गठबंधन के पहले दिन से ही भाजपा ने अपने साथी को बदनाम करना शुरू कर दिया था. जब मुफ्ती ने अलगाववादियों के बारे में बात की और विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण कराने में पाकिस्तान की सराहना की, तब भाजपा ने उन पर हमला किया. उन्हें उस मसरत आलम को दुबारा जेल भेजने पर मजबूर किया गया, जो 2010 के आंदोलन का चेहरा था. उसकी रिहाई पर संसद में काफी शोर-शराबा भी हुआ था. 7 नवंबर, 2015 को जब उन्होंने पाकिस्तान के साथ बातचीत की वकालत की, तो प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें नीचा दिखाते हुए कहा कि पाकिस्तान से कैसे निपटना है, इसे लेकर मुझे किसी की सलाह की जरूरत नहीं है.

muftiहालांकि अभी सब कुछ सा़फ नहीं है, लेकिन जम्मू और कश्मीर की गठबंधन सरकार का भविष्य तय लगता है. वहां पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) का गठबंधन भले ही अभी खत्म न हुआ हो, लेकिन मार्च 2015 (जब से यह गठबंधन बना है) से आज तक इन दोनों के बीच तालमेल का आभाव रहा है. पीडीपी के संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने खुद इस गठबंधन को उत्तर ध्रुव और दक्षिण ध्रुव का गठबंधन कहा था, जिसके कारण उनके विरोधियों को इसे अपवित्र गठबंधन कहने का मौक़ा मिल गया. मुफ्ती का एकमात्र तर्क यह था कि वे उस जम्मू को अलग-थलग नहीं करना चाहते थे, जिसने भाजपा को 36 सीटों में से 25 सीटें दी थी. पीडीपी को कश्मीर घाटी से 25 सीटें और जम्मू के मुस्लिम-बहुल पीर पंजाल क्षेत्र से तीन सीटें मिली थीं.

लिहाज़ा, मुफ्ती का मानना था कि राज्य को एकजुट रखने के लिए, सरकार बनाने का यही एकमात्र तरीका था. अब दो साल बाद, ऐसा लगता है कि राज्य तो एकजुट है, लेकिन राजनीतिक रूप से कमजोर और शक्तिहीन हो गया है.

24 अप्रैल को जब मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की तभी से इस सरकार के भविष्य पर अटकलें लगनी शुरू हो गईं थीं. इस मुलाक़ात का मकसद कश्मीर के हालात पर केंद्र सरकार का ध्यान आकर्षित कराना और बीतचीत के दरवाज़े खोलने के महत्त्व पर जोर देना था. लेकिन मुलाक़ात के बाद उन्होंने मीडिया से जो कुछ भी कहा, उससे इसका कोई संकेत नहीं मिला कि उन्हें केन्द्र सरकार से ऐसा कोई आश्वासन मिला हो. उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि स्थिति को ठीक करने के लिए अगले दो से तीन महीने का समय काफी महत्वपूर्ण है.

उनकी या उनकी पार्टी की तरफ से किसी भी स्पष्टीकरण के अभाव में, यह समझना मुश्किल है कि उन्होंने क्या कहा, लेकिन बातचीत की भाषा बता रही है कि आने वाले समय में ये गठबंधन राजनीतिक परिदृश्य में एक संभावित बदलाव की दिशा में आगे बढ़ रहा हैं. भाजपा ने अपने गठबंधन साथी के साथ मतभेदों को ज्यादा महत्व नहीं दिया और ये धारण बनी कि भले ही गठबंधन की यात्रा थोड़े उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजर रही हो, लेकिन फिर भी यात्रा ठीक से चल रही है.

