दिनांक 11-02-2022 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग द्वारा आयोजित शुक्रवारिय परिचर्चा पूर्णतः सफल हुई। कार्यक्रम का आयोजन ऑनलाइन मोड़ में हुआ । परिचर्चा का विषय “भारतीय साहित्य ,समाज और सिनेमा” रुचिकर और महत्वपूर्ण था । आज के आयोजन की वक्ता वरिष्ठ लेखिका डॉ विजय शर्मा जी थीं । विश्व साहित्य अध्येता डॉ विजय शर्मा की अब तक 15 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। तीसमारखाँ एवं अन्य कहानियां कहानी संग्रह, अपनी धरती अपना आकाश नोबेल के मंच से , विश्व सिनेमा: कुछ अनमोल रतन आदि प्रमुख कृतियां । आप ने विश्व सिनेमा में स्त्री और मासिक साहित्य पत्रिका कथादेश के दो अंकों का अतिथि संपादन किया है ।
डॉ शर्मा ने साहित्य और सिनेमा के संबंधों पर अपनी बात रखते हुए कहती हैं कि अधिकतर फिल्में साहित्य का सहारा लेती हैं । लेकिन दोनों विधाएं अलग अलग है । साहित्यकार एकाकी होता है । साहित्यकार की कृति जब प्रकाशित हो जाती है ,तो वह लेखक की न हो कर पाठक की हो जाती है। जबकि सिनेमा एक टीम वर्क होता है । फ़िल्म को बनाने के लिए एक टीम की जरूरत होती है । जिसके योगदान से फिल्मनिर्माता या कहें निर्देशक सफल होता है( हां कुछ निर्देशक सब गुण संपन्न भी होते हैं जिसे सत्यजीत राय) । फ़िल्म चलेगी या नही या समाज के ऊपर निर्भर करता है। क्योंकि सिनेमा और साहित्य दोनों समाज का दर्पण होते हैं। डॉ शर्मा ने कुछ साहित्यिक कृतियों पर आधारित फिल्मों का उदाहरण प्रस्तुत किया जैसे राजी , पिंजर, शतरंज के खिलाड़ी, हमलेट एवं कुछ लेखक जैसे रविन्द्र नाथ टैगोर, प्रेमचंद, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर,रेणु, राजेन्द्र यादव, सलमान रुश्दी, मन्नू भंडारी,अमृता प्रीतम , शेक्सपियर, रस्किन बॉन्ड, एलिस वाकर आदि आदि का भी उदाहरण प्रस्तुत किया ।डॉ शर्मा ने टैगोर की कृतियों पर आधारित फिल्मों का जिक्र बड़ी सहजता से और विस्तार पूर्वक किया । फ़िल्म ओमकार शेक्सपियर की कहानी पर आधारित कहानी है । जिसके निर्देशक विशाल भारद्वाज हैं । यह फ़िल्म 2006 में आई थी । उत्तर प्रदेश की राजनीति पर आधारित यह फ़िल्म किस तरीके से हमारे समाज को प्रस्तुत करती है । यह किसी से छुप नही पाया है । ऐसी ही स्मृतिलोप पर आधारित फ़िल्म है तन्मात्रा । तन्मात्रा 2005 में आई थी, जो कि पी.पद्मराजन की कहानी ओरमा(स्मृति)पर आधारित है । जिसके निर्देशक ब्लेसी हैं। फ़िल्म बहुत सराही गई थी और इसके पुरस्कारों की लिस्ट बहुत लंबी है । डॉ शर्मा इसी क्रम में कहती हैं कि “साहित्य में कितनी ताकत होती है , कितना आकर्षण होता है इसे सिद्ध करने के लिए देवदास(शरतचंद्र की कृति पर आधारित) जैसी फ़िल्म काफी है”। जिसने दिलीप कुमार को सिनेमा में स्थापित किया। । अलग अलग समय में इस पर चार बार फिल्में बनी ।
जिसके निर्देशक क्रमशः पी. सी . बरुआ, विमल राय और संजय लीला भंसाली हैं। साहित्य आधारित मलयालम फिल्में जैसे चेम्मिन , पलोरी मड़िकयम और कन्नड़ उपन्यास संस्कार पर आधारित फिल्मों का उदाहरण प्रस्तुत किया। अपना वक्तव्य समाप्त करते हुए डॉ शर्मा कहती हैं “साहित्य और सिनेमा एक दूसरे से जुड़े हैं। दोनों अपने समय को दोहराते हैं।”

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे हिंदी विभाग के अध्यक्ष प्रो.कृपाशंकर पांडेय ने अपना अध्यक्षीय भाषण दिया । प्रो. पांडेय जी ने बताया कि प्राचीन काल में दृश्य चित्रों की परम्परा मिलती है। सिनेमा का साक्ष्य हमे एल्टामेरा की गुफ़ाओं से ही मिलता है। सिनेमा हमारे लोक में भी व्याप्त है । लोक गीत ,लोक कथा हमारे सिनेमा का ही अंश है । दुःख व्यक्त करते हुए प्रो पांडेय कहते हैं कि आज जिस तरह की फिल्में बन रही हैं । वह हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहीं है । ऐसी फ़िल्मे ख़ारिज हो रहीं हैं , उन्हें दर्शक ख़ारिज कर रहें हैं।

कार्यक्रम में संयोजक डॉ जीराजू, डॉ जनार्दन , कार्यक्रम संचालक डॉ मीना कुमारी मिश्रा, विभाग के प्रोफेसर शिवप्रसाद शुक्ला, सहयोगी अध्यापक डॉ अंशुमान कुशवाहा , डॉ दिनेश कुमार , शोधार्थी , परास्नातक एवं स्नातक के विद्यार्थी आदि सहयोगी कार्यक्रम में उपस्थित रहे।

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