कंफ्यूजन के कई प्रकार के होते हैं। जब आप बहुत नशे में होते हैं तो कंफ्यूजन होता है कि आप बहरे से हो गये हैं और आप उतनी ही जोरों से चिल्ला कर बोलते हैं। या सर्दी में जब धुंध छाई होती है तो कंफ्यूजन ही कंफ्यूजन होता है। क्लाइमेट चेंज से राजनीति तक इन दिनों कंफ्यूजन है । सोशल मीडिया पूरी तरह कंफ्यूज है कि वह लोगों को शिक्षित कर रहा है। कांग्रेसियों को कंफ्यूजन है कि सत्ता की चाबी हमारे पास आने वाली है। नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री पद का कंफ्यूजन है। मोहन भागवत को कंफ्यूजन है कि अपनी कट्टर लाइन लें या मोदी की कन्फ्यूज़्ड लाइन । अमर्त्य सेन को कंफ्यूजन है कि मोदी को परास्त किया जा सकता है, यदि…. । बस कंफ्यूजन नहीं है तो दो को – एक मोदी को और दूसरे उनके मतदाता को । कंफ्यूजन पैदा करने वाला ही अगर कन्फ्यूज़्ड हो गया तो सत्ता का खेल कैसे चलेगा। हर किसी को यह भी कंफ्यूजन है कि मोदी कन्फ्यूज़्ड हैं। पर ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ को हमारे लोग भूल जाते हैं । दरअसल मोदी मास्टर हैं नयी राजनीति के । हमारे आपके हिसाब से गंदी, घिनौनी और विभाजक राजनीति के लेकिन उनके हिसाब से चाणक्य के युग की राजनीति के। तो सब अपनी अपनी जगह और अपने अपने तरीकों से कन्फ्यूज़्ड हैं।
हमें चिंता है कि अब मुसलमान का क्या होगा । मोहन भागवत आखिर अपनी पर आ ही गये हैं। आप पूछना चाहते हैं तो पूछते रहिए कि मोहन भागवत कौन है और क्या हैसियत है उनकी । इस सत्ता और सरकार में सब कुछ खुला है। हिंदू मुस्लिम विवाद एक नासूर की तरह हमारे मुल्क में बसा है। उसकी बसाहट में प्यार मौहब्बत का छद्म भी है और सपाट नफरत भी। लेकिन यह नासूर सदियों से जिस तरह समाज की नस नस में फ़ैल गया है उसका हर तरह से लाभ हर कोई ले लेता है । सबसे खतरनाक तब हो जाता है जब उसकी परछाईं सेना और पुलिस में दिखने लगती है। अभी दो तीन दिन पहले एक कार्यक्रम में साम्प्रदायिक होती पुलिस पर एक विवाद छिड़ गया जो अपूर्वानंद वर्सेज़ ऑल के रूप हो गया। अपूर्वानंद का मानना था कि (पूरी) पुलिस साम्प्रदायिक हो रही है जबकि एक रिटायर्ड पुलिस अफसर के साथ साथ बाकी सबका मानना था कि यह टिप्पणी गैर जरूरी है। हमें लगता है कि अपूर्वानंद को कहना चाहिए था कि पुलिस का अधिकांशतः निचला और कुछ ऊपरी तबका साम्प्रदायिक हुआ है । बहस की परिणति अच्छी नहीं हुई। लेकिन यह तो सत्य ही है कि हमारी पुलिस भी उसी समाज से आती है जिसमें हम सांस लेते हैं तो अधिकांश पुलिसकर्मियों में बचपन के संस्कार अलग कैसे हो जाएंगे। पुलिस की कार्यशैली और सोच निश्चित रूप से सेना की तटस्थता से भिन्न है। इसीलिए आम मुसलमान के लिए चिंतित होना अब स्वाभाविक हो गया है। कई प्रकरण हैं जहां पुलिस मूकदर्शक बनी रही है या आरोपियों की तरफदारी करती दिखाई दी है । भाजपा के टुच्चे से नेता कपिल मिश्रा का प्रकरण हर किसी को याद होगा ।
