अल्फांजो आम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. भारतीय खेती में इसकी ख़ास अहमियत मानी जाती है. यह आमदनी का एक बड़ा ज़रिया भी है. दशकों से इसने दुनिया के खाने की थाली में अपनी एक अलग पहचान बनाई है. भारत में अल्फांजो को हापूस के नाम से भी जाना जाता है. और, कई लोग तो इसकी कहानियां सुनकर ही बड़े हुए हैं. लेकिन, यही आम भारतीय आम आदमी के लिए उपलब्ध नहीं हो पाता है. इसकी वजह यह है कि इस आम के निर्यात से का़फी अधिक राजस्व मिलता है. इसके कई दूसरे रोचक पहलू भी हैं.
पिछले दो वर्षों में अल्फांजों ने अलग-अलग वजहों से सुर्खियां बनाई हैं. यह सारा मसला उस समय शुरू हुआ, जब जेएसडब्ल्यू एनर्जी (रत्नागिरि) लिमिटेड ने महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले के जयगढ़ में 1200 मेगावाट के थर्मल पावर प्रोजेक्ट की स्थापना का प्रस्ताव रखा. इस बात के चलते स्थानीय किसानों, वैज्ञानिकों और उनके समर्थकों में का़फी नाराज़गी थी. क़ानूनी और वैचारिक संघर्ष से शुरू हुए इस मुद्दे ने पर्यावरण जगत को हैरान-परेशान कर दिया है. जेएसडब्ल्यूईआरएल की थर्मल पावर जैसी परियोजनाओं को पर्यावरण से संबंधित क़ानूनों से अनुमति लेनी पड़ती है. जिस क़ानून के तहत इन जैसी परियोजनाओं को अनुमति लेनी पड़ती है, उसे एनवायरमेंटल इंपैक्ट एसेसमेंट (ईआईए) नोटिफिकेशन-2006 का नाम दिया गया है. ईआईए की पूरी प्रक्रिया और जन सुनवाई पूरी होने के बाद ही ऐसी परियोजनाओं को अनुमति दी जाती है. इस प्रक्रिया के तहत प्रभावित होने वाले स्थानीय लोगों के साथ चर्चा के बाद ही परियोजना को स्थापित करने के लिए अनुमति देने का प्रावधान है. जब जयगढ़ स्थित इस परियोजना को 2007 में अनुमति मिली, तो गनपतिपुले के एक किसान ने दिल्ली में वकीलों और महाराष्ट्र में वैज्ञानिकों की मदद से इसे चुनौती दी. ऐसी कई वजहें थीं, जो बालाचंद्र भिखाजी नलवड़े को उनके समर्थकों के साथ एक मंच पर ले आईं. इनमें एक वजह यह भी थी कि थर्मल पावर परियोजना को लगाने से अल्फांजो आम की पैदावार पर नकारात्मक असर पड़ेगा. और, परियोजना के अधिकारियों ने इस संदर्भ में अपना आकलन सही तरीक़े से पेश नहीं किया.

पिछले दो वर्षों में अल्फांजों ने अलग-अलग वजहों से सुर्खियां बनाई हैं. यह सारा मसला उस समय शुरू हुआ, जब जेएसडब्ल्यू एनर्जी (रत्नागिरि) लिमिटेड ने महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले के जयगढ़ में 1200 मेगावाट के थर्मल पावर प्रोजेक्ट की स्थापना का प्रस्ताव रखा. इस बात के चलते स्थानीय किसानों, वैज्ञानिकों और उनके समर्थकों में का़फी नाराज़गी थी. क़ानूनी और वैचारिक संघर्ष से शुरू हुए इस मुद्दे ने पर्यावरण जगत को हैरान-परेशान कर दिया है.

