सजनेता-प्रशासन-भूमाफिया (बिल्डर) और मिशन-माफिया के गठजोड़ से बिहार में ईसाई अल्पसंख्यकों की परिसम्पतियां धड़ल्ले से लूटी जा रही हैं, उन्हें बेघर-बेदखल किया जा रहा है, लेकिन ‘न्याय के साथ विकास’ और ‘सबका साथ – सबका विकास’ की जुमलेबाजी कर सरकारें अपनी पीठ

थपथपाने से बाज नहीं आ रही हैं. उच्च न्यायालयों के न्यायादेश रद्दी की टोकरी में डाल दिए जाते हैं और नेता-प्रशासन के संरक्षण में बिल्डर अपने गुंडों के द्वारा ईसाइयों के विरुद्ध मिनी कंधमाल कांड को बखूबी अंजाम देने में जरा भी नहीं हिचक रहे. गत 19 दिसम्बर 2015 को राजधानी पटना के बाकरगंज स्थित क्रिश्चियन कॉलोनी परिसर में जो घटना घटी वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सुशासन के दावे पर कलंक साबित हुआ है. करीब डेढ़ दर्जन ईसाई परिवार बेघर कर दिए गए और सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी. राज्य के गृह (विशेष) विभाग के आदेशों का अनुपालन नहीं किया गया. अल्पसंख्यक हित का

दावा करने वाली नीतीश सरकार तथ्यों के आलोक में खुद कटघरे में खड़ी हो गई है.

घटना 2015 की है, लेकिन इसके तार काफी पहले से और अभी तक कड़ीबद्ध हैं. दरअसल, व्यवहार में दलों और सरकारों के लिए अल्पसंख्यक का मतलब केवल एक समुदाय ही रहता आया है जो बड़ा वोट बैंक है. ईसाई और अन्य अल्पसंख्यक तो हाशिए पर हैं. न तो इनकी कोई राजनीतिक हस्ती है और न ये आर्थिक रूप से मजबूत हैं. यह दीगर बात है कि विभिन्न ईसाई मिशनों के पास देशभर में सरकारों से भी अधिक परिसम्पतियां हैं जिनपर नेताओं और

भू-माफिया की गिद्ध नजर रहती है. इन परिसम्पतियों की रक्षा के लिए सरकारों ने न तो वक्फ बोर्ड और धार्मिक न्यास जैसी संस्थाएं बनाने की जहमत उठाई और न जमीन के धंधे की परत खुलने पर भी कोई कारगर कार्रवाई ही की जाती है. नतीजतन अदालती स्थगन आदेशों के बावजूद मिशन-भूमि का धंधा खुलेआम चल रहा है और ईसाई समुदाय परिसम्पतियों से वंचित होता जा रहा है. कितने स्कूल, छात्रावास, चर्च आदि पर अवैध तरीके से कब्जा कर लिया गया. पूरे देश में अब तक अरबों रुपए का यह धंधा हो चुका है. बिहार तो एक छोटा-सा नमूना है. पलवल, दिल्ली, आगरा, कोलकाता आदि स्थानों में खूब धंधा हुआ है.

