rajsthanराजस्थान सरकार में अब पूर्व व वर्तमान लोकसेवकों, न्यायाधीशों व सरकारी बाबुओं के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने से पूर्व सरकार की अनुमति लेनी होगी. इतना ही नहीं, सरकारी अधिकारी व बाबुओं का भ्रष्टाचार सामने आने के बावजूद मीडिया सरकार के परमिशन के बिना उनका नाम, चित्र, पता या उनकी आइडेंटिटी से ज़ुडे तथ्य प्रकाशित या प्रसारित नहीं कर सकता है. सरकार से मंजूरी मिलने से पहले अगर मीडिया ने लोकसेवकों की पहचान उजागर की, तो दो साल की सजा का प्रावधान भी है. आपराधिक कानून (राजस्थान संशोधन) अध्यादेश, 2017 के दायरे में अफसर ही नहीं, भ्रष्ट नेताओं को भी रखा गया है. विधानसभा में बिल पेश किए जाने से पूर्व सरकार सभी लोकसेवकों को भी इसके दायरे में ले आई. अब आलम यह है कि पंच, सरपंच से लेकर विधायक तक पर सरकार की इच्छा के बिना केस दर्ज नहीं हो सकता है. अगर सरकार छह महीने तक किसी सरकारी अधिकारी या बाबू के खिलाफ मामले की जांच नहीं कराती है, तो इसे सरकार की मंजूरी समझी जाएगी. अब तक प्रावधान यह था कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 156 (3) के तहत कोई भी व्यक्ति मजिस्ट्रेट के यहां परिवाद दायर कर इनके खिलाफ केस दर्ज करा सकता था.

बैकफुट पर राजे सरकार

सरकार 8 सितंबर को ही सीआरपीसी में संशोधन के लिए अध्यादेश लागू कर चुकी है. भारतीय संविधान के अनुसार, राज्य सरकारें राज्य और समवर्ती सूची से जुड़े विषयों पर अध्यादेश ला सकती हैं. इस अध्यादेश की अवधि 6 महीने की होती है और इस बीच विधानसभा पटल पर इसे रखना जरूरी होता है. गौरतलब है कि 200 सीटों वाली राजस्थान विधानसभा में भाजपा के 162 विधायक हैं. सरकार को उम्मीद थी कि इस अध्यादेश को विधानसभा से पारित करा लेने में कोई मुश्किल नहीं होगी. लेकिन विधानसभा में बिल पेश होते ही पूरे विपक्ष ने आक्रामक रुख अपना लिया. कांग्रेस के अलावा सत्तारूढ़ भाजपा के भी दो विधायक घनश्याम तिवाड़ी और नरपत सिंह राजवी इस बिल के विरोध में उतर गए. विपक्ष के एकजुट विरोध के कारण फिलहाल यह बिल पारित नहीं हो सका है. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया ने इस बिल पर पुनर्विचार करने के संकेत दिए हैं. वे अपने मंत्रियों के साथ इस बिल पर विचार-विमर्श कर रही हैं. खबर मिली है कि अब यह बिल सेलेक्ट कमिटी को भेज दिया गया है.

अपने-अपने तर्क

राजस्थान के गृहमंत्री गुलाबचंद कटारिया इस बिल के समर्थन में तर्क दे रहे हैं कि ईमानदार अधिकारी सही काम करने से डरते थे. उन्हें लगता था कि कोई झूठी शिकायत देकर उन्हें फंसा सकता है. अधिकारी स्वतंत्र व निष्पक्ष माहौल में काम कर सकें, इसलिए यह अध्यादेश लाया गया है. राज्य के संसदीय मंत्री राजेंद्र राठौड़ भी कुछ ऐसी ही दलील दे रहे हैं. वे कहते हैं कि मनगढ़ंत मुकदमे दर्ज कर लोक सेवकों को हतोत्साहित किया जा रहा था. कुछ लोग गिरोह के रूप में 156 (3) धारा का दुरुपयोग कर रहे थे. सरकार को इनके खिलाफ बराबर शिकायतें मिल रही थीं. सरकार ने इसमें बस इतनी शर्त जोड़ी है कि केस दर्ज करने से पूर्व सरकार की अनुमति लेनी होगी. सरकार के लिए भी अनिवार्य होगा कि 6 माह में इस मामले का निपटारा करे. 6 माह बीतने पर इसे सरकार की स्वीकृति मानी जाएगी. सरकार यह भी बता रही है कि महाराष्ट्र में यह कानून पहले से ही है. वहीं प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट इसे भ्रष्टों को बचाने वाला कानून बता रहे हैं. राहुल गांधी ने भी टि्‌वट किया, मैडम चीफ मिनिस्टर, हम 21वीं सदी में रहते हैं. यह 2017 है, 1817 नहीं.

यह बिल अपराध करने का लाइसेंस है

कानूनी मामलों के विशेषज्ञ भी इस बिल के प्रावधानों को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक बता रहे हैं. उनका कहना है कि यह बिल भारतीय संविधान के आर्टिकल 14, 19 और 21 का उल्लंघन है. किसी अधिकारी के भ्रष्टाचार या पद के दुरुपयोग से संबंधित मामले की निष्पक्ष जांच का अधिकार संविधान याचिकाकर्ता को देता है. राजस्थान हाइकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता एके जैन ने सामाजिक कार्यकर्ता भगवत कौर की तरफ से इस बिल के खिलाफ पीआईएल दाखिल की है. एके जैन इस बिल को अपराध करने का लाइसेंस बताते हैं. इस अध्यादेश पर मानवाधिकार संगठनों ने भी एतराज जताया है. पीपल्स यूनियन फोर सिविल लिबर्टीज की राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव ने इस बिल को लोकतंत्र के दो स्तम्भ न्यायपालिका और मीडिया पर हमला बताया है. उन्होंने कहा, मीडिया का गला घोंटा जा रहा है. अगर अदालत को सुनवाई और जांच के आदेश से रोका जा रहा है तो आप समझ सकते हैं कि लोकतंत्र का क्या अर्थ रह जाएगा? फिर लोग कहां फरियाद करेंगे?

एडिटर्स गिल्ड ने भी कहा कि यह अध्यादेश पत्रकारों को जेल में बंद करने की निरंकुश ताकत देता है. यह मीडिया को परेशान करने वाला, सरकारी अधिकारियों के कार्यों को छिपाने वाला और प्रेस की आजादी में बाधा डालने का हथियार है. राजस्थान सरकार का यह अध्यादेश आपातकाल की याद ताजा कराने वाला है. आम जनता व प्रेस की स्वतंत्रता व अधिकारों को कुचलने वाला यह अध्यादेश लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here