बिहार में कांग्रेस की दुर्दशा के लिए वैसे तो प्रदेश इकाई जिम्मेदार है, पर इससे कहीं ज्यादा दिल्ली में बैठे पार्टी नेताओं के रवैये ने कांग्रेस का भट्‌ठा बैठा दिया. दिल्ली के स्तर पर कई तरह की गलतियां हुईं. पहली गलती यह रही कि बिहार को लेकर हर फैसलों को लंबे समय तक टाला गया. इसका प्रतिकूल असर यह हुआ कि देर से लिए गए फैसलों से पार्टी को फायदा कम नुकसान ज्यादा हुआ.

rahul-gandhiबिहार में लगता है कि भगवान कांग्रेस पर कुछ ज्यादा मेहरबान हैं. उसे संभलने और आगे बढ़ने के कई मौके मिले, पर देश और राज्यों की सत्ता पर दशकों तक काबिज रही कांग्रेस पार्टी ने इन मौकों को गंवा दिया. आज हालात ऐसे हैं कि अब कांग्रेस मुक्त बिहार की कल्पना तक की जाने लगी है. श्रीकृष्ण बाबू से लेकर डॉ. जगन्नाथ मिश्र तक कांग्रेस की सत्ता ने लोगों को यह अहसास दिलाया कि यहां वादों और नारों की बाढ़ तो है, पर जमीन पर विकास की मंजिल अभी दूर है.

आजादी के बाद सूबे बिहार में कांग्रेस शासन का जो कालखंड है, उसमें सामाजिक न्याय का एजेंडा कागजों और नारों में तो बढ़-चढ़ कर दिखा, पर इसकी जमीनी हकीकत को लालू प्रसाद और नीतीश कुमार सरीखे नेताओं ने बारीकी से पहचान लिया. यही वजह रही कि सही मायनों में सामाजिक न्याय दिलाने की पृष्ठभूमि में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जैसे नेेताओं का उदय हुआ और इन्होंने  कांग्रेस के हाथों से सत्ता छीन ली. इसके बाद कांग्रेस गिरते-संभलते खुद को घसीटती रही और आज की तारीख तक कांग्रेस बिहार में इन नेताओं और इनकी पार्टी की पिछलग्गू की भूमिका से आगे नहीं निकल पाई.

जानकार कहते हैं कि बिहार में कांग्रेस की दुर्दशा के लिए वैसे तो प्रदेश इकाई जिम्मेदार है, पर इससे कहीं ज्यादा दिल्ली में बैठे पार्टी नेताओं के रवैये ने कांग्रेस का भट्‌ठा बैठा दिया. दिल्ली के स्तर पर कई तरह की गलतियां हुईं. पहली गलती यह रही कि बिहार को लेकर हर फैसलों को लंबे समय तक टाला गया. इसका प्रतिकूल असर यह हुआ कि देर से लिए गए फैसलों से पार्टी को फायदा कम नुकसान ज्यादा हुआ. इसे हम अशोक चौधरी के ताजा उदाहरण से समझ सकते हैं. पहले तो कई वरिष्ठ नेताओं की राय की उपेक्षा करते हुए अशोक चौधरी को अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी गई.

उस समय पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को यह समझाया गया कि चुनाव के बाद चीजों को ठीक कर लिया जाएगा. महागठबंधन बना, चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता में भागीदार बन गई. अब हुआ कि एक व्यक्ति, एक पद को मानते हुए अशोेक चौधरी को या तो मंत्री रहना चाहिए या फिर पार्टी अध्यक्ष. जिन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं मिली, उन्होंने माहौल बनाना शुरू कर दिया. उस समय हर हाल में अशोक चौधरी पार्टी को एकजुट रखना चाहते थे और सदानंद सिंह खेमा हर हाल में अशोक चौधरी को हटाना चाहता था. पटना से लेकर दिल्ली तक लॉबिंग शुरू हो गई.