यह गोरखधंधा समझने के लिए कालचक्र को थोड़ा उल्टा घुमाना जरूरी है. मुगलों के शासनकाल में विदेशी मिशनरी भारत आने लगे थे. ब्रिटेन में 1792 में निबंधित बैपटिस्ट मिशनरी सोसाइटी (बीएमएस) के मिशनरी इसमें प्रमुख है. 1793 में प्रथम बीएमएस मिशनरी विलियम कैरी ने तत्कालीन कलकता से अपना कार्य आरंभ किया. ईस्ट इंडिया कम्पनी भी तब अपने पांव भारत में जमा रही थी. कालांतर में 1857 में कम्पनी स्वतंत्रता संग्राम को विफल कर भारत का कर्णधार बन गई. तब कम्पनी सरकार होती थी बाद में ब्रिटिश सरकार के अधीन भारत आ गया. इसके बाद तो बीएमएस मिशनरियों की बन आई. भारतीय राजा-महाराजों, नवाबों, जमींदारों आदि ने खुशामद में बीएमएस मिशनरियों को चर्च छात्रावास, अस्पताल, वृद्धाश्रम आदि के लिए काफी भूमि दान में दी. ब्रिटिश सरकार ने भी कोताही नहीं बरती, बीएमएस को सरकारी जमीनें भी मिलीं- बहुत सी जमीन धर्मांतरित भारतीय ईसाईयों के दान से खरीदी गईं. जर्मनी, अमरीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि की मिशन संस्थाओं ने भी यहां पांव पसारने की कोशिश की लेकिन बीएमएस पर ब्रिटिश सरकार की कृपा बनी रही. इसके बाद मेथोडिस्ट और एजी मिशन ने भी अपनी पहचान बनाई. लेकिन बीएमएस मिशन की सीधी पहुंच राजसत्ता तक थी. फलतः अविभाजित भारत में इसकी तूती बोलती थी. लिहाजा उत्तर पूर्व के नगालैंड, असम, बंगाल, ओड़ीशा, बिहार वर्तमान उत्तर प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, पंजाब आदि में बीएमएस के पास अकूत परिसम्पत्ति हो गई. तब इसके प्रबंधन के लिए बीएमएस ने 1888 में बैपटिस्ट मिशनरी सोसाइटी कारपोरेशन (बीएमएससी) नाम से एक ट्रस्ट ब्रिटेन में निबंधित करा लिया. यह कहने को अलग संस्था थी लेकिन वास्तव में यह बीएमएस की छाया संस्था के रूप में काम रही थी और कर रही है.

इधर देश में स्वतंत्रता आन्दोलन तेज होने लगा, महात्मा गांधी के नेतृत्व में आंदोलन नये आयाम पर पहुंचा. अन्तरराष्ट्रीय स्थितियां भी बदलीं, दूसरे विश्वयुद्ध ने ब्रिटेन की कमर तोड़ दी. भारत पर ज्यादा समय तक काबिज नहीं रहा जा सकता इसका एहसास अंग्रेजों को होने लगा था. बीएमएस के मिशनरियों को भी भारत में अपने नाम अकूत परिसम्पतियों की चिंता होने लगी. अचल परिसम्पति वे ब्रिटेन नहीं ले जा सकते थे इसलिए परोक्ष रूप से काबिज रहने के लिए कुछ भारतीयों को साथ लेकर 1932 में बैपटिस्ट चर्च ट्रस्ट एसोसिएशन (बीसीटीए) का गठन कर इंडियन कम्पनीज ऐक्ट 1913 के तहत निबंधित कराया लेकिन इसके निबंधित आर्टिकल्स आफ एसोसियेशन में बीएमएस के सात सदस्यीय प्रतिनिधीत्व का प्रावधान रखकर लगाम अपने हाथ में रख ली. बीसीटीए तो बन गया लेकिन 1955 तक यह कागजी ही रहा, बिना किसी परिसम्पत्ति के बीएमएस और बीएमएससी ने 1956 से 1958 के बीच अपने नाम की अधिकतर परिसम्पतियां बीसीटीए के नाम ट्रांसफर कीं, लेकिन इनमें से अधिकांश का दाखिल खारिज भी बीसीटीए के नाम नहीं हुआ है. गिनती की कुछ सम्पत्तियों का हुआ भी तो बिल्डरों के हाथों. शेष अभी भी इन्हीं दोनों विदेशी संस्थाओं के नाम पर हैं.