इन दिनों कांग्रेस की यात्रा का हर जगह बोलबाला है । दरअसल राहुल गांधी का जब से राजनीति में अवतरण हुआ है तब से उनका ‘चौंकाने’ का खेल चालू है । वे हर तरह से चौंकाते हैं। मनमोहन सिंह का अध्यादेश फाड़ कर या अपनी फटी जेब से हाथ निकाल कर या कुछ भी और कैसा भी बोल कर वे चौंकाते रहे हैं। इस बार भी उन्होंने जबरदस्त तरीके से चौंकाया है । जो उम्मीद किसी को नहीं थी वह उन्होंने कर दिखाया। ऐसी पदयात्रा करके जिसे भारतीय इतिहास में आज तक की अभूतपूर्व यात्रा कहिए। यानी फिर चौंकाया और बीच बीच में कुछ कुछ बोल कर चौंकाने का उनका खेल जारी है। इस यात्रा को सकारात्मक दृष्टि से देखते हुए हर आदमी के मन में यही सवाल है कि 2024 में यह यात्रा कमाल करेगी या नहीं । कांग्रेस की सरकार बनेगी या नहीं। राहुल मोदी का विकल्प बनेंगे या नहीं।
राजनीति में छाई यह धुंध या कंफ्यूजन हर तरफ है । इसी में कुछ ऐसा भी होता है जो अच्छा लगता है और मनभावक होता है। जैसे कानून विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा को सुनना । वे ‘सत्य हिंदी’ चैनल में अदालत पर जगदीप धनखड़ की टिप्पणियों पर बोल रहे थे । उनका सतत और धारावाहिक बोलना अच्छा लगा । सतत बोलते रहने की बात पर आप अभय दुबे को भी याद कर सकते हैं । पिछले हफ्ते लाउड इंडिया टीवी पर एक तयशुदा कार्यक्रम था । अभय दुबे और सुधींद्र भदौरिया के पिताओं के प्रभुत्व और उनके अपने बेटों के निर्माण में उनका हाथ और छाया का वृत्तांत जो अभय दुबे भदौरिया साहब का सुनाएंगे और सुधींद्र अभय जी के पिता का । यह प्रयोग अनोखा था लेकिन कुछ सुधींद्र के इंटरनेट की वजह से और कुछ उनकी वक्तृत्व शैली की कमजोर पकड़ की वजह से बात जम नहीं पाई । हमारे विचार में यदि अभय दुबे ही स्वयं अपने पिता और भदौरिया साहब के विषय में क्रम से बताते तो मजा कुछ और आता । अभय दुबे का सतत प्रवाह से बोलना उनकी ताकत भी है और कमजोरी भी । ज्ञान से भरपूर अगर दिमाग हो तो यह होना स्वाभाविक है । आप बोलते हैं तो बोलते चले जाते हैं । उस गंगा में नीचे सरस्वती जैसा बहुत कुछ ढंक जाता है या अनछुआ सा रह जाता है । जैसे पिछली बार वे अडानी पर बोलते गये तो एनडीटीवी और रवीश कुमार के प्रश्न नीचे दब गये । बहुत ज्ञानियों की यह स्वाभाविक बीमारी भी होती है । अक्सर त्रिलोचन शास्त्री को लौटा कर लाना पड़ता था कि आप यहां पर थे । वरना वे बोलते बोलते कहां से आए कहां पहुंच जाते थे । अभय दुबे के साथ अक्सर यह होता है । कल भी ऐसा हुआ जो प्रश्न संतोष भारतीय ने पूछा वह पहले दौर में अनुत्तरित सा रह गया । संतोष जी को चाहिए था कि पिता – पुत्र वाले कार्यक्रम में वे अभय जी से ही दोनों के बारे में बुलवाते । कार्यक्रम के पहले हिस्से में अभय जी के पिता और दूसरे में भदौरिया साहब पर । मजेदार रहता । संतोष जी कार्यक्रम के अंत को बहुत लंबा खींचते हैं । एक लाइन का अंत ही शायद पर्याप्त रहता है । ऐसा कईयों का मानना है । ‘तो दर्शकों आपने देखा ….’ दर्शकों ने तो देख भी लिया और सुन भी लिया । अभय दुबे को सुनने वाले दर्शक और श्रोता जरूरत से ज्यादा समझदार भी होते हैं । वे गोदी मीडिया वाले तो निश्चित नहीं होते । आशा है संतोष जी अन्यथा नहीं लेंगे । यह सामान्य प्रतिक्रिया है । कल का विषय संतोष जी ने बहुत वाजिब लिया था और ‘ऐजेंडा सैटिंग’ को व्याख्यायित करते हुए अभय जी ने भी बहुत अच्छा ज्ञान दिया । विपक्ष क्या करेगा इस पर हर कोई अपने ही दिमाग को मथ रहा है ।
मजे के लिए प्रोग्राम कैसे होते हैं यह आप ‘सत्य हिंदी’ पर देख सकते हैं। मोहन भागवत की खबर चली तो हम देखना चाहते थे कि यह चैनल कितने प्रोग्राम में देता है । छः में से पांच प्रोग्राम मोहन भागवत पर थे । आलोक जोशी संवेदनशील व्यक्ति हैं तो उन्होंने उस दिन जोशीमठ पर किया वरना सब लगे थे मोहन भागवत पर ।
मुकेश कुमार को अपवाद मानिए । उन्होंने अपने ‘डेली शो’ में एक नया प्रयोग शुरु किया है ‘ज़ीरो आवर’ । श्रोताओं की प्रतिक्रिया लेना अच्छी पहल है । एक मोहन भागवत वाले प्रोग्राम को छोड़कर बाकी सभी प्रोग्राम उनके अभी तक शानदार रहे हैं । कल ‘ताना बाना’ की बहस बहुत सार्थक रही ।
‘सिनेमा संवाद’ की चर्चा- ‘क्या फिल्मों में राजनीति होनी चाहिए ? ‘ मजेदार और चटपटी रही । पैनल भी अच्छा था । हालांकि हमारा मानना है कि एक महिला पैनलिस्ट को भी जरूर होना चाहिए हर बार । जीवन में राजनीति भी एक अबूझ पिटारा है यानी राजनीति कहां नहीं है । जहां नहीं है वहां भी तो राजनीति है ही । फिल्में और राजनीति – यह तो लंबा विषय है और फिल्मों में राजनीति के बदलते अर्थ और बदलते संदर्भ । एक दो अंक में और चलाएं इसे । इस बार महिलाओं के पैनल के साथ । बदलती फिल्में बदलती राजनीति ।
आरफा खानम शेरवानी ने कांग्रेस यात्रा के कंटेनरों की झांकी हमें दिखाई । समझ नहीं आया कि ये देश के नेता के कंटेनर हैं कि किसी राजकुमार के । बस एक जिम की कमी थी बाकी तो एक आभिजात्य व्यक्ति की सुविधा के सारे इंतजाम मौजूद थे । केवल राहुल गांधी का ही नहीं, संभवतः सारे कंटेनर ऐसी ही सुख सुविधा से लैस हैं ।
रवीश कुमार का ‘रवीश कुमार ऑफीशियल’ जम रहा है । जितना आत्मविश्वास आता जाएगा उतनी प्राइम टाइम की याद लोग भूलते जाएंगे । जबकि उसे याद रखना भी जरूरी है । यों रवीश से जुड़ी किसी बात को आसानी से भूल नहीं पाएंगे लोग ।

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