Graphic12वर्ष 2012 में बिहार के मुख्य सचिव रैंक से सेवानिवृत 1978 बैच के आईएएस अधिकारी डॉ एमए इब्राहिमी ने अपने प्रशासनिक अनुभवों के आधार पर माई एक्सपीरियंस इन गवर्नेंस (शासनतंत्र में मेरे अनुभव) के नाम से अंग्रेजी में किताब लिखी है. इस किताब में उन्होंने बिहार की राजनीति और प्रशासन में व्याप्त जातिवाद, भष्टाचार, हिंसा और सांप्रदायिकता जैसे विषयों के छुए और अनछुए पहलुओं पर बड़ी बेबाकी से टिप्पणी की है. वैसे जातिवाद, भष्टाचार, हिंसा, और सांप्रदायिकता का बिहार की राजनीति के साथ चोली-दामन का साथ है. इन विषयों पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है और आगे भी लिखा जाता रहेगा. लेकिन ऐसा बहुत कम देखने को मिला है कि बिहार के किसी नौकरशाह ने शासन व्यवस्था के अपने अनुभवों के आधार पर इन विषयों पर कलम उठाने की हिम्मत की हो. ऐसे में इस किताब की अहमियत और बढ़ जाती है. डॉ इब्रहिमी ने अपने 35 साल के करियर में कई मुख्यमंत्रियों के साथ काम किया. इसके अलावा केंद्र सरकार में डेपुटेशन के दौरान प्रमुख पदों पर रह चुके इब्राहिमी लिखते हैं कि भारत की राजनीति और नौकरशाही आम तौर पर अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षर सी से शुरू होने वाले तीन शब्दों कास्टिज्म(जातिवाद), कम्युनलिज्म(सम्प्रदायिकता), करप्शन (भष्टाचार) के इर्द-गिर्द घूमती है.
जहां तक बिहार की राजनीति और प्रशासन में जातिवाद का सवाल है तो इससे उनका परिचय समस्तिपुर में एसडीओ के रुप में पहली नियमित नियुक्तिके दौरान ही हो गया था. एसडीओ के रूप में उन्होंने जब कुछ लोगों के खिलाफ एक मामले में कार्रवाई शुरू की तो उन्हें जिला प्रशासन के गुट की ओर से ऐसी प्रतिक्रियाएं मिल रही थीं कि वे एक जाति विशेष के लोगों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं. वह लिखते हैं कि मुझे उस वक्त यह समझ में आ गया था कि बिहार प्रशासन में काम करने के यहां की जातियों और संप्रदायों के बारे में जानकारी रखना अत्यंत आवश्यक है. एक नौकरशाह के रूप में तीन दशकों के अनुभवों के आधार पर वह इस नतीजे पर पहुंचे कि जातिवाद बिहार की राजनीति का सबसे महतवपूर्ण पहलू है, यहां जातिवाद के प्रभाव से कोई अछूता
नहीं है.
अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर डॉ. इब्राहिमी लिखते हैं कि बिहार का हर मुख्यमंत्री महत्वपूर्ण प्रशासनिक पदों पर योग्यता के बजाय अपनी जाति को लोगों को तरजीह देते थे. अधिकांश प्रमुख पदों पर मुख्यमंत्री की जाति के लोगों की नियुक्ति की जाती थी. हालांकि बिहार के ही पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे उनसे पूरी तरह सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं कि इब्राहिमी के विचार आंशिक रूप से सही हो सकते हैं लेकिन अब्दुल ग़फूर और यहां तक कि लालू प्रसाद यादव जैसे मुख्यमंत्रियों ने अपनी जाति के लोगों को प्रदेश का मुख्य सचिव नहीं बनाया. दरअसल, इब्राहिमी ने मुख्य सचिव की बात नहीं की वे महत्वपूर्ण पदों की बात कर रहे हैं और यह संदर्भ किताब के हर हिस्से में मिलता है. वे लिखते हैं कि भगवत झा आज़ाद के कार्यकाल में पूरे प्रदेश में एक भी मुस्लिम कलेक्टर या जिला मजिस्ट्रेट नहीं था. अपने एक हालिया इंटरव्यू में इब्राहिमी ने बताया कि आम तौर पर बिहार में कोई भी मुख्यमंत्री ऐसा नहीं था जिसे दूरदर्शी कहा जा सके.
प्रशासनिक सेवा में अधिकारियों की महत्वकांक्षाएं भी ऊंची होती हैं. वे अपनी महत्वतकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ब्लैकमेलिंग से भी परहेज नहीं करते हैं. समस्तीपुर जेल गोली प्रकरण का उदाहरण देते हुए उन्होंने बताया कि कैसे उन्हें फंसाने की कोशिश की गई. इस तरह के अनुभव से शायद सिविल सेवा के हर अधिकारी को इस तरह के मामलों से रू-ब-रू होना पड़ा. शायद यहभी एक वजह थी कि इस किताब के विमोचन के समय अपने संबोधन में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस शिव क्रीर्ति सिंह ने यह सिफारिश की, कि हर नौजवान नौकरशाह को यह किताब पढ़नी चाहिए ताकि वे हर तरह की प्रशासनिक चुनौतियों को समझ सकें और उनसे बेहतर तरीके से निपट सकें.
