अभियंत्रण के साथ ही देश के समुचित एवं सुचारूविकास के लिए जिस दूसरे आयाम को ज्‍यादा आवश्यक समझा जाता रहा है, वह है प्रबंधन अर्थात मैनेजमेंट. बिना उचित प्रबंधन के किसी भी देश की अर्थ व्यवस्था में वांछित वृद्धि एवं संसाधनों के सही उपयोग की बात सोची तक नहीं जा सकती है. इन्हीं बातों को ध्‍यान में रखते हुए हमारे देश में मैनेजमेंट की पढ़ाई पर प्रारंभ से ही ध्यान दिया गया है. इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए भारतीय प्रबंध संस्थानों की स्थापना की गई, जिनमें से पहला संस्थान 1961 में कोलकाता और दूसरा भी उसी वर्ष अहमदाबाद में स्थापित हुआ. फिर बंगलुरू और उसके बाद 1984 में आईआईएम लखनऊ की स्थापना हुई. हमारे देश में इन आईआईएम के व्यापक योगदान और महत्व को देखते हुए इसके बाद भी कई आईआईएम खुले और खुलने का क्रम अभी भी ज़ोर-शोर से चल रहा है.

मैं यहां खास तौर पर आईआईएम लखनऊ और उसमें भी एक पुलिस अधिकारी के रूप में स्वयं के अनुभवों के बारे में चर्चा करूंगा. आईआईएम लखनऊ ने अपनी स्थापना के मात्र 25 वर्षों के अंदर ही अपना एक महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है. प्रबंध नगर में 185 एकड़ में बसा यह संस्थान खुद में ही एक अलग निराली दुनिया है. मुख्‍य द्वार पर रथ पर सवार श्रीकृष्ण और अर्जुन की अद्वितीय प्रतिमा यहां आपका स्वागत करती है. प्रतिमा शायद यह संदेश देना चाहती है कि यहां के प्रत्येक छात्र को अर्जुन के समान यहां के कृष्ण जैसे प्राध्यापकों से प्रबंधन का समस्त ज्ञान हासिल करके देश के अग्रिम विकास एवं उत्थान के लिए उसका उपयोग करना चाहिए.