राहुल गांधी तक संभव नहीं हो पाया तो बिहार प्रभारी सीपी जोशी के यहां दरबारी जुटने लगे. लेकिन अशोक चौधरी के मामले में कोई फैसला नहीं हो पाया. सूत्र बताते हैं कि एक दफा खुद अशोक चौधरी ने राहुल गांधी के पास यह प्रस्ताव रखा कि एक व्यक्ति एक पद के तहत वे चाहते हैं कि मंत्री का पद छोड़ दिया जाए. लेकिन महीनों बीत जाने के बाद भी अशोक चौधरी के इस प्र्र्रस्ताव पर कोई फैसला नहीं हुआ. देखते-देखते कुछ दिनों बाद महागठबंधन की सरकार गिर गई और एक व्यक्ति एक पद का नियम खुद अशोक चौधरी पर लागू हो गया. लेकिन कई खेमों में बंटी बिहार कांग्रेस के कुछ नेताओं को अशोक चौधरी की कुर्सी और भी खटकने लगी.

बताया जाने लगा कि कांग्रेस आलाकमान भी चाहता है कि अशोक चौधरी को हटाया जाए पर उसकी जगह पर कौन आए, इसे लेकर फैसला नहीं हो पा रहा है. मतलब आलाकमान ने एक बार फिर फैसला समय के भरोसे छोड़ दिया. लेकिन कांग्रेस के 27 विधायकों की बैचेनी बढ़ती ही जा रही थी. कांग्रेस विधायकों के टूटने की खबर आने लगी और अशोक चौधरी के समर्थक और विरोधी विधायकों ने एक दूसरे पर पार्टी तोड़ने का आरोप लगाना शुरू कर दिया. इस बीच अशोक चौधरी की मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ नजदीकियां सार्वजनिक होने लगीं. इसके बाद आलाकमान को लगा कि कुछ किया जाए.

दिल्ली में पहले सामूहिक और बाद में वन टू वन विधायकों से बात की गई. विधायकों को भरोसा दिलाया गया कि जल्द ही उचित फैसला होगा, लेकिन लंबे इंतजार के बाद यह फैसला हुआ कि अशोक चौधरी को हटा कर उनकी जगह कौकब कादरी को कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया गया. पार्टी को जब एक तेजतर्रार अध्यक्ष की जरूरत थी, तब उनकी जगह कादरी जी को कमान दी गई, वह भी कार्यकारी की हैसियत से.

संदेश साफ था कि आलाकमान के मन में अभी कुछ और चल रहा है. यह तो एक उदाहरण भर है. पिछले दो दशकों से कांग्रेस ने बिहार के संदर्भ में कभी भी खुलकर कोई निर्णय नहीं लिया, जिसका खामियाजा पार्टी को लगातार भुगतना पड़ रहा है. जानकार बताते हैं कि कांग्रेस में दिक्कत असल में नीतिगत है. लालू प्रसाद और उनकी पार्टी को लेकर कांग्रेस क्या करे और क्या न करे इसे लेकर कोई ठोस निर्णय पिछले 15 साल में नहीं ले सकी है. लालू प्रसाद को लेकर कांग्रेस नेतृत्व की दुविधा ने बिहार कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचाया. कभी राय बनती है कि अकेले चला जाए, तो कुछ दिन बाद तय होता है कि लालूू के सहयोग के बिना बिहार में पार्टी का चलना मुश्किल है.

धर्मनिरपेक्षता की दुहाई और नरेंद्र मोदी का डर दिखाया जाता है. एक दौर था जब कांग्रेस ने अकेले चलने की बात की थी तो उस समय के प्रदेश अध्यक्ष अनिल शर्मा और कार्यकारी अध्यक्ष समीर सिंह की टीम ने कांग्रेस को काफी मजबूूत कर दिया था और उस समय लगने लगा था कि अगर यह सिलसिला जारी रहा तो कांग्रेस अपने पुराने गौरव को हासिल कर लेगी. लेकिन फिर कांग्रेस आलाकमान की हां और ना वाली नीति सामने आ गई और पार्टी एक बार फिर पीछे की ओर खिसकने लगी. आज हालात यह है कि अशोक चौधरी के नेतृत्व में कांग्रेस के चार एमएलसी जदयू में शामिल हो चुके हैं. विधायक मुन्ना तिवारी, सुदर्शन सिंह और आनंद किशोर खुलेआम सदानंद सिंह को भला-बुरा कह रहे हैं.