गौरतलब यह है कि बीसीटीए वस्तुतः 1959 से ही अवैध और अनियमित संस्था है क्योंकि बीएमएस-बीएमएसीसी के निदेश पर इसने अपने आर्टिकल्स ऑफ एसोसिएशन का पूरा सेट ही दिनांक 10.11.1959 को बदल दिया जबकि कम्पनी अधिनियम 1956 के अनुसार ऐसा करने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति लेनी चाहिए थी. कम्पनी रजिस्ट्रार, कोलकाता ने 1959 के इस संशोधन को अनुमोदित नहीं किया. इसके बाद 12.06.1984, 23.03.1991, 31.10.1998 तथा 28.09.2002 को भी संशोधन पारित किया जिनमें से कोई भी संशोधन अनुमोदित नहीं है, बल्कि रद्द घोषित किए जा चुके हैं. लेकिन बीसीटीए उक्त रद्द संशोधनों पर ही गठित होता है, निर्णय लिए जाते हैं और जमीन के धंधे का प्रस्ताव पारित कर भू-माफिया से एग्रीमेंट किए जाते हैं. भू-माफिया नेता और प्रशासन को पटा कर भूमि पर कब्जा जमाते हैं. बाकरगंज में यही खेल खेला गया. रिट संख्या 3048/06 में दिनांक 22.02.11 को पारित आदेश के आलोक में कम्पनी कार्य विभाग, भारत सरकार ने बीसीटीए के क्रियाकलापों की जांच कराई. जांच रिपोर्ट में सारी अनियमितताएं स्पष्ट हैं. कम्पनी रजिस्ट्रार दिल्ली ने जांच रिपोर्ट (ठजउ/24261 दिनांक 15.01.2013) द्वारा मुख्य सचिव बिहार, पटना को कारवाई के लिए भेजा. जांच रिपोर्ट फाइलों में पड़ी रही, कारवाई नहीं हुई. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विरुद्ध गैर-बैपटिस्ट बीसीटीए प्रबंधन पर काबिज रहते आए और विदेशी बीएमएस के निदेश पर जमीन का धंधा होता आ रहा है. कम्पनी अधिनियम के विरुद्ध हुए संशोधनों पर कम्पनी कार्य विभाग लाइसेंस रद्द करने का कागजी तीर छोड़ता रहा लेकिन इस अवैध संस्था (कम्पनी) का लाइसेंस रद्द नहीं किया गया. पटना हाईकोर्ट ने रिट याचिका (3048/06) में दिए आदेश में बीसीटीए में हुए संशोधनों और गैर-बैपटिस्टों द्वारा भूमि का धंधा करने की जांच करने का आदेश प्रादेशिक कम्पनी निदेशक उ.क्षे. भारत सरकार नोएडा को देते हुए आरोप सही पाए जाने पर तीन माह में परिसम्पतियों की वापसी और कम्पनी के विरुद्ध कारवाई का आदेश दे रखा है. इसी आलोक में कम्पनी रजिस्टार उ.क्षे. दिल्ली ने जांच रिपोर्ट संलग्न करते हुए कारवाई के लिए मुख्य सचिव, बिहार को पत्र लिखा जिस पर आज तक कोई कारवाई नहीं हुई, उल्टे क्रिश्चियन कॉलोनी से ईसाई परिवार बेघर-बेदखल करा दिए गए. पूरा प्रशासन भू-माफिया के तलवे चाटने में लगा रहा. बिल्डर ने भी तथ्य छिपाकर निचली अदालत से दखलदहानी का आदेश प्राप्त कर लिया. रजिस्ट्रार कम्पनी की जांच रिपोर्ट पर अमल करने के बदले प्रशासन ने बिल्डर को भारी पुलिसबल भी मुहैया कर दिया. पटना हाईकोर्ट के उक्त आदेश और सूट नं. 416/96 में दिल्ली हाईकोर्ट के स्थगन आदेश को तरजीह नहीं देकर सिविल कोर्ट पटना के दखलदहानी आदेश के सामने प्रशासन नतमस्तक रहा. सिविल कोर्ट के स्टेटस को आदेश को भी नहीं माना गया. दखलदहानी कराने आए डीएसपी कैलाश प्रसाद तो दूसरे पक्ष से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने सपाट उत्तर दिया कि दिल्ली हाईकोर्ट का आदेश बिहार में मान्य नहीं है. ऐसा लिखित मांगने पर बिदक कर वे ईसाईयों को धमकाने लगे.

