kamal morarkaबिहार में महागठबंधन की सरकार शुरुआत से ही कई रुकावटों और अड़चनों के साथ चल रही थी. इसका मुख्य कारण था लालू यादव और नीतीश कुमार के दृष्टिकोण में जमीन-आसमान का फर्क. मौजूदा घटनाक्रम में प्रेरक का काम किया उपमुख्यमंत्री और लालू प्रसाद के पुत्र तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों ने. इस घटनाक्रम की लालू की अपनी व्याख्या थी. उन्होंने यह फैसला किया कि उनके पुत्र इस्तीफा नहीं देंगे. स्वाभाविक रूप से भाजपा ने इस मौके का फायदा उठाया.

भाजपा पूरे देश में अपने क़दम जमाने की कोशिश कर रही है और एक तरह से उसने कांग्रेस का स्थान ले लिया है. अब भाजपा को अलग तरह की या आरएसएस के सिद्धांतों पर चलने वाली पार्टी कहना बनावटी बातें हैं. अब यह सा़फ है कि यह एक सत्ताधारी पार्टी है, जो बिल्कुल वैसी ही है जैसी सत्ता में रहते हुए कांग्रेस थी.

भाजपा भी सत्ता में बने रहने के लिए वही हथकंडे अपना रही है, जो कांग्रेस वर्षों से अपनाती आई है. उनमें से कुछ हथकंडे हैं, दल-बदल और सहयोगियों के बीच दूरी पैदा करना. दरअसल, राजनीति में ये सामान्य तौर पर होता है. मैं इसके लिए उनपर आरोप नहीं लगा सकता. लेकिन फिलहाल बिहार में यही हुआ है. उन्होंने एक कहानी गढ़ी कि महागठबंधन की सरकार गिराने के लिए लालू भाजपा के सम्पर्क में हैं. नीतीश ने सोचा कि इससे पहले कि लालू ऐसा करें, मैं ही ऐसा क्यों न कर लूं.

चुनाव के बाद अरुण जेटली ने केसी त्यागी से कहा था, ‘ठीक है, आप अभी सरकार बना लीजिए. हो सकता है कि भविष्य में हमें साथ काम करना पड़े.’ हर व्यक्ति राजनीति का आकलन अपनी तरह से करता है. सभी इस बात से सहमत हैं कि लालू प्रसाद एक ऐसे राजनेता हैं, जो सत्ता में सह-नायक की भूमिका में नहीं रह सकते. आखिरकार यही हुआ. अब जो कुछ हुआ उसपर अच्छे या बुरे की टिप्पणी करने का कोई मतलब नहीं है. मैं इस ख्याल का हूं (और यह अल्पसंख्यक ख्याल है) कि कोई भी व्यक्ति इस देश को सामान्य राजनीतिक परिपाटी से अलग नहीं चला सकता है.

भारत के संविधान, राज्य के नीति निर्देशक तत्व और मौलिक अधिकार आदि में ऐसे प्रावधान किए गए हैं कि कोई भी व्यक्ति या पार्टी सत्ता में आ जाए, वो शासन व्यवस्था में दस प्रतिशत से अधिक बदलाव नहीं ला सकते. कांग्रेस भी ऐसे ही शासन चला रही थी, मोरारजी देसाई सरकार भी ऐसे ही शासन चला रही थी. वी पी सिंह, चन्द्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल की सरकारें भी ऐसे ही चलीं. सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन कोई प्रधानमंत्री अपनी कार्य शैली, अपने व्यक्तित्व, अपनी सूझबूझ और समस्याओं को सुलझाने की अपनी कुशलता के कारण पहचान छोड़ जाता है. यह सोचना दूर की कौड़ी है कि आप नौकरशाही और राजनेताओं के चरित्र को बदल देंगे. यह आरएसएस का सपना है और सपना ही रहेगा.

आप चाहते हैं कि हिन्दू (हिन्दू बहुमत में हैं और उनमें से एक मैं भी हूं) यह मानें कि गाय की जान इंसान की जान से कीमती है. लेकिन आप कुछ भी कर लें लोग आपकी बात नहीं मानेंगे. एक आम हिन्दू के लिए गाय पूजनीय है, मैं भी इसमें विश्वास करता हूं, लेकिन किसी इंसान की जान की कीमत पर नहीं, बिलकुल नहीं! और यही हिंदुत्व है. हालांकि जाति व्यवस्था हमारी बड़ी असफलता रही है, क्योंकि इसने दलित और पिछड़ी जातियों को पिछड़ा रखा.

