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28 जून को बिलासपुर हाईकोर्ट में अहम सुनवाई होनी है, जो 11 संसदीय सचिवों के भविष्य से जुड़ी है. इनकी नियुक्ति को आरटीआई एक्टिविस्ट राकेश चौबे ने हाईकोर्ट में चुनौती दी है. इसी दिन सरकार को आखिरी बार मिली नोटिस पर अपना जवाब देना है. सरकार को बताना है कि संसदीय सचिवों की नियुक्ति किस नियम के तहत की गई थी.

राकेश चौबे ने हाईकोर्ट में अपनी याचिका में कहा है कि संसदीय सचिवों की नियुक्तियों का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है. इनकी नियुक्ति नियम विरुद्ध की गई है. उन्होंने मांग की है कि राज्य के सभी संसदीय सचिव ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे में आते हैं, लिहाजा उन्हें अयोग्य घोषित कर हटाया जाए. गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में कहा है अगर किसी सांसद या विधायक ने ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का पद लिया है तो उसे अपनी सदस्यता गंवानी होगी, चाहे वेतन-भत्ता लिया हो या नहीं. छत्तीसगढ़ में हालात यह है कि सभी संसदीय सचिव कई तरह की सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में कुल 90 विधायक हैं. इसके 15 प्रतिशत अनुपात में ही मंत्री बनाए जा सकते हैं. आंकड़ों की बात करें तो इस तरह केवल 13 मंत्री बनाए जा सकते हैं. लेकिन मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने 11 संसदीय सचिव बना दिए हैं, जिन्हें भत्ता और दूसरी सुविधाएं भी मिलती हैं. याचिकाकर्ता का कहना है कि सरकार मध्य प्रदेश में 1967 के 1 नियम के आधार पर उनकी नियुक्ति को वैध ठहराती है, जबकि वह नियम राज्य मंत्रियों के लिए था. वहीं मध्यप्रदेश के नियम छत्तीसगढ़ सरकार पर लागू नहीं होते, क्योंकि इसके लिए सरकार ने कोई विधेयक पास नहीं कराया है.

इसी बात को आधार बनाकर राकेश चौबे ने सरकार और संसदीय सचिवों के खिलाफ जनहित याचिका लगाई है. इस मामले में जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजय अग्रवाल की खंडपीठ ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर यह पूछा था कि किस नियम के तहत उन्होंने संसदीय सचिवों की नियुक्ति की है. खंडपीठ ने इस पर 19 फरवरी तक जवाब मांगा था. लेकिन सरकार जवाब देने में आनाकानी करती रही और बार-बार समय लेती रही. अब उसे आखिरी बार जवाब देने का मौका मिला है. 28 जून को सरकार जवाब के साथ कोर्ट में पेश होगी. इस फैसले के बाद एक सवाल और उठेगा कि क्या ऑफिस ऑफ प्रॉफिट की परिभाषा को हर राज्य अपने तरीके से परिभाषित कर सकते हैं.

राकेश चौबे ने हाईकोर्ट में कहा कि संसदीय सचिवों की नियुक्तियों का संविधान में कोई प्रावधान नहीं है. ये सभी लाभ के पद हैं और राजनीतिक कारण से बनाए गए हैं. इसमें जनहित जैसी कोई बात नहीं है. याचिकाकर्ता ने हिमाचल प्रदेश, पश्चिम बंगाल और दिल्ली का उदाहरण दिया है. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल का कहना है कि रेवड़ी की तरह संसदीय सचिवों के पद बांटे गए हैं.

यहां ये सुविधाएं मिलती हैं संसदीय सचिवों को

रमन सरकार की ओर से 11 संसदीय सचिवों को राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया है. मंत्रालय में अलग से कमरा, वेतन के 73,000 रुपए के अलावा 11,000 रुपए, घर दफ्तर में टेलीफोन की सुविधा, राजधानी में मंत्री जैसी सुविधा वाला बंगला, मंत्रियों की तर्ज पर सफारी गाड़ी, डीजल, सुरक्षा के लिए गार्ड आदि सुविधाएं मिलती हैं.

क्या कहता है कानून?

संविधान के अनुच्छेद 103 (11) के तहत सांसद अथवा विधायक ऐसे किसी और पद पर नहीं रह सकते, जहां वेतन  या अन्य फायदे हो रहे हों. अनुच्छेद 191(11) जनप्रतिनिधि कानून की धारा 9 ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के तहत यह जनप्रतिनिधियों को किसी किस्म का लाभ लेने से रोकती है.

कौन-कौन है ऑफिस ऑफ प्रॉफिट के दायरे में

राज्य सरकार ने विधायक राजू सिंह क्षत्रिय, तोखन साहू, अंबेश जांगड़े, लखन लाल देवांगन, मोतीलाल चंद्रवंशी, लाभचंद बाफना, रूपकुमारी चौधरी, शिवशंकर पैकरा, सुनीति राठिया, चंपा देवी पावले और गोवर्धन सिंह मांझी को संसदीय सचिव बनाया है.

महत्वपूर्ण तथ्य 

जया बच्चन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में कहा था कि अगर कोई व्यक्ति ऑफिस ऑफ प्रॉफिट का लाभ लेता है, तो वह वेतन ले रहा हो या नहीं उसे पद छोड़ना होगा.

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