सरकार को जानकारी है कि दिल्ली सरकार ईमानदारी और कुशलता से कार्य कर रही है. एक पार्टी के रूप में भाजपा ऐसा करने की अनुमति नहीं दे सकती. दिल्ली भाजपा की मजबूत पकड़ में थी. लोकसभा में भारी जीत के बाद भी दिल्ली को खोना, वह भी तब, जब स्वयं प्रधानमंत्री ने छह रैलियां संबोधित कीं, भाजपा के चेहरे पर एक तमाचे की तरह था. किरण बेदी को प्रोजेक्ट करना दिल्ली के मतदाताओं के लिए एक झटके जैसा था. बेदी को उन केजरीवाल के मुक़ाबले लाया गया था, जिन्होंने कहा था कि वह पुराना सिस्टम सा़फ करके प्रशासन के नए प्रतिमान देंगे. फिर बेदी का एक संदिग्ध प्रशासनिक रिकॉर्ड रहा है. मैं यह विश्वास करने को तैयार नहीं, फिर भी मानता हूं कि केंद्र सरकार को यह सूचना है कि केजरीवाल के नए प्रशासनिक प्रतिमान सफल हो सकते हैं.

morarka11यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि फरवरी में 67 सीटों के साथ निर्वाचित होने वाली दिल्ली सरकार को सामान्य ढंग से सरकार चलाने की अनुमति नहीं दी जा रही है. दिल्ली केंद्र शासित राज्य है, जहां लेफ्टिनेंट गवर्नर के ज़रिये केंद्र सरकार पुलिस और भूमि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर काबिज है. दरअसल, तकनीकी रूप से एलजी कुछेक यानी डीडीए चेयरमैन की नियुक्ति जैसे काम करता है. इस सबके अलावा अगर वह कुछ और अधिक करता है, तो इसका सीधा अर्थ है कि वह मुख्यमंत्री को परेशान करने की कोशिश कर रहा है. एक ऐसा मुख्यमंत्री, जो केंद्र सरकार की पार्टी से संबंध नहीं रखता है और केंद्र सरकार उसे सफल होते देखना पसंद नहीं करेगी. हास्यास्पद बात यह है कि मीडिया बिना किसी विश्लेषण के यह रिपोर्टिंग कर रहा है कि कोई काम नहीं हो रहा है. वह केजरीवाल का मज़ाक यह कहकर उड़ा रहा है कि उनकी सरकार ने सौ दिनों में क्या काम किए? सवाल यह है कि केजरीवाल को क्या करना चाहिए था? उन्होंने वादा किया था कि बिजली और पानी के शुल्क कम करेंगे. कम भी किया. कोई अन्य सरकार ऐसी कुशलता के साथ काम नहीं कर सकी है.
मैंने केजरीवाल की पार्टी के लिए वोट नहीं दिया. मैं दिल्ली का नागरिक भी नहीं हूं, दिल्ली का मतदाता नहीं हूं और न मुझे उनके बारे में ज़्यादा कुछ पता है. लेकिन, एक नई पार्टी को इतना बड़ा जनादेश मिला है, उसे काम करने का मा़ैका मिलना चाहिए. वह काम नहीं करेगी, तो जनता उसे बाहर का रास्ता दिखा देगी. लेकिन, केंद्र सरकार की घबराहट, प्रधानमंत्री या गृहमंत्री, एलजी के माध्यम से जो कर रहे हैं, वह सब एक अलग कहानी कहती है. सरकार को जानकारी है कि दिल्ली सरकार ईमानदारी और कुशलता से कार्य कर रही है. एक पार्टी के रूप में भाजपा ऐसा करने की अनुमति नहीं दे सकती. दिल्ली भाजपा की मजबूत पकड़ में थी. लोकसभा में भारी जीत के बाद भी दिल्ली को खोना, वह भी तब, जब स्वयं प्रधानमंत्री ने छह रैलियां संबोधित कीं, भाजपा के चेहरे पर एक तमाचे की तरह था. किरण बेदी को प्रोजेक्ट करना दिल्ली के मतदाताओं के लिए एक झटके जैसा था. बेदी को उन केजरीवाल के मुक़ाबले लाया गया था, जिन्होंने कहा था कि वह पुराना सिस्टम सा़फ करके प्रशासन के नए प्रतिमान देंगे. फिर बेदी का एक संदिग्ध प्रशासनिक रिकॉर्ड रहा है. मैं यह विश्वास करने को तैयार नहीं, फिर भी मानता हूं कि केंद्र सरकार को यह सूचना है कि केजरीवाल के नए प्रशासनिक प्रतिमान सफल हो सकते हैं. जाहिर है, ऐसा होता है, तो यह कांग्रेस और भाजपा दोनों के हित में नहीं होगा. इस वजह से आम आदमी पार्टी को कमतर करने की इस प्रक्रिया में कांग्रेस पार्टी भाजपा के साथ है.
मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को इस मामले में स्वत: संज्ञान लेना चाहिए और दोनों पक्षों को चुप रहने के लिए कहना चाहिए. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की टिप्पणी पर स्टे देने से मना कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने चतुराई से काम किया. वह समझता है कि मामला क्या है. सुप्रीम कोर्ट दो शक्तियों के बीच के अंतर को समझता है. नजीब जंग के पास दो अधिकार हैं, एक बाहैसियत एलजी और एक राज्यपाल के रूप में. आप चुनाव के लिए कॉल कर सकते हैं, सरकार को बर्खास्त कर सकते हैं, आदि. लेकिन यह उस वक्त होता है, जब राज्य का शासन तंत्र बिल्कुल विफल हो जाता है और सरकार संविधान के अनुरूप नहीं चलती है. लेकिन यहां मुझे अ़फसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि एक ही व्यक्ति क्लर्क से लेकर चीफ सेक्रेटरी तक की नियुक्ति कर रहा है. यह अधिकार भारत के राष्ट्रपति और दूसरे राज्यों के गवर्नर के पास भी है, लेकिन ये केवल तकनीकी बातें हैं. यह सब आम तौर पर मंत्रि परिषद की सलाह से ही होता है. मैं नहीं समझता कि गृह मंत्रालय, जाहिर है कि राजनीतिक और संदिग्ध कारणों से, एक सर्कुलर जारी करता है, जिसे मैं आशा करता हूं कि सुप्रीम कोर्ट खारिज कर देगा. केंद्र सरकार ने अपने कार्यकाल का केवल एक साल पूरा किया है, उसके पास चार साल का कार्यकाल और है. लेकिन पता नहीं, वह ऐसे छोटे मामलों में क्यों उलझ रही है? उसे अपने वादों को पूरा करने पर ध्यान देना चाहिए.
राष्ट्रीय परिदृश्य पर आएं, तो सबसे पहले सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना पद्धति बदल दी गई है. ऐसा करने पर वे एक चौंकाने वाले निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि देश ने वित्तीय वर्ष 2014-15 में 7.4 प्रतिशत की दर से वृद्धि की है. इसके बाद वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि यदि यह वृद्धि 7.4 प्रतिशत है, तो पिछले वर्ष की वृद्धि का नई प्रणाली के अंतर्गत आकलन करने पर वह 6.9 प्रतिशत होगी. इस आधार पर यूपीए सरकार के कार्यकाल का आ़िखरी साल आर्थिक दृष्टि से खराब नहीं था. कोई यह नहीं कह सकता है कि वह बहुत अच्छा था या बहुत खराब. इस तरह की पैंतरेबाजी से सरकार और अर्थव्यवस्था दोनों को ़फायदा नहीं होगा. ज़रूरत इस बात की है कि सरकार अपना ध्यान नीतिगत निर्णयों पर केंद्रित करे. मुझे नहीं लगता है कि रिजर्व बैंक, वित्त मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के बीच तालमेल है. रिजर्व बैंक को लगता है कि ब्याज दरों में अभी कमी करना जल्दबाजी है और जोखिम भरा है, लेकिन वित्त मंत्रालय चाहता है कि रिजर्व बैंक ब्याज दरों में कटौती करे. प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया कार्यक्रम को अपना मुख्य अभियान बनाया है. आप तब तक देश में निर्माण नहीं कर सकते हैं, जब तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) नहीं होगा.
