kamal-sir-610आखिरकार एनडीए और भाजपा ने वैसी राजनीति करने का फैसला कर ही लिया जिसे हम भारत में देखते आए हैं. फिलहाल उन्होंने अपनी सरकार बनाने के लिए  प्रतिद्वंद्वी खेमे के विधायकों को तोड़ने का खेल शुरू कर दिया है. यह खेल अरुणाचल प्रदेश में सफलतापूर्वक खेला गया. अब उनकी उत्तराखंड पर नज़र है. दरअसल, इसमें दो समस्याएं हैं. पहली, अगर भाजपा ने यह समझ लिया है कि भारतीय लोकतंत्र के काम करने का यही तरीका है तो उसने दिल्ली में ऐसा क्यों नहीं किया? जबकि उसके पास 31 विधायक थे और उसे सरकार बनाने के लिए केवल पांच विधायकों की आवश्यकता थी. अगर उसने वहां ऐसा करके सरकार बना ली होती तो केजरीवाल का कहीं नाम नहीं होता. ऐसा करने के बजाए उसने यह दिखाने की कोशिश की कि हम सबसे अलग (अच्छी) पार्टी हैं. हम किसी दूसरी पार्टी में तोड़-फोड़ नहीं करेंगे. हम चुनाव लड़ेंगे. दरअसल उस वक्त उन्होंने उच्च नैतिक आचरण धारण कर रखा था. इसका नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल ने उनका सफाया कर दिया.

उन्हें यह समझना चाहिए कि विपक्ष से लोगों को तोड़कर सरकार बनाना जनता को पसंद नहीं है. बहरहाल, पूर्वोत्तर के राज्य कमजोर हैं और उन्हें केंद्र सरकार पर आश्रित रहना पड़ता है भले ही कोई भी पार्टी केंद्र की सत्ता में हो. लिहाज़ा जब एनडीए/भाजपा सत्ता में हैं तो पूर्वोत्तर के तमाम राज्य आपकी झोली में आ जाएंगे. आप आसानी से वहां सरकार गिरा सकते हैं और अपनी सरकार बना सकते हैं. ऐसा करने से आप की पार्टी मज़बूत नहीं होगी. अगर आप समझते हैं कि अधिक संख्या में राज्यों में सरकार आपको मज़बूत बनाएगी तो यह आपकी भूल है, क्योंकि बड़े राज्यों में आम लोगों के बीच लोकप्रियता महत्वपूर्ण होती है.

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उत्तराखंड में जो कुछ हुआ वह बहुत बुरा है क्योंकि यदि किसी को सोमवार को सदन के पटल पर बहुमत साबित करना है और आप रविवार को वहां राष्ट्रपति शासन लगा देते हैं तो इसे नैतिक, क़ानूनी और संवैधानिक तौर पर एक बेढंगा फैसला माना जाएगा. संसद का सत्र चल रहा था. यह सत्र के बीच की अवधि थी. राष्ट्रपति शासन लगाकर उनका बजट पास करने के लिए संसद स्थगित (प्रोरोग) कर दी गई ताकि अध्यादेश जारी किया जा सके. यह बेढंगेपन की इंतहा है. भारत में शासन करने का यह तरीका नहीं हो सकता. मुझे प्रधानमंत्री के सलाहकारों पर दया आ रही है कि वे उन्हें अच्छी सलाह भी नहीं दे सकते.

हर पार्टी दूसरी पार्टी में तोड़-फोड़ करती है, इसलिए आप भी कर सकते हैं. लेकिन यदि यह काम आप अभी कर रहे हैं तो आपने दिल्ली में सरकार क्यों नहीं बनाई? दिल्ली चुनाव में आपने किरण बेदी, जो कि एक आउटसाइडर थीं उन्हें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया. इसलिए मैं नहीं समझता कि भाजपा में सबकुछ सुव्यवस्थित है. ऐसा लगता है कि वहां चीज़ों पर गहन सोच-विचार नहीं हो रहा है. मुझे याद है कि आडवाणी, वाजपेयी, जसवंत सिंह, मुरली मनोहर जोशी जैसे लोगों के पास चीजों से निपटने का अपना तरीका था. अब तो लगता है कि पार्टी वन-मैन शो बनकर रह गई है. आप चाहें तो इसमें अमित शाह को भी शामिल कर सकते हैं. भाजपा किस राह पर जाएगी इसके लिए वह भी किसी तरह की रणनीति बनाने में असमर्थ हैं. अमित शाह भाषण दे रहे हैं कि लोगों को अगले पच्चीस वर्षों तक भाजपा को चुनने के लिए अपना मन बना लेना चाहिए. वह कह क्या रहे हैं? भारत एक ऐसा देश नहीं है जो कल ही पैदा हुआ हो. इसका इतिहास और संस्कृति काफी पुरानी है.  इसे समझे बगैर भारत पर शासन करना असंभव है.