बहरहाल, जब महबूबा श्रीनगर लौटीं, तो उन्होंने अपनी पार्टी की दो महत्वपूर्ण बैठकें बुलाईं. पहली कोर समूह (जिसमें वरिष्ठ नेता और मंत्री शामिल थे) और दूसरी विधायकों की. अगर इन बैठकों में शामिल होने वाले लोगों के आकलन को सही माना जाए, तो पीडीपी इस गठबंधन को ले कर असहज है. इस असहजता का आधार भाजपा का व्यवहार है. महबूबा कश्मीर मसले के लिए बातचीत का रास्ता चाहती हैं. इन लोगों के मुताबिक महबूबा ने ये कहा कि अगर ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाता है, तो वे मुख्यमंत्री का पद त्याग देंगी. बैठक में पार्टी असहाय और निराश दिखी. हालांकि, श्रीनगर संसदीय सीट के लिए हाल ही में हुए उप चुनाव में सबसे कम मतदान, मुख्यधारा के दलों की दयनीय स्थिति को दर्शाता है. ये यह भी दर्शाता है कि उस वक्त प्रशासनिक रूप से स्थिति कितनी खराब थी.

राजनीतिक परिदृश्य पर पीडीपी का उदय अभूतपूर्व था. लोगों के साथ जुड़ना और यहां तक कि अलगाववादियों के स्पेस में दाखिल होना, ऐसी वजहें रहीं जिसने नेशनल कांफ्रेंस जैसी पुरानी पार्टी के मुकाबले पीडीपी को एक प्रमुख राजनैतिक ताकत बना दिया. राज्य की हिंसा से पीड़ित लोगों के साथ सहानुभूति दिखाने का काम मुख्यधारा के दलों ने पहले नहीं किया था. यह महबूबा ही थीं, जो राज्य के दमन से पीड़ित लोगों की आवाज़ के रूप में उभर कर सामने आईं और अलगाववादियों के जनसमर्थ में सेंध लगाने में कामयाब हुई थीं. लेकिन जैसे ही पीडीपी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया, उसका ग्राफ एकदम से नीचे चला गया. भाजपा कश्मीर के हितों के विरूद्ध रहने वाली एक पार्टी के रूप में जानी जाती थी.

भाजपा कश्मीर की किसी मुख्यधारा की पार्टी की सहायता से ही सत्ता में आ सकती थी. मुफ्ती ने प्रधानमंत्री मोदी और उनके विशाल जनादेश पर बहुत विश्वास किया और गठबंधन कर लिया. एक तरह से उन्होंने मोदी और उनके दृष्टिकोण पर जरूरत से ज्यादा भरोसा कर लिया. मोदी सरकार की कश्मीर नीति एक खास मानसिकता के जरिए बनाई गई है, जहां कश्मीर उनके लिए सिर्फ और सिर्फ सुरक्षा और कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ एक मसला है. मोदी केवल पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की इंसानियत, कश्मीरियत और जम्हूरियत की बात करते हैं, उस दिशा में आगे नहीं बढ़ते.

गठबंधन के पहले दिन से ही भाजपा ने अपने साथी को बदनाम करना शुरू कर दिया था. जब मुफ्ती ने अलगाववादियों के बारे में बात की और विधानसभा चुनाव शांतिपूर्ण कराने में पाकिस्तान की सराहना की, तब भाजपा ने उन पर हमला किया. उन्हें उस मसरत आलम को दुबारा जेल भेजने पर मजबूर किया गया, जो 2010 के आंदोलन का चेहरा था. उसकी रिहाई पर संसद में काफी शोर-शराबा भी हुआ था.

7 नवंबर, 2015 को जब उन्होंने पाकिस्तान के साथ बातचीत की वकालत की, तो प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें नीचा दिखाते हुए कहा कि पाकिस्तान से कैसे निपटना है, इसे लेकर मुझे किसी की सलाह की जरूरत नहीं है. मोदी जब कश्मीर दौरे पर गए, तो मुफ्ती ने वहां उनके लिए भारी भीड़ का इंतजाम किया था. कोई कल्पना नहीं कर सकता था कि कश्मीरी लोग क्रिकेट स्टेडियम में मोदी के लिए लाइन लगा कर खड़े होंगे. मुफ्ती बातचीत और सुलह चाहते थे, लेकिन मोदी उस चीज को पहचान नहीं सके.