सूत्र बताते हैं कि अगर माहौल बना रहा तो राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस के दस से अधिक विधायक छठे उम्मीदवार के लिए क्रॉस वोटिंग कर सकते हैं. यही सिलसिला विधान परिषद के चुनाव में भी जारी रहेगा. दरअसल इन विधायकों के बगावती तेवर के पीछे इनके विधानसभा का चुनावी गणित है. जदयू और भाजपा के तालमेल के बाद इनके क्षेत्रों में जो समीकरण मौटे तौर पर बन रहा है, उसमें लालू प्रसाद के साथ रहने में इन्हें परेशानी हो सकती है. नीतीश कुमार का अतिपिछड़ा वोट नहीं मिलने से इन कांग्रेसी विधायकों को अगले चुनाव में परेशानी हो सकती है. इसलिए ऐसे विधायक जिन्हें लगता है कि महागठबंधन का त्याग करने में ही भलाई है वे अभी से माहौल बनाने में लग गए हैं. पहली परीक्षा वे राज्यसभा चुनाव में और फाइनल परीक्षा विधान परिषद के चुनाव में दे सकते हैं.

जदयू और भाजपा को भी इन विधायकों को मिलाने में बहुत परेशानी नहीं है. भरोसेमंद सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस विधायक दल में एक बड़ी टूट की आशंका बनी हुई है. अशोक चौधरी पर्दे के पीछे इस सारे ऑपरेशन को ऑपरेट कर रहे हैं. बताया जा रहा है कि केवल नीतीश कुमार की हरी झंडी का इंंतजार हो रहा है. जिस दिन जरूरत होगी नीतीश कुमार हामी भरेंगे और उसी दिन यह विभाजन हो जाएगा.

लेकिन सदानंद सिंह ऐसी किसी भी आशंका से इनकार करते हैं. वे कहते हैं कि कांग्रेस एक बड़ी पार्टी है और एक दो लोगों के इधर से उधर चले जाने से कुछ नहीं होगा. सारे कार्यकर्ता और विधायक हमारे साथ हैं. कुछ ऐस लोग ही पार्टी के टूटने की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जिनका कोई जनाधार नहीं है. जहां तक विधायक दल की बात है तो सभी विधायक पूरी मजबूती से पार्टी के साथ हैं. जो लोग पार्टी के टूटने का सपना देख रहे हैं, वे आने वाले दिनों में काफी मायूस होने वाले हैं. बिहार की सियासत को समझने वाले कहते हैं कि तोड़फोड़ के लिहाज से अभी कांग्रेस सबसे कमजोर कड़ी है. इसलिए एनडीए हर हाल में चाहेगा कि एक झटका देकर लालू प्रसाद को परेशान किया जाए.

जहां तक कांग्रेस आलाकमान की बात है तो यह साफ दिख रहा है कि सूबे में कांग्रेस लालू प्रसाद के साथ ही रहेगी और एक तरह से लालू प्रसाद ही पार्टी को डिक्टेट करेंगे. राजद अपनी सुविधा के अनुसार कांग्रेस की दशा और दिशा तय करता रहेगा, खासकर 2019 के चुनावों तक. दिल्ली में बैठे कांग्रेसियों को भी अहसास है कि सूबे में जिंदा रहना है तो लालू ही ऑक्सीजन बन सकते हैं, वरना मौत तय है. फिलहाल आलाकमान ने अपनी पूरी ताकत विधायक दल में किसी भी संभावित टूट को रोकने में लगा दी है. बहुत जल्द ही यह पता लग जाएगा कि कांग्रेसमुक्त बिहार की आशंका सच साबित होगी या झूठ.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here