प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार तेज गति से चल रही है, ऐसा दिखने-दिखाने के चक्कर में केंद्र की सत्ता चक्करघिन्नी हो रही है. सरकार आगे की तारीखों में आदेश जारी करती है और बदहवासी में उसे पीछे की तारीख पर ही डिस्पैच कर देती है. इस तरह का शासनिक चुटकुला आपने शायद ही पहले कभी सुना हो. केंद्र सरकार के मंत्री अपने आदेशों और सरकारी जवाबों में तथ्यों के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं और उनका मज़ाक उड़ा रहे हैं. किस तरह? यही बता रही है, इस बार की आमुख कथा…

dasthkhat-june-ka-bheja-maiउत्तर प्रदेश के पांच हज़ार करोड़ रुपये के ऊर्जा घोटाले की सीबीआई जांच के मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय से संबद्ध राज्य मंत्री डॉ. जितेंद्र सिंह ने तथ्यों से ध्यान हटाने की आधिकारिक कोशिश तो की ही, उन्होंने अपने शासनिक पत्र पर सात जून, 2015 का हस्ताक्षर मई महीने में ही चस्पा कर दिया और उनके विभाग ने बिना तारीख देखे उसे मई महीने में ही डिस्पैच भी कर दिया. एक लोकसभा सदस्य को भेजे जा रहे शासनिक पत्र को लेकर भी केंद्र सरकार सतर्कता नहीं बरतती. फिर आम आदमी की स्थिति के बारे में तो हम सहज ही कल्पना कर सकते हैं. सांसद महोदय को केंद्रीय मंत्री महोदय का पत्र एक महीना पहले ही प्राप्त हो गया. उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक नेता, नौकरशाह और न्यायाधीश सब मिलकर इस अरबों रुपये के ऊर्जा घोटाले की लीपापोती में किस तरह लिप्त हैं, इसकी वीभत्स गाथा चौथी दुनिया में कवर स्टोरी के रूप में प्रकाशित हो चुकी है. फिर भी सत्ता की खाल पर असर का हाल यह है कि पीएमओ के साथ-साथ कार्मिक मंत्रालय के राज्य मंत्री का भी प्रभार संभालने वाले डॉ. जितेंद्र सिंह अपनी ही पार्टी के सांसद भानु प्रताप सिंह वर्मा को भेजे जाने वाले आधिकारिक पत्र पर मई महीने में ही सात जून, 2015 की तारीख दर्ज कर हस्ताक्षर कर देते हैं, उनका विभाग बिना तारीख देखे वह पत्र डिस्पैच भी कर देता है और एक महीने पहले ही यानी मई 2015 में ही सांसद को पत्र प्राप्त भी हो जाता है.
इस पत्र के ज़रिये डॉ. जितेंद्र सिंह उत्तर प्रदेश के ऊर्जा घोटाले में सीबीआई जांच की अद्यतन स्थिति के बारे में जानकारी दे रहे हैं और आधिकारिक तौर पर न केवल तारीख, बल्कि तथ्यों को लेकर भी भ्रम फैला रहे हैं. केंद्रीय मंत्री से उस ऊर्जा घोटाले के बारे में जानकारी मांगी गई थी, जिसमें उत्तर प्रदेश से लेकर केंद्र तक के नेता और नौकरशाह लिप्त रहे हैं. यही कारण है कि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार द्वारा मामले की सीबीआई जांच कराने की औपचारिक सिफारिश के बावजूद घोटाले की जांच नहीं होने दी गई. सीबीआई से ही यह लिखवा दिया गया कि ऊर्जा घोटाले की जांच करने की उसके पास तकनीकी क्षमता नहीं है. सीबीआई ने जांच करने से बचने के लिए कई तरह के ग़ैर-क़ानूनी, ग़ैर-ज़रूरी, अतार्किक और अगंभीर बहाने गढ़े, लेकिन किसी ने भी सीबीआई से यह पूछने की जहमत नहीं उठाई कि उसने इतने ऊलजुलूल बहाने क्यों गढ़े! निजी नैतिक विवेक पर चलने का हमेशा आह्वान करने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार के मंत्री का निजी नैतिक विवेक देखिए कि उन्होंने एक सांसद को दिए गए जवाब में सीबीआई का वही पुराना बहाना हूबहू लिखकर भेज दिया. जबकि नरेंद्र मोदी सरकार की बनाई हुई छवि के मुताबिक लोगों को यह उम्मीद थी (भाजपा के सांसद को भी) कि भ्रष्टाचार के इतने बड़े मामले को उजागर करने में केंद्र सरकार नए सिरे से पहल करेगी, न कि पुरानी ढपली ही बजाएगी.
