है या उन्हें निलंबित कर देता है. इस तरह सदन की क्षमता कृत्रिम तरीके से कम कर दी जाती है और यह तय हो जाता है कि सत्ताधारी पक्ष सत्ता में बना रहेगा.

केंद्र सरकार, चाहे जिस भी पार्टी की हो, राष्ट्रपति शासन लगा देती है. अगर मुख्यमंत्री आ जाता है या नया स्पीकर आ जाता है, तो वह विधायकों से संबंधित अयोग्यता के फैसले को उलट देगा. यह राजनीतिक कमजोरी है और इससे प्रजातांत्रिक मूल्यों में बेहतरी नहीं आती. स्पीकर को न्यायसंगत होना चाहिए, लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल में सभी स्पीकर सत्ताधारी दलों के हितों के लिए काम करते हैं.

केंद्र सरकार द्वारा उत्तराखंड हाईकोर्ट में जो पक्ष रखा गया, उसमें कहा गया कि राष्ट्रपति के फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती. यह एक ग़लत अवधारणा है. यह अलग बात है कि राष्ट्रपति देश के प्रतीक हैं और व्यक्तिगत तौर पर उनके खिला़फ कुछ भी नहीं कहा जा सकता. लेकिन, उनके किसी फैसले पर सवाल नहीं उठाया जा सकता, यह बात गले से नहीं उतरती. राष्ट्रपति का हर फैसला मंत्रिपरिषद की सलाह और मदद से होता है. संविधान में जहां भी राष्ट्रपति शब्द आता है, तो उसका मतलब होता है केंद्रीय मंत्रिमंडल (आप इसे केंद्र सरकार भी पढ़ सकते हैं). राष्ट्रपति की बात केंद्र सरकार की बात होती है.

उनके शब्द केंद्र सरकार के शब्द होते हैं. इसलिए राष्ट्रपति के फैसले की समीक्षा अदालत में हो सकती है. मिसाल के तौर पर, अगर राष्ट्रपति कोई अध्यादेश जारी करते हैं, तो उसे अदालत में चुनौती दी जा सकती है, क्योंकि राष्ट्रपति केवल नाम के लिए ही उक्त अध्यादेश जारी करते हैं. असल में वह अध्यादेश केंद्र सरकार की ओर से जारी किया जाता है. इसलिए यह कह देना कि राष्ट्रपति ने कोई फैसला लिया है, तो कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता, ग़लत है. अदालत की सुनवाई चाहे जिस दिशा में जाए, पर मसला यह है कि लेकिन राष्ट्रपति शासन हटने के बाद जो भी मुख्यमंत्री बनेगा, वह अपना स्पीकर नियुक्त करेगा, जो एंटी डिफेक्शन में फंसे नौ विधायकों से जुड़े फैसले को उलट देगा. यह लोकतंत्र के लिए सही नहीं होगा.

ऐसा कोई तरीका खोजना चाहिए, जिसके ज़रिये इस तरह के संकट का समाधान निकल सके. अगर कोई वास्तविक संकट पैदा होता है, तो विधानसभा भंग की जानी चाहिए और नए चुनाव कराने चाहिए, ताकि जनता की अदालत में सही फैसला हो सके. लोकतंत्र में सबसे बड़ा जज जनता है. यह एक भौंडा खेल है, जो पहले अरुणाचल में खेला गया और फिर उत्तराखंड में. कांग्रेस ने भी दर्जनों बार ऐसा खेल खेला. यह सोचा जा रहा था कि नरेंद्र मोदी एक नया ट्रेंड सेट करेंगे और भाजपा कुछ अच्छे मानक स्थापित करेगी, लेकिन मुझे अ़फसोस है कि ऐसा नहीं हुआ.

दिल्ली में जब स़िर्फ पांच विधायकों की ज़रूरत थी, तब उन्होंने ऐसा नहीं किया. लोगों में आशा जगी कि भाजपा इस तरह का खेल नहीं खेेलेगी. भाजपा ने दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जोड़-तोड़ करने की जगह चुनाव में जाना पसंद किया. भाजपा चुनाव में गई, लेकिन हार गई. अभी वहां आम आदमी पार्टी की सरकार है. लेकिन, मुझे लगता है कि बिहार चुनाव के बाद उन्होंने समझ लिया है कि जनता को टेकेन फॉर ग्रांटेड नहीं लिया जा सकता. इसलिए उन्होंने कांग्रेस के तरीके अपनाने शुरू कर दिए. भाजपा को लगा कि यही एकमात्र व्यवहारिक तरीका है, जो उन्होंने उत्तराखंड एवं अरुणाचल में इस्तेमाल किया और शायद आगे हिमाचल में भी उसका इस्तेमाल हो यह बहुत अ़फसोसजनक स्थिति है. जितनी जल्दी सारे राजनीतिक दल एक जगह एकत्र होकर संविधान के सही क्रियान्वयन के लिए बेहतर रास्ता निकालें, देश के लिए उतना ही अच्छा होगा.

चिंता का दूसरा विषय है महाराष्ट्र और देश के दूसरे हिस्सों में सूखे की स्थिति. अच्छे मानसून की संभावना और उसके साथ आने वाली बाढ़ सालाना समस्याएं हैं. या तो बहुत कम बारिश होगी या बहुत ज़्यादा. यानी सूखा या बाढ़ की स्थिति. मैं नहीं समझता कि हमारे पास इस स्थिति से निपटने के लिए कोई राष्ट्रीय योजना है. हमारे यहां नेशनल डिजास्टर रिलीफ कमीशन मौजूद है, जिसे वाजपेयी सरकार के दौरान गठित किया गया था. यह ठीक है. इस तरह की स्थिति में काम करने के लिए यही एकमात्र संस्था है. लेकिन, आपदा रोकने के लिए कोई योजना नहीं है. बेशक, वे नदियों को आपस में जोड़ने की बात कर रहे हैं, लेकिन उससे पर्यावरणीय एवं पारिस्थितिकी से जुड़ी समस्याएं पैदा होंगी. फिलहाल, जो सबसे अधिक सूखा और बाढ़ प्रभावित क्षेत्र हैं, वहां माइक्रो मैनेजमेंट करना होगा.

बिहार में जब भी नदियां उफान पर आती हैं, वहां बाढ़ आ जाती है और उसके बाद ही हम कोई क़दम उठाते हैं. इस पर गंभीर रूप से विचार करना चाहिए. प्रधानमंत्री विशेषज्ञों की एक कमेटी बना सकते हैं, जो इस समस्या का अध्ययन करे और उपाय सुझाए. अगर इसमें बड़ी रकम भी खर्च होती है, तो कोई बात नहीं. क्योंकि, जो तंत्र इसके लिए बनाया जाएगा, वह इस लायक होगा कि ऐसी स्थिति का सामना कर सके या ऐसी स्थिति पैदा होने से रोके. बाढ़ आने या सूखा पड़ने के बाद आप जो पैसा खर्च कर रहे हैं, वह इससे कहीं ज़्यादा है. उम्मीद करनी चाहिए कि सरकार इस पर ध्यान देगी.

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