अंदर पूरा का पूरा कैंपस इस क़दर शांत और स्थिर नज़र आता है, मानो कोई कड़ी तपस्या चल रही हो. खैर, तपस्या तो हो ही रही होती है, उन क़रीब साढ़े छह-सात सौ छात्र-छात्राओं की, जो यहां दो वार्षिक सत्रों में अध्ययन के लिए आए होते हैं. जहां आपको देश के तमाम सार्वजनिक स्थानों, जिनमें कुछ शिक्षण संस्थान भी सम्मिलित हैं, में रात-दिन शोरशराबे और उथलपुथल का माहौल दिखाई दे जाएगा, वहीं इस प्रबंध नगर में आने पर कई बार तो ऐसा महसूस होने लगेगा कि यह कोई वीरान सी बस्ती है. न कोई शोरगुल, न कोई हल्ला-गुल्ला और न कहीं कोई चिल्लपों. झगड़ा-लड़ाई, मारपीट और गुंडागर्दी तो बहुत दूर की चीज है. ऐसा नहीं कि ये मरे और बेजान लोग हैं. इसके विपरीत सच्चाई यह है कि हां के सारे छात्र-छात्राएं गज़ब के उत्साह और ऊर्जा से भरे वे लोग हैं, जो हमेशा कोई ना और नायाब करने की धुन में लगे रहते हैं. पूरे कैंपस में बिजली का प्रवाह सा सतत विद्यमान रहता है. आप यहां रात के तीन बजे आ जाइए, किसी हॉस्टल में निकल जाइए और किसी छात्र के कमरे में जाकर देखिए तो आप पाएंगे कि वहां जमघट सा लगा हुआ है तथा चर्चाएं चल रही हैं. या तो अगली तारी़ख की क्लास के लिए कोई प्रोजेक्ट बन रहा होगा या फिर कोई असाइनमेंट तैयार किया जा रहा होगा अथवा किसी गंभीर अकादमिक विषय पर वाद-विवाद छिड़ा होगा, जिसके मध्य दुनिया भर के गंभीर विचारकों एवं तत्वमर्मज्ञों की बातें प्रस्तुत की जा रही होंगी. लेकिन, इसे देखकर ऐसा समझने की भूल बिल्कुल भी नहीं की जानी चाहिए कि ये लड़के-ल़डकियां समय से पहले ही बूढ़े हो गए हैं अथवा इनके जीवन में काम के सिवाय कोई और रस है ही नहीं. सच्चाई ठीक इसके विपरीत है. ये सब भी उतनी ही मौज़मस्ती करते हैं, जितनी दूसरे लोग करते होंगे. हंसी-मज़ाक, उठापटक और मस्ती यानी सब कुछ इनके स्वभाव में भी रचा-बसा दिखता है और इनकी हरकतों में भी. लेकिन यह भी सही है कि सारा कुछ क़ायदे और मर्यादाओं की अनकही एवं अलिखित परिधि के अंतर्गत ही होता है. रात और दिन यहां के ल़डके एवं लड़कियां एक साथ घूमते या बैठे दिखाई देते हैं, लेकिन मजाल नहीं कि किसी भी स्तर पर अभद्र आचरण की किसी को कोई शिकायत हो.
मैं तो अपने करियर के मध्य में था, जब मुझे यह ख्‍याल आया कि मैं भी आईआईएम में अध्ययन करूं और यहां से कोई डिग्री हासिल करूं. लेकिन, जिसने भी सुना, उसी ने मुझे यह बात दिल से निकाल देने को कहा. आ़खिर अपनी जगह वे लोग भी ठीक ही थे. का़फी लंबे समय से पढ़ाई-लिखाई से मेरा जुड़ाव टूटा हुआ सा था. आईआईटी कानपुर से जब मैंने बीटेक किया था तो वह साल था 1989. उसके बाद 1992 से लगभग 17 सालों से भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी कर रहा था, जहां आम मान्यता के अनुसार पढ़ाई-लिखाई से बहुत कम ही वास्ता होता है. मतलब होता है तो स़िर्फ चोरों, बदमाशों और आपराधिक तत्वों से, जिनके मानमर्दन में ही हमारी सारी ऊर्जा लगी रहती है. स्वाभाविक है कि ऐसी स्थितियों में प्रत्येक शुभचिंतक को यही महसूस हो रहा था कि यदि मैं किसी प्रकार से कैट परीक्षा उत्तीर्ण करके आईआईएम चला भी जाऊं तो भी वहां मुझे बड़ी दिक्कत आएगी. पर मैंने भी मन में ठान लिया था कि जीवन के कुछ वर्ष इन मेधावी बच्चों के साथ अवश्य ही गुज़ारूंगा. कैट की परीक्षा दी, इंटरव्यू दिया और चयन होने पर अपनी सेवा से अवकाश लेकर यहां आ गया हूं. लगभग सात महीने से यहां हूं. परिवार भी यहीं साथ रहता है और मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि यहां मैं जो समय बिता रहा हूं, उसे अपने जीवन के सबसे अच्छे समय का हिस्सा मान रहा हूं.
यहां की जो बात मुझे सबसे अच्छी दिखती है, वह है प्रत्येक व्यक्ति की अपने कार्य के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना. प्रोफेसर की डेढ़ घंटे की क्लास होगी तो वह दिन भर इस काम के लिए लगा रहेगा. मन में यह भाव ज़रा भी नहीं होगा कि किसी तरह जाकर समय निकाल देना है और कच्चा- पक्का बोलकर चले आना है. उन डेढ़ घंटों में उनकी यह कोशिश होगी कि वे सारी बातें जो वे जानते हैं, अपने छात्रों को बता दें. और, स़िर्फ बता ही न दें, समझा भी दें. उसे पूरी तरह से आत्मसात करा दें. दूसरी महत्वपूर्ण बात यहां व्यवस्था की पारदर्शिता है. प्रत्येक छात्र को मालूम होगा कि उसके कितने अंक आए और क्यों आए. उन्हें कौन सा ग्रेड आएगा और आएगा तो उसके पीछे कारण क्या है. मैंने इतने समय में लड़कों को गाहे-बगाहे शिकायतें करते अथवा अपना कोई मलाल या गुबार निकालते तो देखा है, लेकिन अब तक यह सुनने को मेरे कान तरस रहे हैं कि कोई यह कहे कि टीचर ने उसे अंक देने में बेईमानी की है. मैं समझता हूं कि यदि यही स्थिति हमारी प्रत्येक राजकीय संस्थाओं में हो जाए और इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति का इन संस्थाओं के प्रति अक्षुण्ण विश्वास बन जाए तो यह हमारे देश के लिए सबसे बड़ी उपलब्धि होगी.
वर्तमान समय में मैं इन नौजवान और होनहार लोगों के बीच स्वयं को पाकर और इनका हिस्सा बनकर फूला नहीं समाता हूं. लेकिन, इससे भी बढ़कर यह सोचता हूं कि जब ये छात्र-छात्राएं यहां से उत्तीर्ण होकर बाहर निकलते हैं और कहीं कार्य शुरू करते हैं तो इनके कार्य की प्रकृति ऐसी हो, जिससे इनके स्वयं के लाभ एवं करियर के विकास के साथ देश-समाज को भी इनकी क्षमताओं और बुद्धि-ज्ञान का पूरा लाभ मिल सके. तभी तो किसी भी संस्थान की उपयोगिता सच्ची और सिद्ध मानी जाएगी.

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