पांच हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक के इस ऊर्जा घोटाले की सीबीआई से जांच कराने की अधिसूचना जारी होने के बावजूद सीबीआई ने जांच करने से मना कर दिया, यह भ्रष्टाचार के इतिहास का एक हैरतअंगेज तथ्य है. लेकिन, न तबकी केंद्र सरकार और न अबकी केंद्र सरकार ने सीबीआई से यह पूछा कि ऐसी दुस्साहसिक हुकुमउदूली उसने क्यों की? तो यह क्यों न समझा जाए कि घोटाले की रकम इतनी बड़ी थी कि उसने राज्य एवं केंद्र सरकार में बैठे सियासतदानों, नौकरशाहों और सीबीआई के अधिकारियों को अपने प्रभाव-क्षेत्र में ले लिया! तभी तो सीबीआई ने उत्तर प्रदेश सरकार की अधिसूचना तक को ताक पर रखकर यह कह दिया कि मामला जांच के उपयुक्त नहीं है. सीबीआई के अधिकारियों की यह अराजकता केंद्र के सत्ता अलमबरदारों को नहीं दिखी. सीबीआई ने ऊर्जा घोटाले की जांच करने से मना करते हुए पहले इसे पुराना मामला बताया, फिर कहा कि घोटाले से संबंधित जानकारियां उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नहीं दी जा रही हैं, फिर उसके बाद कहा कि सीबीआई के पास जांच की तकनीकी क्षमता ही नहीं है और यह भी कहा कि इस घोटाले का कोई अंतरराष्ट्रीय प्रसार नहीं है. जबकि सीबीआई के सारे तर्क आधारहीन हैं.
ग़ौरतलब है कि पांच हज़ार करोड़ रुपये से अधिक का यह ऊर्जा घोटाला विदेशी कंपनी कोरिया की मेसर्स हुंडई इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड के साथ उत्तर प्रदेश पॉवर कॉरपोरेशन के अधिकारियों की मिलीभगत से ही अंजाम दिया गया था. 400 केवी सब स्टेशन एवं पारेषण (डिस्ट्रिब्यूशन) लाइन के निर्माण की इस परियोजना में जापान की तऱफ से भी 11 सौ करोड़ रुपये मिले थे. जापान की कंपनी मेसर्स टेपेस्को इस परियोजना की सलाहकार भी थी. फिर सीबीआई ने यह कैसे कह दिया कि मामले का कोई अंतरराष्ट्रीय प्रसार नहीं है, इसलिए वह इसकी जांच नहीं कर सकती? इस घोटाले में उत्तर प्रदेश के नेताओं एवं नौकरशाहों के अलावा केंद्रीय वित्त मंत्रालय और ऊर्जा मंत्रालय के साथ-साथ सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के आला अधिकारी भी लिप्त रहे हैं. लिहाजा, यह मामला सीधा-सीधा सीबीआई जांच की परिधि में आता है. केंद्रीय मंत्री द्वारा भाजपा सांसद भानु प्रताप सिंह वर्मा को लिखे गए इस तीव्र गति के पत्र का एक और विचित्र पहलू यह है कि उत्तर प्रदेश के ऊर्जा घोटाले की जांच की अद्यतन स्थिति के बारे में मंत्री से चार जून, 2014 को ही जानकारी मांगी गई थी. एक सांसद द्वारा मांगी गई जानकारी का जवाब देने का समय केंद्रीय मंत्री को साल भर बाद मिला, वह भी तारीखों में गड्डमड्ड करके.