आप चुनाव जीतकर सरकार बना सकते हैं, जैसा कि आपने किया. इसके बाद बाद दो वर्ष गुज़र चुके  हैं जो बेहद उत्साहजनक नहीं रहे हैं, इसलिए पहली बात जिसपर उन्हें पुनर्विचार करना चाहिए वह यह है कि उनकी आगे की रणनीति क्या हो. जब उनकी आलोचना होती है, तब वह कहते हैं कि कांग्रेस ने भी ऐसा किया है. ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि क्या वे कांग्रेस की खराब नकल मात्र हैं. इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि आप कांग्रेस का सम्मान कर रहे हैं.

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दूसरा मुद्दा. कश्मीर में क्या हो रहा है? एक तरफ आप कहते हैं कि जो भारत माता की जय नहीं बोलेगा वह देशद्रोही है. यह निरर्थक बात है. नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जय हिन्द बोला करते थे. नेताजी बोस इन लोगों के पसंदीदा नेता हैं. इंडियन नेशनल आर्मी को उन्होंने आज़ाद हिन्द फ़ौज का नाम दिया था. उन्होंने उर्दू का इस्तेमाल किया था. उन्होंने अपनी सेना को हिंदी में स्वतंत्र भारत सेना नहीं कहा था. जय हिन्द का नारा उन्होंने दिया था जिसे कांग्रेस ने अपनाया है. अगर भाजपा भारत माता की जय कहती है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन चूंकि आज आप सत्ता में हैं तो आप यह नहीं कह सकते हैं कि हर किसी को भारत माता की जय कहना ही पड़ेगा, क्योंकि यदि कल कांग्रेस सत्ता में आती है और वह भी यह कहने लगे कि सबको जय हिन्द कहना पड़ेगा. यह कैसा बचकाना तर्क है. यह मूर्खतापूर्ण काम है.

एक दूसरी चरमपंथी पार्टी पीडीपी के साथ मिलकर कश्मीर में सरकार बनाना इस मुर्खता में इज़ाफे की तरह है. दरअसल यह राजनीतिक स्वार्थ है, क्योंकि पीडीपी ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में कहा था कि अफज़ल गुरु की फांसी गलत थी. आप ऐसी पार्टी के साथ मिलकर सरकार क्यों बना सकते हैं? क्योंकि आप वहां पैसे की लूट में हिस्सा लेना चाहते हैं. आप अपनी कलई इस तरह खोल रहे हैं जैसे कांग्रेस ने भी नहीं खोली थी. आपको अच्छी तरह मालुम है कि चंद मंत्री पद लेकर या महबूबा मुफ्ती को मुख्यमंत्री बनाकर आप कश्मीर या कश्मीरी जनता के लिए कुछ भी अच्छा नहीं कर सकते. यह सत्ता का खेल है. चुनावी नतीजों ने त्रिशंकुजनादेश दिया और आपने पीडीपी के साथ सरकार बनाई, लेकिन नतीजे आपके  सामने हैं. कश्मीर में छात्रों की समस्या सुलझाने के लिए आप क्यों नहीं गए? आपने पुलिस को क्यों भेजा? यदि पुलिस और सेना भारत में गवर्नेंस के लिए ज़िम्मेदार हैं तो चुनाव और राजनीति की जरूरत क्या है? लोकतंत्र खत्म हो गया! देश के हर कोने में पुलिस अपना काम कर रही है. वह अच्छी, बुरी, उदासीन, भ्रष्ट जैसी भी हो. पुलिस या सेना समस्या का हल नहीं हो सकती. समस्या का हल राजनेता होगा जिसे जनता का जनादेश मिला है.