आम की खेती करने वाले किसान अपनी बात लेकर दिल्ली स्थित राष्ट्रीय पर्यावरण अपील प्राधिकरण (एनईएए) के पास गए. यहां कोई भी पीड़ित व्यक्ति पर्यावरण के आधार पर उद्योग या किसी परियोजना को लगाने की अनुमति को चुनौती दे सकता है. अन्य मुद्दों के साथ-साथ किसानों ने इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया कि परियोजना अधिकारियों ने अपने आकलन में इस बात को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दिया कि जयगढ़ क्रीक इस परियोजना के 10 किलोमीटर के रेडियस के अंतर्गत ही आता है. साथ ही, इस थर्मल पावर परियोजना के 4.5 किमी के दायरे में ही वनस्पति और जल क्षेत्र हैं. एनईएए ने उनकी अपील नहीं सुनी और 4500 करोड़ रुपये की परियोजना के लिए मंजूरी दे दी. और, इसका निर्माण कार्य 2008 के सितंबर से ही चल रहा है. एनईएए के एक सदस्य ने इस फैसले के संदर्भ में क़ानून और पर्यावरण के बारे में अपनी राय भी रखी. उन्होंने नलवड़े की अपील को ख़ारिज़ करते हुए कहा कि महाराष्ट्र में बिजली की मांग और आपूर्ति के अंतर को पाटने के लिए इस परियोजना को मंजूरी दी गई है. इसीलिए थर्मल पावर संयंत्र का निर्माण न केवल आवश्यक है, बल्कि ज़रूरी भी है.
लेकिन, इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय का कुछ और ही मानना था. 18 सितंबर 2009 को जेएसडब्ल्यूआरईएल को उस व़क्त ज़बरदस्त झटका लगा, जब दिल्ली उच्च न्यायालय के तीन जजों की खंडपीठ ने एनईएए के फैसले को पलट दिया. साथ ही खंडपीठ ने पूरे मामले को उस विशेषज्ञ समीक्षा समिति (ईएसी) के पास भेज दिया, जिसने पहली बार में संयंत्र लगाने की अनुमति दी थी. दिल्ली उच्च न्यायालय इस पूरे मामले में कैसे शामिल हुआ, यह समझना बेहद आसान है, क्योंकि याचिकाकर्ता एनईएए के फैसले से असंतुष्ट थे और उन्होंने अपनी लड़ाई को आगे ले जाने का फैसला किया. यह का़फी उपयोगी साबित हुआ. दिल्ली उच्च न्यायालय ने बेहद मज़बूत क़ानूनी और न्यायिक आधार पर एनईएए के फैसले को रद्द किया. उसके बाद न्यायालय ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तहत आने वाले ईएसी से पूरे मसले को फिर से देखने को कहा. थर्मल पावर संयंत्र लगाने के लिए फैसला लेने की प्रक्रिया में हुई लापरवाही उच्च न्यायालय के लिए अहम साबित हुई. न्यायालय ने यह सवाल पूछा कि जेएसडब्ल्यूआरईएल को अंतिम रूप से अनुमति देने के लिए ईएसी ने ख़ुद अपने दावों का उल्लंघन किया है. जनवरी 2007 में एक मीटिंग के दौरान ईएसी ने निर्णय लिया था कि वह थर्मल पावर संयंत्र को अनुमति देने के पहले कोंकण विद्यापीठ (कृषि विश्वविद्यालय), दापोली (केकेवीडी) के अध्ययन का इंतज़ार करेगी, ताकि संयंत्र लगाने से अल्फांजो आम पर पड़ने वाले प्रभावों का पता लगाया जा सके. इस अध्ययन में कम से कम छह महीने का व़क्त लगता. उन्होंने परियोजना अधिकारियों से 16 अहम विचारों की मांग की, ताकि उस आधार पर संयंत्र लगाने की अनुमति दी जा सके.