और जवाब भी क्या मिला! पहले बिंदु में सीबीआई का वही घिसा-पिटा संदर्भ दोहराया गया. दूसरे बिंदु में कहा गया कि नंदलाल जायसवाल ने मामले की सीबीआई जांच के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दाखिल कर रखी है और उस पर अदालत का निर्णय आना बाकी है. जबकि केंद्र और राज्य, दोनों सरकारों को यह पता है कि अरबों रुपये के इस ऊर्जा घोटाले की सीबीआई जांच के लिए वर्ष 2007 में ही सेंटर फॉर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की तऱफ से मशहूर वकील प्रशांत भूषण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ में जनहित याचिका (संख्या-6605-एमबी 2007) दाखिल की थी. इस पर हाईकोर्ट ने सीबीआई से जांच की रिपोर्ट मांगी थी. तब सीबीआई ने कहा कि मामले की कोई जांच इसलिए नहीं की गई, क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बारे में कोई अधिसूचना जारी नहीं की है. इस पर हाईकोर्ट ने प्रदेश सरकार को बाकायदा अधिसूचना जारी कर मामले की सीबीआई से जांच कराने को कहा. तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने दो मार्च, 2008 को अधिसूचना जारी कर दी और केंद्र सरकार को इस बारे में सूचित कर दिया. अधिसूचना जारी होने के बावजूद सीबीआई ने खेल कर दिया. सीबीआई ने 30 सितंबर, 2008 को यह कह दिया कि वह मामले की जांच नहीं कर सकती. केंद्र सरकार भी सीबीआई के इस खेल में शामिल है.
ऊर्जा सेक्टर के व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायसवाल की जिस जनहित याचिका का केंद्रीय मंत्री ने जिक्र किया है, वह तो बाद का अध्याय है. अधिसूचना जारी होने के बावजूद सीबीआई द्वारा जांच से टालमटोल किए जाने के कारण नंदलाल जायसवाल ने अलग से पीआईएल दाखिल की थी. केंद्रीय मंत्री ने बड़ी बुद्धिमानी से नंदलाल जायसवाल की जनहित याचिका का जिक्र तो किया, लेकिन प्रशांत भूषण की याचिका का संदर्भ वह गोल कर गए. हाईकोर्ट ने नंदलाल जायसवाल और प्रशांत भूषण, दोनों की याचिकाओं को एक साथ जोड़ (क्लब कर) दिया है. यदि मामले की गहराई से जांच हो, तो इसमें सीबीआई के कुछ आला अफसरों की भी संदेहास्पद भूमिका सामने आएगी. सीबीआई जांच के लिए उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से औपचारिक रूप से अधिसूचना जारी कर दिए जाने के बावजूद सीबीआई मुख्यालय ने सीबीआई लखनऊ जोन को इस बारे में कोई भनक नहीं लगने दी. जबकि उत्तर प्रदेश से जुड़ा मामला होने के कारण मुख्यालय को सबसे पहले सीबीआई के लखनऊ जोन को इत्तिला करनी चाहिए थी. सीबीआई की सारी जांच यूनिटें लखनऊ जोन में हैं, इसके बावजूद मुख्यालय में बैठे कुछ खास अफसरों ने दिल्ली से ही जांच का रास्ता बंद कर दिया. घोटाले की जांच न हो, इसके लिए सीबीआई ने तमाम झूठ बोले और धोखाधड़ी की. सूचना का अधिकार क़ानून के तहत सीबीआई मुख्यालय से जब जानकारी मांगी गई, तो उसे लखनऊ जोन के मत्थे मढ़ने की कोशिश की गई. लेकिन, सीबीआई लखनऊ जोन ने मुख्यालय का निर्देश उसे ही वापस लौटा दिया. इस पूरे प्रकरण से लखनऊ जोन को अलग रखा गया, लिहाजा लखनऊ जोन ने भी मुख्यालय को बेबाकी से लिख दिया कि जवाब तो मुख्यालय को ही देना होगा.


जब बिजली नहीं, तो एमओयू क्यों!