बहरहाल, उच्च जाति के हिन्दू, समृद्ध हिन्दू, या पढ़े-लिखे समाज के लोग, भले ही अपनी सम्पत्ति दलितों के साथ न बांटें, लेकिन वे उन्हें यातना नहीं देंगे या उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाएंगे. आरएसएस सोचती है कि शाखा लगाने और एक बड़ी संख्या में लोगों को जोड़ लेने से हिन्दू मिलिटेंट बन जाएंगे. उन्हें समझना चाहिए कि हिन्दू मिलिटेंट नहीं होते, हिन्दू सेक्युलर होते हैं. हलांकि सेक्युलरिज्म आज-कल अच्छा शब्द नहीं माना जाता. हिन्दू बहुसंस्कृतिवाद में विश्वास करते हैं.

हिन्दू कौन हैं? हर वो आदमी हिन्दू है, जो शिव में विश्वास करता है, विष्णु में विश्वास करता है, श्री कृष्ण में, साईं बाबा में या अन्य कई देवी-देवताओं में विश्वास करता है. हिन्दुत्व एक व्यापक प्लेटफॉर्म है, तो फिर यह क्यों नहीं हो सकता है कि देश का हर व्यक्ति जो इस्लाम और ईसाई धर्म मानता है, वो भी हम में से एक है. इससे क्या फर्क पड़ जाएगा. आप भगवान को एक ख़ास नाम से याद कर रहे हैं.

हिन्दुत्व में कोई पाबंदी नहीं है. कोई सोमवार को मंदिर जाता है, कोई गणपति मंदिर में मंगल को जाता है, कोई शनिवार को शनि मंदिर में जाता है, हिन्दुत्व की जड़ें बहुत गहरी हैं. इसका अध्ययन इतना गहरा है कि मुझे कहने दीजिए कि आरएसएस इसके नज़दीक नहीं पहुंच सकता.

वे सनातनी हिन्दू नहीं हैं, वे राजनैतिक हिन्दू हैं. वे हिन्दुओं को वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं. अपने मिलिटेंट दृष्टिकोण के कारण पहले वे 10-20 प्रतिशत हिन्दू वोट हासिल कर लिया करते थे. इस बार उन्हें 30 प्रतिशत वोट मिले. लेकिन वो वोट हिंदुत्व के कारण नहीं मिले, बल्कि नरेंद्र मोदी के एक निर्णायक नेता के रूप में उभरने के कारण मिले. उन्होंने नौकरी, आर्थिक उन्नति, भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग और कालाधन पर एक विमर्श तैयार किया था, जिसपर लोगों ने विश्वास किया.

अगले चुनाव में लोग उन्हें पांच साल के दौरान किए गए कार्यों के आधार पर वोट देंगे. वे इसलिए उन्हें वोट नहीं देंगे कि वे हिन्दू हैं. मैं इस बात की तारीफ करूंगा कि मोदी ने संविधान का पालन किया है. उन्होंने कहा था कि गीता पवित्र किताब है, लेकिन भारत की एक मात्र पवित्र किताब संविधान है. उन्होंने कहा कि गाय के नाम पर लोगों को पीट-पीट कर जान से मारने के कृत्य से वे सहमत नहीं हैं. उन्होंने कुछ भी ऐसा नहीं किया, जिसे साम्प्रदायिक कहा जाए.

आरएसएस की स्थापना 1925 में हुई थी. आठ वर्ष बाद यह संगठन सौ साल का हो जाएगा. आरएसएस को कम करके नहीं आंका जा सकता. यदि उनके कार्यों से हिन्दुत्व को बढ़ावा मिलता है, तो मैं उनके साथ हूं. लेकिन किस तरह का हिन्दुत्व? यह वो हिन्दुत्व नहीं होगा, जिसे वे परिभाषित करते हैं. वीर सावरकर उनके सबसे बड़े नायक हैं. उन्होंने गाय के बारे में क्या कहा था? उन्होंने कहा था कि गाय एक उपयोगी जानवर है. जब तक उपयोगी है तब तक ठीक है, उसके बाद उसे मरना है.

उन्होंने गाय के लिए लोगों को मारने की वकालत नहीं की. वे तार्किक व्यक्ति थे. लेकिन कई मामलों में मैं उनसे सहमत नहीं हो सकता हूं. गांधी की हत्या में उनकी भूमिका संदिग्ध थी, लेकिन अदालत ने उन्हें बरी किया था और वो मामला समाप्त हो गया था. आज आरएसएस भारत के विमर्श को बदलने की जो कोशिश कर रहा है, वो बहुत कमज़ोर और बेढंगा है. ये कोशिशें तीन साल में नाकाम हो चुकी हैं. मोदी ने कोशिश की (हमें उन्हें इसका श्रेय देना चाहिए). उन्होंने नोटबंदी की. उन्हें लगा कि इसका प्रभाव वैसे ही होगा, जैसा इंदिरा गांधी द्वारा किए गए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का हुआ था. लेकिन इसे नकार दिया गया. नोटबंदी का कोई वैसा कोई प्रभाव नहीं पड़ा.