हालांकि, ईएसी ने मार्च 2007 में अपने ही फैसले का उल्लंघन किया और परियोजना के लिए अपनी अनुमति दे दी. और, यह शर्त लगा दी कि जब तक केकेवीडी की रिपोर्ट नहीं आ जाती, तब तक स़िर्फ परियोजना के निर्माण का कार्य ही चलता रहेगा. ज़रा सोचिए, यदि दो साल बाद रिपोर्ट यह ख़ुलासा करे कि निर्माण कार्यों से आम पर अपूर्णनीय क्षति वाला प्रभाव पड़ा है, तो क्या होगा? ऐसे में पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों का आकलन महज़ मजाक नहीं होगा? क्या जेएसडब्ल्यूआरईएल अपना निर्माण कार्य या ऑपरेशन छोड़ देगा? इससे बढ़कर, क्या पहली नज़र में ही यह बातें ईआईए को ध्यान में नहीं रखनी चाहिए?
यह बेहद दिलचस्प है कि इस मसले पर संज्ञान लेते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि लोगों के लिए प्राकृतिक संसाधन जैसे हवा, पानी, जंगल, वनस्पति आदि का बहुत महत्व है. इसलिए जब प्रकृति के अत्यधिक दोहन से लोगों का हित प्रभावित हो तो इसके निजी स्वामित्व या व्यवसायीकरण के लिए अनुमति नहीं दी जा सकती है. साथ ही, प्रकृति के क़ायदे-क़ानूनों का सम्मान होना चाहिए और लोगों के हित एवं मानवीय ज़रूरतों के लिए इसकी देखभाल होनी चाहिए. प्रकृति की इस समझ के साथ न्यायालय के ़फैसले का आधार बिल्कुल ही सही था. दुर्भाग्यवश, जो उच्च न्यायालय ने नहीं किया, वह यह कि उसने समस्त ईआईए को पुनर्गठित करने का आदेश नहीं दिया. दरअसल, यही बात जयगढ़ के किसान चाहते थे, ताकि परियोजना एक बार फिर वैज्ञानिक जांच के दायरे में आ जाए. और, इस मामले में ताज़ा स्थिति यह है कि उस समिति के सदस्यों ने 11-12 दिसंबर, 2009 को बैठक की. उन्होंने ईएसी के प्रति जवाबदेह एक उप समिति का गठन किया, जो परियोजना स्थल का मुआयना करेगी.
दिसंबर 2009 की बैठक के दौरान समिति के उपाध्यक्ष सी आर बाबू ने कहा कि थर्मल पावर संयंत्र से उत्सर्जन, वाहनों से होने वाले उत्सर्जन की अपेक्षा कम या ज़्यादा हो सकते हैं. इसीलिए रत्नागिरि में थर्मल पावर संयंत्र के न होने पर भी उप समिति ने अपने पर्यवेक्षण में कुछ अलग बात कही. उन्होंने कहा कि जो आम के बगीचे मुख्य सड़कों के क़रीब हैं, उनकी पैदावार अच्छी होती है, बनिस्बत उन आम बगानों के, जो शहर से दूर हैं. उन्हें लगा कि हानिकारक उत्सर्जन की वजह से ऐसा होता है. वास्तव में समस्या यह है कि केकेवीडी ने अभी तक अपना अध्ययन पूरा नहीं किया है.
फिलहाल जयगढ़ संयंत्र क़ानूनी पचड़ों में लटका हुआ है, लेकिन समिति के सदस्यों को यह भी लगता है कि ग़ैर सरकारी संगठनों के प्रतिनिधि और किसान पूर्वाग्रह से ग्रसित एवं प्रेरित हैं. ऐसे में मैं उनसे यह पूछना चाहती हूं कि ऊर्जा ज़रूरतों की आड़ में वे कौन सी हक़ीक़त छिपा रहे थे. एक प्रदूषणकारी ऊर्जा संयंत्र के लगने से क्या प्रभाव पड़ेगा, इस बात के अध्ययन के लिए वे सहमत हो गए तो आख़िर उसके पीछे वजह क्या थी? अथवा जब उन्होंने कोयला आधारित थर्मल पावर के साथ वाहनों के प्रदूषण की तुलना की तो इस आड़ में वे कौन सा खेल खेलना चाहते थे?

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