हालांकि, दोनों पार्टियां एजेंडा ऑफ एलायंस के आधार पर सत्ता में आईं. लेकिन पिछले दो सालों में केवल भाजपा और इसके घोषणापत्र से संबंधित मुद्दे ही क्रियान्वित हुए. जैसे, पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की पहचान, कश्मीर के दूसरी तरफ से आए शरणार्थियों के पुनर्वास और कश्मीरी पंडितों के लिए राहत उपाय इत्यादि. भाजपा ने पीडीपी के साथ जिन महत्वपूर्ण राजनैतिक मुद्दों पर सहमति जताई थी, उनको नहीं छुआ गया या उन्हें नकार दिया गया.

उदाहरण के लिए, पाकिस्तान और हुर्रियत पर एजेंडा ऑफ एलायंस में लिखा है कि केंद्र सरकार ने हाल ही में पाकिस्तान के साथ सम्बंधों को सामान्य करने के लिए कई कदम उठाए हैं. गठबंधन सरकार सुलह का वातावरण बनाने और उप-महाद्वीप के भीतर शांति और विकास के लिए अपनाए गए दृष्टिकोण और पहलों को समर्थन देगी और उसे मजबूत करने की कोशिश करेगी.

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने ‘इंसानियात, कश्मीरियत और जम्हूरियत’ की भावना के तहत हुर्रियत समेत सभी राजनीतिक समूहों के साथ संवाद प्रक्रिया शुरू की थी. एजेंडा ऑफ एलायंस में भी इन्हीं सिद्धांतों के मुताबिक, सभी आंतरिक हितधारकों (सभी राजनीतिक दल, विभिन्न विचारधारा वाले समूहों) के साथ निरंतर और सार्थक बातचीत शुरू करने की बात कही गई है. कहा गया है कि बातचीत के जरिए जम्मू-कश्मीर के सभी मुद्दों के समाधान के लिए आम सहमति बनाने की कोशिश की जाएगी. इसलिए महबूबा आज जो पूछ रही हैं, वह एजेंडा ऑफ एलायंस के ढांचे के भीतर है.

इस निरंतर अस्वीकृति को देखते हुए जाहिर है, महबूबा पर दबाव बढ़ता जा रहा है. जो सरकार चुनाव नहीं करवा सकती है, उसके पास कानून और व्यवस्था की बहाली के लिए कोई जादुई तरीका तो नहीं ही होगा. एक तरफ महबूबा भाजपा की वजह से परेशान हैं, तो वहीं खुद उनकी पार्टी में भी सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. गुटबाजी हावी है.

अगर दिल्ली की रिपोर्टों पर भरोसा किया जाए, तो आज (जैसा कि 2016 की शुरुआत में) अगर महबूबा गठबंधन तोड़ती हैं या इस्तीफा देती हैं, तो उनकी पार्टी के कुछ सदस्य भाजपा को सरकार चलाने में अपना समर्थन देने के लिए तैयार हैं. लेकिन पार्टी के भीतर मजबूत संदेश ये है कि महबूबा दिल्ली को बताएं कि वे अपने राजनीतिक एजेंडे से समझौता नहीं करेंगी, क्योंकि पार्टी पहले से ही एक स्तर पर बदनाम हो चुकी है. यदि महबूबा कोई कदम उठाती हैं, तो जाहिर है ये भाजपा के लिए नुकसान होगा और भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शर्मिंदगी झेलनी पड़ेगी. तब राजनैतिक मुद्दे को अस्वीकार करना दोनों के लिए महंगा साबित हो सकता है.

—लेखक राइजिंग कश्मीर के संपादक हैं.

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