कश्मीर में वे ख़तरनाक खेल खेल रहे हैं. जिसकी वजह से कश्मीरियों में अलगाव की भावना और प्रबल हो जाएगी. दरअसल कश्मीर समस्या का आदर्श समाधान यह होगा कि कश्मीर विधानसभा चुनाव में सिर्फ कश्मीरी पार्टियों या निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने दिया जाए. न कांग्रेस चुनाव लड़े और न भाजपा. यदि कश्मीर के बाहर की पार्टियां यहां चुनाव नहीं लड़ेंगी तो क्या नुक़सान हो जाएगा? कुछ भी नहीं. उनमें से जो भी जीतेगा वह मुख्यमंत्री होगा. यह भारतीय संविधान के मुताबिक होगा और इस वजह से कश्मीरियों में आत्मविश्वास पैदा होगा कि वे अपना शासक चुन सकते हैं. यहां वे अपना शासक चुनते हैं लेकिन सरकार दिल्ली से बनती है. जैसा कि श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1983-84 में किया था. जिसका खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं. पिछले 30-32 सालों से कश्मीर को पाकिस्तान की वजह से तकलीफें नहीं उठानी पड़ रही हैं, बल्कि फारुक़अब्दुल्लाह की सरकार को हमने चलने नहीं दिया. आधी रात को उनकी सरकार गिरा दी गई और जीएम शाह के रूप में एक कठपुतली सरकार बिठा दी गई. इससे कश्मीर की जनता को यह संदेश मिला कि दिल्ली उन्हें उनका नेता नहीं चुनने देगी. इसे बंद होना चाहिए. मुझे नहीं मालूम कि सरकार के सलाहकार कौन हैं? लेकिन मुझे मालूम है कि मैं कुछ ऐसा नहीं कह रहा हूं जो बहुत अनोखा हो. ये बातें हर किसी को मालूम हैं. लेकिन जो लोग भाजपा को चला रहे हैं या जिनके पास सत्ता है उन्हें संयम से काम लेना चाहिए.

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जब ऐसी मामूली चीजें सही तरीके से संचालित नहीं हो सकतीं तो आप सरकार से चीन, पाकिस्तान या डिप्लोमेसी या अंतरराष्ट्रीय संबंधों में किसी तरह के चमत्कार की उम्मीद कैसे कर सकते हैं. यहां मैं यह जरूर कहूंगा कि वे अपनी क्षमता के मुताबिक ठीक-ठाक काम कर रहे हैं. प्रधानमंत्री सऊदी अरब और ईरान से रिश्ते सुधारने की पहल कर रहे हैं, जो ठीक है. लेकिन पाकिस्तान एक समस्या है और यह समस्या रहेगी. हाल ही में उसने अपनी संयुक्त जांच टीम यहां भेजी. इसके बाद वे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं कि यहां उन्हें कोई साक्ष्य नहीं मिला. वे यह शिकायत कर रहे हैं कि उन्हें जांच के लिए केवल 55 मिनट का समय मिला. इससे कुछ भी हल नहीं होगा. यशवंत सिन्हा और दूसरे लोगों की तरफ से जो सुझाव आए हैं कि हमें पाकिस्तान से बातचीत बंद कर देनी चाहिए, मुझे ठीक लगता है. चीजों को ठंडा हो जाने दिया जाए, थोड़ा इंतज़ार किया जाए, क्योंकि इस मामले में बहुत अधिक विकल्प नहीं हैं. अगर दो पड़ोसी देश समृद्ध होना चाहते हैं, तो उन्हें अपने रिश्ते अच्छे करने होंगे. लेकिन जिस तरह वे आगे बढ़ रहे हैं वह ठीक नहीं है.

हमें उम्मीद करनी चाहिए कि यह सरकार कुछ ठोस रणनीति लेकर सामने आएगी. लेकिन देखना यह है कि वह एक नई तरह की शासन व्यवस्था देगी या फिर वह कांग्रेस की नकल करना चाहती है. इसमें भी कोई समस्या नहीं है क्योंकि हर पांच वर्ष में चुनाव होंगे. कोई जीतेगा और कोई हारेगा. इसमें देश का कोई खास नुक़सान नहीं होगा. यदि आरएसएस यह सोच रहा है कि हाफ पैंट पहनकर या भारत माता की जय बोलकर वह देश में एक नया ट्रेंड सेट कर रहा है तो उनसे बहुत की उम्मीद नहीं की जा सकती, क्योंकि इससे समस्या का समाधान नहीं होगा. लेकिन जेएनयू के छात्र, छात्र तो छात्र होते हैं. उनमें से कोई आईएएस बनता है कोई शोधकर्ता बनता है, कोई प्रोफेसर बनता है, लेकिन आप वहां पुलिस भेजकर एक छात्र नेता को बड़ा नेता बनाने की कोशिश करते हैं. किस लिए? इससे कौन सा मक़सद हल हो जाएगा? मुझे लगता इन सभी चीज़ों पर पुनर्विचार की ज़रुरत है. इसपर जितनी जल्दी विचार होगा उतना ही बेहतर होगा.

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