अभी लोग केवल शेयर बाज़ार अथवा वित्त बाज़ार में पैसा लगाने के लिए भेज रहे हैं, जहां उन्हें आठ प्रतिशत का लाभ होगा. वे यहां पैसा इसलिए लगा रहे हैं, क्योंकि यहां ब्याज की दर अन्य देशों की तुलना में अधिक है और वे अपना पैसा वापस ले जा सकते हैं. यदि आप चाहते हैं कि लोग अपना पैसा मैन्युफैक्चरिंग में लगाएं, तो बहुत-से क़दम उठाने की आवश्यकता है. दलाली वाले व्यापार को कम आकर्षक बनाना चाहिए. व्यापार करने में आसानी की बात वित्त मंत्री हमेशा करते हैं, लेकिन इसके लिए सरकार ने अब तक एक धारा या क़ानून में किसी भी तरह के बदलाव नहीं किए हैं. वास्तव में आयकर अधिकारी वित्त मंत्रालय को हास्यास्पद आयकर रिटर्न फॉर्म लाकर शर्मिंदा कर रहे हैं. हालांकि, उन्होंने इसमें फिर से सुधार करने का वादा किया है. मुझे लगता है कि यदि वित्त मंत्री क़ानूनों को आसान बनाना चाहते हैं, तो निश्चित रूप से वह विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम-1973 जैसे क़ानूनों को बदलना चाहते हैं, जो कि कठोर हैं और जिनका इस्तेमाल नागरिकों, व्यापारियों, उद्योगपतियों को परेशान करने और पैसे बनाने के लिए नौकरशाह करते रहे हैं. यदि इन क़ानूनों का यही उद्देश्य है, तो मुझे लगता है कि हम बिल्कुल सही दिशा में जा रहे हैं. ये सभी क़ानून अजीब हैं और नौकरशाही की मदद के लिए हैं. एक भी नियम इतना पारदर्शी नहीं बनाया गया कि उद्यमियों को नौकरशाहों के पास न जाना पड़े. मुझे अ़फसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि जब तक आप ऐसा नहीं करेंगे, तब तक व्यापार करने में आसानी नहीं होगी. एशियाई देशों में विदेशी मुद्रा आएगी, श्रीलंका में आएगी, फिलीपींस में आएगी, हमारे पड़ोसी देशों में आएगी, लेकिन यहां नहीं आएगी. मैं कह नहीं सकता कि प्रधानमंत्री नौकरशाहों के संपर्क में हैं, लेकिन यह एक परीक्षा है, क्योंकि नौकरशाह उदारीकरण करते वक्त उस सीमा को नहीं लाघेंगे, जहां उनकी अहमियत कम हो जाए. वे कतई नहीं चाहेंगे कि उनकी अहमियत कम हो.
प्रधानमंत्री पूर्व नौकरशाहों या उदारवाद की पैरवी करने वाले नौकरशाहों की एक टीम गठित करें और उसे ये मामले सौंप दें. अन्यथा मुझे लगता है कि क़ानूनों में संशोधन की सामान्य प्रक्रिया से कुछ हासिल नहीं होगा. विदेशियों का नज़रिया टाइम्स और इकोनॉमिस्ट मैग्जीन में प्रकाशित लेखों से साबित होता है कि नरेंद्र मोदी मॉडल दे सकते हैं, सुधार नहीं कर सकते हैं. सुधार बिल्कुल अलग चीज है, जिसके लिए एक अलग सोच की आवश्यकता होती है. वह आधुनिकीकरण करना चाहते हैं, बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी बड़ी योजनाएं लाना चाहते हैं. लेकिन, दूसरा पहलू क़ानूनों में बदलाव की पहल है, न केवल विदेशी उद्यमियों के लिए, बल्कि घरेलू उद्यमियों के लिए भी. इस पहलू पर अभी तक काम नहीं किया गया है. हमें आशा करनी चाहिए कि सरकार अपने दूसरे साल में इस दिशा में कुछ काम करेगी.

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here