गंभीर बात यह है कि पटना के लोदीपुर स्थित सौ वर्ष पुराने एंगस शिक्षण संस्थान को भी मिशन माफिया ने फेरा-फेमा अधिनियम का उल्लंघन कर 2008 में उत्कर्ष स्फटिक लिमिटेड (जयपुर में निबंधित) को महज पांच करोड़ में बेच डाला. बिकी हुई करीब साढ़े सात एकड़ जमीन की कीमत अभी के बाजार भाव से करीब तीन सौ करोड़ है. इस डीलिंग में परदे के पीछे तत्कालीन नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री रहे सुशील कुमार मोदी की भूमिका और जदयू के उस समय प्रदेश के सर्वोच्च पदाधिकारी की संलग्नता काफी चर्चा में रही. इनकी भूमिका को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि ईसाईयों की गुहार प्रशासन के किसी स्तर पर नहीं सुनी गई. इस कुकृत्य का विरोध करने वाले लोगों का नेतृत्व करने वाले व्यक्ति पर दिनदहाड़े गोलियां चलवाई गईं. वे बुरी तरह जख्मी हुए और बड़ी मुश्किल से उनकी जान बची. राजनेताओं के दबाव पर इस गोलीकांड की भी पुलिस ने लीपापोती कर दी. विधान परिषद में मामला उठने पर सरकार ने गलती स्वीकारी, कारवाई का आश्वासन दिया जो आज तक अमलीजामा नहीं पहन सका. दोनों नेता नीतीश सरकार में उप मुख्यमंत्री और मंत्री पद पर आसीन हैं, अब तो न्याय की और कोई उम्मीद नहीं है. जो नेता एक परिवार विशेष की सम्पतियों को लेकर रोज शिगूफा छोड़ता हो, जांच होने पर उसके खुद की संलिप्तता आधिकारिक तौर पर उजागर होने की पूरी संभावना है. सता का प्रभाव इतना है कि दिल्ली हाईकोर्ट के सूट नं. 416/96 में स्थगन आदेश के बावजूद एंगस परिसर की जमीन उत्कर्ष स्फटिक के नाम बिकी, सत्रह मंजिला भवन निर्माण का नक्शा पारित हुआ, पटना हाईकोर्ट के आदेश से नक्शा रद्द भी हुआ. फिर आरएफए नं-132/15 में दिल्ली हाईकोर्ट ने स्थगन आदेश जारी रखने आदेश दिया लेकिन इसे ताक पर रख कर निर्माण कार्य जारी रखा गया.

बिहार में ईसाईयों के साथ हो रहे अन्याय की सुनवाई होती नहीं दिखती. भ्रष्टाचार और अन्याय के खिलाफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का जीरो टॉलरेंस का दावा ईसाईयों के मामले में जीरो ही साबित हो रहा है. आरा में सरकार प्रदत्त मेथोडिस्ट मिशन की जमीन (कभी प्रसिद्ध सावटेल मेमोरियल गर्ल्स स्कूल) की बंदरबांट का बड़ा

खुलासा हुआ है. बक्सर में भी मेथोडिस्ट मिशन की जमीन का धंधा हुआ. जो स्थिति है उसमें तो यही लगता है कि सुशासन के दावों को प्रशासन ही ठेंगा दिखा रहा है. तभी अदालती आदेश गृह विभाग के आदेश का अनुपालन नहीं कराया गया और ईसाई परिवार बेदखल हो गए. नेताओं का सरंक्षण और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार रास्ते की रुकावट है. केंद्र सरकार भी कान में तेल डाले पड़ी है जबकि उसे बीसीटीए का लाइसेंस रद्द घोषित करते हुए परिसम्पति वापसी की कारवाई करनी चाहिए. लेकिन ईसाईयों की सुनता ही कौन है, वह वोट बैंक थोड़े ही है!

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