जीएसटी, जिसका श्रेय उन्हें नहीं जाता, इसकी शुरुआत अटल बिहारी वाजपेयी के ज़माने में हुई थी. यूपीए के पहले और दूसरे कार्यकाल में इस पर चर्चा जारी रही. अब गलत या सही, यह एक कर प्रणाली है. जो चीज़ पहले से ही मौजूद हो, उसे बनाने या सृजित करने के लिए समय और ऊर्जा व्यर्थ नहीं कर सकते हैं. यह देश इतना प्राचीन है (यह एक सनातनी देश है), आप ऐसी चीज़ कहां से लाएंगे जो बिल्कुल नई हो. बेशक, हम वैज्ञानिक दृष्टि से नई और उन्नत चीज़ों को ला सकते हैं, जैसे राजीव गांधी कंप्यूटर ले कर आए थे.

कंप्यूटर की वजह से बैंकों के लेनदेन आसान हो गए. पैसा हस्तांतरित करने की प्रणाली आई, क्रेडिट कार्ड आए. ये सारी चीज़ें स्वागत योग्य हैं, लेकिन आप भारत की बुनियादी सोच को नहीं बदल सकते. गांव में रहने वाला एक इंसान, एक हिन्दू व्यक्ति हमेशा अपनी सीमाओं में ही रहेगा. आप उसे नौकरी का आश्वासन दे सकते हैं, लेकिन जब उसे नौकरी नहीं मिलेगी, तो वो आप पर कब तक विश्वास करेगा.

2019 की उल्टी गिनती शुरू हो गई है. बिहार सरकार को तोड़ कर उसमें शामिल होना उनकी रणनीति का हिस्सा है. लेकिन मुझे यहां सा़फ कर देना चाहिए कि कोई भी 2019 के चुनाव को हल्के में नहीं ले सकता. पिछले चुनावों में भाजपा को अपने दम पर 282 सीटें मिलीं. अब सवाल ये उठता है कि क्या वे इस आंकड़े को पार कर पाएंगे? उनके समर्थक भी मानते हैं कि यह मुमकिन नहीं है. यदि ये संख्या नहीं मिलती तब भी वे सरकार बना सकते हैं, क्योंकि उनके साथ उनके सहयोगी होंगे. यदि सभी उनका समर्थन करेंगे, तो यह एक गठबंधन की सरकार होगी और इसमें कोई समस्या भी नहीं है. भारत पर 545 लोकसभा सदस्य शासन करते हैं. जिस गठबंधन के पास अधिक सदस्य होंगे, वो शासन करेगा.

मेरा कहना यह है कि विमर्श बदलने से काम नहीं चलेगा. आप नौकरियों, विकास और उज्ज्वल भविष्य से हमारा ध्यान गाय, शास्त्र और मंदिर के तरफ न ले जाएं. उन्होंने वादा किया था कि वे कश्मीर समस्या का समाधान कर देंगे. कश्मीर अभी कहां खड़ा है? कृपया हमें बताएं. वे हर महीने मन की बात करते हैं, लेकिन कश्मीर मुद्दे पर अपनी रिपोर्ट कार्ड नहीं देते कि वहां क्या हुआ. कभी उन्होंने नहीं कहा कि हमने कोशिश की लेकिन नाकाम रहे और हम अपनी रणनीति बदल रहे हैं.

हर सरकार के काम करने के अपने तरीके होते हैं. मौजूदा सरकार ने शासन करने की कला में महारत हासिल कर ली है. वे जान गए हैं कि सीबीआई का उपयोग या दुरुपयोग कैसे किया जाए. वे जान गए हैं कि आईबी का उपयोग या दुरुपयोग कैसे किया जाए. हर सरकार ये करती है. उन्हें ये कहना बंद कर देना चाहिए कि वे अलग तरह की पार्टी हैं या चरित्रवान पार्टी हैं और कांग्रेस एक चरित्रहीन पार्टी है. दरअसल, वे कांग्रेस मुक्त भारत चाहते हैं और कांग्रेस युक्त भाजपा बना रहे हैं. कांग्रेसियों को भाजपा में शामिल कर सरकार बना रहे हैं. हमारी शुभकामनाएं उनके साथ हैं.

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