इस गर्मी में उत्तर प्रदेश में बिजली व्यवस्था की पोल खुल गई. लोगों को यह भी समझ में आ गया कि बिजली उत्पादन बढ़ाने के नाम पर औद्योगिक और पूंजी घरानों से हो रहे करार महज झांसापट्टी हैं. विभागीय अभियंताओं ने भी जब इन करारों के औचित्य पर सवाल खड़ा कर दिया, तो आम लोगों की समझ को आधिकारिक पुष्टि मिल गई. बिजली घरों के निर्माण के लिए निजी कंपनियों से हुए करार (एमओयू) की अवधि लगातार बढ़ाए जाने का विरोध करते हुए मुख्यमंत्री से यह मांग की गई है कि एमओयू निरस्त कर व्यापक जनहित में नई बिजली परियोजनाओं का काम ऐसी सरकारी संस्था को दिया जाए, जिसकी साख हो, जिससे समय पर परियोजनाएं पूरी हो सकें और प्रदेश को सस्ती बिजली मिल सके. उल्लेखनीय है कि 10,340 मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजनाओं के निर्माण के लिए निजी कंपनियों के साथ 10 दिसंबर, 2010 से चार जनवरी, 2011 के बीच 10 एमओयू किए गए थे, जिसके अनुसार 18 माह में काम शुरू न होने पर एमओयू निरस्त करके लगभग पांच अरब रुपये की जमानत धनराशि जब्त की जानी चाहिए थी, लेकिन एमओयू की अवधि को लगातार विस्तार दिया जाता रहा. निजी कंपनियों द्वारा काम शुरू न किए जाने से सा़फ है कि उनकी दिलचस्पी बिजली घर लगाने के बजाय ज़मीनों पर कब्जा करने में अधिक है. एमओयू की अवधि बढ़ाते चले जाने का असर यह हुआ कि बिजली परियोजनाएं किसी भी हालत में वर्ष 2020 के पहले बिजली उत्पादन नहीं कर सकेंगी. इस साल काम शुरू भी हो गया, तो 2020 के पहले परियोजनाओं का पूरा होना संभव नहीं है. ऐसे में 2017 में प्रदेश में 10 हज़ार मेगावाट का अतिरिक्त बिजली संकट होगा. अगर निजी कंपनियां 2020 तक बिजली उत्पादन शुरू भी कर देती हैं, तो इन बिजली घरों से उत्पादित बिजली अत्यधिक महंगी होगी.


एक तऱफ भ्रष्टाचार, दूसरी तऱफ जनता से लूट
भ्रष्टाचार से जर्जर हो चुकी वित्तीय हालत ठीक करने के लिए पॉवर कॉरपोरेशन जनता से धोखाधड़ी करके उसका पैसा लूट रहा है. पॉवर कॉरपोरेशन ने बिजली बिल के नाम पर 40 लाख ग्रामीण उपभोक्ताओं से 100 करोड़ रुपये से अधिक वसूल लिए हैं. विद्युत नियामक आयोग ने जिस बिजली टैरिफ को ग्रामीण उपभोक्ताओं पर लागू करने पर रोक लगाई थी, उसी टैरिफ पर बिजली कंपनियों ने वसूली कर ली. अब नियामक आयोग ने रिपोर्ट मांगी है. लेकिन यह कवायद भी फिसड्डी पटाखा ही साबित होगी, क्योंकि इसके पहले भी अतिरिक्त फिक्स चार्ज और एमडी पेनाल्टी के नाम पर दो अरब रुपये से ज़्यादा की वसूली की जा चुकी है. बिना मीटर वाले शहरी घरेलू उपभोक्ताओं से भी क़रीब डेढ़ सौ करोड़ रुपये वसूले जा चुके हैं, लेकिन कार्रवाई कुछ नहीं हुई.