बहरहाल, प्रदेश में कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिनका प्रदेश ही नहीं बल्कि देश की राजनीति पर भी गहरा असर पड़ा. उन्हीं घटनाओं में से एक है साल 1989 का भागलपुर दंगा. बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद की चरमसीमा पर हुए इस दंगे में तरीबन 2000 लोग मारे गए थे. मरने वालों में ज्यादा संख्या मुसलमानों की थी. इन दंगों में पुलिस खास तौर पर बिहार सेना पुलिस(बीएमपी) की भूमिका विवादास्पद रही. चूंकि उस वक्त बिहार में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी इसलिए मुसलमानों (जो कांग्रेस पार्टी के वोट बैंक समझे जाते थे) ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया. इसके बाद मुसलमान पूरे राज्य में फिर कभी कांग्रेस के साथ नहीं खड़े हुए. हालांकि हाल ही में सोनिया गांधी ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष उस वक्तदंगा रोकने में कांग्रेस सरकार की नाकामी के लिए मुसलमानों से माफ़ी भी मांगी. दरअसल बोफोर्स तोप सौदे की वजह से विवादों में घिरी कांग्रेस ने उस वक़्त एक के बाद एक कई ऐसे फैसले लिए जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश और बिहार में मुसलमान पार्टी के खिलाफ हो गये. शाह बानो केस और बाबरी मस्जिद का ताला खुलवाना उनमें शामिल?थे.
भागलपुर दंगों के संबंध में वह कहते हैं कि चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता से बाहर चली गई. दंगों की जांच के लिए न्यायिक जांच का गठन किया गया था. इस जांच समिति का प्रमुख ऐसे जज को बनाया गया था, जिनका एक चरमपंथी राजनीतिक दल के प्रति ज्यादा झुकाव था. कई लोगों ने इसी वजह से जांच पैनल में शामिल होते ही त्याग पत्र भी दे दिया. बहरहाल इस न्यायिक जांच की रिपोर्ट ने भागलपुर के डीआईजी की रिपोर्ट को सिरे से ख़ारिज कर दिया था. वह लिखते हैं कि दंगों के ज्यादातर दोषी मुख्यमंत्री लालू यादव की जाति के थे. दंगा पीड़ितों को मुआवजा दिलवाने के लिए उन्होंने हर दरवाजेे पर दस्तक दी लेकिन कहीं से सकारात्मक जवाब नहीं मिला. वे लिखते हैं कि मैंने व्यक्तिगत रूप से गृह सचिव यूएन पंजियार और उस वक्त राज्य के दो बड़े मंत्रियों शकील अहमद खान और अब्दुल बारी सिद्दीकी का ध्यान इस ओर आकर्षित करने की पूरी कोशिश की लेकिन उनमें से किसी ने भी पीडतों को मुआवज़ा दिलवाने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. हालांकि साल 2005 में नीतीश कुमार के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह मुद्दा एक फिर से उठा लेकिन वह इस नतीजे पर पहुंचे कि दंगा पीड़ितों को मुवाज़ा देने के मामले में सरकार बहुत कंजूस बन जाती है. फॉरबिसगंज पुलिस फायरिंग में पीड़ितों को मुआवजा दिए जाने के मामले में वे लिखते हैं कि नीतीश कुमार ने मामले की जांच के लिए जांच आयोग के गठन पर पर खुशी-खुशी 10 करोड़ रुपये खर्च कर दिए लेकिन पीड़ितों को देने के लिए सरकार के पास पांच लाख रुपये भी नहीं थे. यदि किताब के पहले अध्याय को छोड़ दिया जाए तो लेखक ने केवल अपनी प्रशासनिक सफलताओं और असफलताओं के साथ-साथ राज्य की राजनीति पर बेबाक टिप्पणी की है. कहीं-कहीं कई दिलचस्प बातों का भी ज़िक्र उन्होंने किया है. मिसाल के तौर पर भारत के तत्कालीन गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह जब बिहार दौरे पर बोकारो आए थ. अधिकारियों से परिचय करवाने के दौरान जब हिमाचल प्रदेश से संबंध रखने वाले एक आईपीएस अफसर की पत्नी से उनका परिचय कराया गया तो उन्होंने पूछ लिया कि उनका संबंध चीन से तो नहीं है. केंद्रीय पर्यटन मंत्री गुलाम नबी आज़ाद के साथ एक मीटिंग में जब जापान और दुसरे देशों से बिहार आने वाले बौद्ध तीर्थ यात्रियों की सुरक्षा का सवाल उठाया गया तो उन्होंने कहा कि बिहारी केवल बिहारी पर हमला करता है किसी गैर बिहारी को अपना मेहमान समझता है.
इस किताब पर भी यह आरोप लगाया जा सकता है कि जब नौकरशाह अपनी सेवा के दौरान कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर पाते हैं तो वे किताब लिखते हैं और सुर्खियां बटोरने की कोशिश करते हैं. हालांकि यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि एक नौकरशाह को कितने राजनीतिक दबाव में काम करना होता है. पिछले दिनों कई सेवानिवृत्त नौकरशाह अपनी आत्मकथाओं की वजह से सुर्ख़ियों में थे. लेखक ने किताब में जिन बातों का जिक्र किया है वो बातें सरकारी रिकॉर्ड में दर्ज हैं जिन्हें आसानी से सत्यापित किया जा सकता है. यह किताब न केवल सिविल सेवा से जुड़े अधिकारियों, बिहार की राजनीतिक और सामाजिक स्थिति पर शोध करने वाले छात्रों के लिए अहम है बल्कि बिहार की राजनीति में रुचि रखने वालों के लिए एक अहम दस्तावेज साबित होगी.

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