विभागीय कर्मचारी बग़ावत की राह पर
उत्तर प्रदेश के ऊर्जा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के ़िखला़फ अब विभागीय कर्मचारी ही विद्रोह का बिगुल फूंक रहे हैं. उत्तर प्रदेश पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड में व्याप्त भीषण भ्रष्टाचार के ़िखला़फ विद्युत कर्मचारी मोर्चा जन-जागरण अभियान तक चला चुका है. इस अभियान का समर्थन करने वाली विद्युत मज़दूर पंचायत के महामंत्री एवं विद्युत कर्मचारी संयुक्त संघर्ष समिति के संयोजक गिरीश पांडेय ने कहा कि पॉवर कॉरपोरेशन में भ्रष्टाचार चरम सीमा पर पहुंच चुका है. यदि अकूत भ्रष्टाचार और घोटालों की सीबीआई से जांच कराई जाए, तो पॉवर कॉरपोरेशन प्रबंधन के उच्च पदों पर बैठे आला अधिकारियों एवं अभियंताओं का पर्दाफाश हो जाएगा. व्हिसिल ब्लोअर नंदलाल जायसवाल ने कहा कि उत्तर प्रदेश के ऊर्जा सेक्टर को अलग-अलग आयामों से चूसा जा रहा है. अरबों रुपये के घोटाले के अलावा अभियंताओं एवं ठेकेदारों की मिलीभगत से ठेके के संविदा कर्मचारियों के भी लगभग एक हज़ार करोड़ रुपये हड़प लिए गए हैं. भ्रष्टाचार का विरोध करने पर कर्मचारियों का उत्पीड़न किया जाता है, पुलिस से पिटवाया जाता है, जेल भेजा जाता है, निलंबन किया जाता है और नौकरी से निकाल दिया जाता है. नंदलाल जायसवाल खुद इसके भुक्तभोगी रहे हैं. भ्रष्टाचार उजागर करने के कारण उन्हें भीषण प्रताड़ना से ग़ुजरना पड़ा और आ़िखरकार उन्हें नौकरी से भी निकाल दिया गया. बाद में अदालत के हस्तक्षेप पर उन्हें पेंशन मिलनी शुरू हुई. नंदलाल जायसवाल की पुनर्बहाली का मसला हाईकोर्ट में विचाराधीन है. ऊर्जा सेक्टर के विभिन्न बड़े घोटालों में पॉवर कॉरपोरेशन का पांच हज़ार करोड़ रुपये का घोटाला शीर्ष पर है, जिसकी सीबीआई से जांच के लिए मायावती सरकार ने अधिसूचना जारी की, लेकिन केंद्र सरकार और सीबीआई ने जांच नहीं होने दी. इसी तरह उत्तर प्रदेश में राजीव गांधी ग्रामीण विद्युतीकरण योजना में भी 1600 करोड़ रुपये का घोटाला हुआ था. इस मामले में पिछले क़रीब एक दशक से जांच ही चल रही है. नतीजा शून्य है. विद्युत नियामक आयोग की शह पर जेपी समूह समेत निजी बिजली घरानों को लाभ पहुंचाए जाने के सनसनीखेज मामले में भी नतीजा ढाक के तीन पात ही निकला. इस भ्रष्टाचार के कारण प्रदेश को क़रीब 30 हज़ार करोड़ रुपये की क्षति हुई. सुप्रीम कोर्ट के ़फैसले से नियामक आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष राजेश अवस्थी हटा तो दिए गए, पर घोटाले की जांच फाइलों में ही बंद रह गई. यही हाल जल विद्युत निगम में हुए 750 करोड़ रुपये के घोटाले का भी हुआ. तत्कालीन एमडी आलोक टंडन समेत कई अभियंताओं के इस घोटाले में सीधे शामिल होने का आरोप है. आधिकारिक तौर पर कहा भी जाता है कि मामले की जांच जारी है, लेकिन आधिकारिक तौर पर कोई यह नहीं कहता कि जांच का नतीजा कब आएगा और कोई कार्रवाई भी होगी या नहीं. एक हज़ार करोड़ रुपये से अधिक का बिजली बिल घोटाला भी दरवाजे-दरवाजे भटक रहा है. उत्तर प्रदेश पॉवर कॉरपोरेशन लिमिटेड के अधिकारियों और अधिकृत बिलिंग कंपनी के अधिकारियों की मिलीभगत से यह घोटाला किया गया. इसमें बिलिंग से जुड़ी कुछ आईटी कंपनियां भी शामिल हैं. लखनऊ के पश्चिमांचल विद्युत वितरण निगम को जांच का ज़िम्मा दिया गया, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.

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