जंगलों में रह रहे आदिवासियों को बार-बार विस्थापन के रूप में विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है. विकास को लेकर लोगों के अपने-अपने तर्क हैं. विकास है, तो विस्थापन भी होगा. भूगर्भ में छिपे खनिज संसाधनों और उद्योग-धंधों के विस्तार के लिए बड़े-बड़े भूखंडों की जरूरत है. सबसे ज्यादा खनिज संसाधन जंगलों में ही छिपे हैं. यही बात आदिवासियों के लिए दुर्भाग्य बन गयी है. ये आज तक इसलिए संरक्षित रहे, क्योंकि सदियों से आदिवासी समाज इन प्राकृतिक संसाधनों का रक्षक बना रहा है. अगर ये भी लुट गए, तो फिर आगे क्या…

landमध्यप्रदेश में बैतूल क्षेत्र में कुछ महीनों से हेलिकॉप्टर आदिवासी क्षेत्रों और जंगलों के ऊपर मंडरा रहे हैं. उनमें कुछ मशीनें रखी हैं, जो इस क्षेत्र में यूरेनियम की खोज करने के लिए रेडियो एक्टिव तरंगों को पकड़ने की कोशिश कर रही हैं. वहीं आदिवासियों की जमीनों पर भारी-भरकम ड्रिलिंग मशीनें खुदाई के काम में जुटी हैं. कोचामऊ गांव के कल्ला और बल्ला बताते हैं कि शुरू में तो उन्हें समझ में नहीं आया कि ये अधिकारी उनके खेतों में क्या कर रहे हैं? आखिर कुछ लोग हिम्मत जुटाकर अधिकारियों के पास पहुंचे और उनसे पूछा कि आप हमारे खेतों में गड्ढा क्यों खोद रहे हैं? अधिकारियों ने टरकाने के अंदाज में उनसे कहा कि वे जमीन के नीचे पानी खोज रहे हैं.

लेकिन जब आदिवासी अपनी जमीन छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुए, तब उन्होंने सरकारी काम में बाधा डालने का आरोप लगाकर उन्हें डराना-धमकाना चाहा. जब फिर भी वे डटे रहे, तब उन्होंने कहा कि आप हमारे अधिकारियों से बात कर लो. अगर वे मना करते हैं, तो हम चले जाएंगे. मंगल कल्ला कहते हैं कि जमीन हमारी है या सरकार की.

जब तक हम जोत रहे हैं, हमारी जमीन हमसे कोई नहीं छीन सकता. भारी-भरकम मशीनों के जरिए एक हजार हेक्टेयर में यूरेनियम संभावित क्षेत्रों में खुदाई की जा रही है. आदिवासियों के खेतों में खड़ी फसलें मशीनों द्वारा जगह-जगह की गई खुदाई से बरबाद हो गई हैं. आदिवासी महिलाओं को जंगलों में जाने से रोक दिया गया है. वनोत्पाद को औने-पौने दामों में बाजार में बेचकर वे अपने परिवार का पेट भरती हैं. जंगलों की लकड़ियों से ही उनके घरों में चूल्हा जलता है. खेती और वनोपज ही आदिवासियों की जीविका का एकमात्र साधन है. गांव के पास से बहने वाली एक नदी की धारा को भी मोड़ दिया गया है, जिससे ग्रामीणों को पेयजल और फसलों की सिंचाई में परेशानी हो रही है.

वहीं इन बातों से अनजान अधिकारी सिर्फ इससे खुश हैं कि यदि यहां यूरेनियम मिल गया, तो बैतूल दुनिया भर में चर्चा के केंद्र में आ जाएगा. आदिवासियों की पीड़ा को न केंद्र और राज्य सरकार समझ रही है और न ही स्थानीय प्रशासन. अभी तो आदिवासियों को केवल जंगल और उनके खेतों में जाने से रोका गया है, यूरेनियम मिलने पर 13 गांवों के 4000 से अधिक लोगों को पलायन का दंश झेलना होगा. ये गांव  खापा, झापड़ी और कच्चर इन तीन पंचायतों के अंतर्गत आते हैं. यहां की अधिकतर आबादी कोर्कू और गौंड जनजातियों की है. विवाद तब शुरू हुआ, जब सरकारी अधिकारियों ने आदिवासी महिलाओं को जंगल से लकड़ियां लाने और उनके खेतों में जाने से रोक दिया.

मंगल कल्ला बताते हैं कि इन अधिकारियों ने हमारी फसलों और जंगलों को तहस-नहस कर दिया है. इससे पहले 1971 में भी केसला ब्लॉक में टेस्ट फायरिंग रेंज बनाने के लिए 23 गांवों के एक हजार से अधिक लोगों की जमीन छीन ली गई थी, जिसमें मात्र 600 लोगों को जमीन दी गई, बाकी लोग बेघर हो गए. फागराम बताते हैं कि उनके पास छह हेक्टेयर जमीन थी, लेकिन अब वे बेघर हैं. एक बार फिर उन्होंने किसी तरह जीना शुरू किया है, अब ये अधिकारी फिर हमें उजाड़ने आ गए हैं. इस बार वे किसी भी कीमत पर अपनी जमीन नहीं छोड़ेंगे.

श्रमिक आदिवासी संगठन के अनुराग मोदी बताते हैं कि आ़ेडीशा के नियामगिरी में बॉक्साइट के खनन पर सुप्रीम कोर्ट ने 2013 में रोक लगा दी थी, क्योंकि माइनिंग कॉर्पोरेशन ने खनन के लिए ग्राम सभा की मंजूरी नहीं ली थी. जब 12 ग्राम सभाओं ने मंजूरी नहीं दी, तब माइनिंग कॉर्पोरेशन को खनन बंद करना पड़ा था. जबकि यहां जुलाई 2016 से ही कई गांवों में परमाणु खनिज निदेशालय से मंजूरी के बिना आदिवासियों की निजी जमीन, खेत और जंगल में खनन कार्य हो रहे हैं. इसके लिए न तो ग्राम पंचायत की परमिशन ली गई और न ही आदिवासियों की जमीन पर खुदाई से पहले उन्हें कोई जानकारी दी गई.

खनन क्षेत्र के आस-पास कोई नोटिस बोर्ड भी नहीं लगा है. सरकारी अधिकारी खनन-कार्य में पूरी गोपनीयता बरत रहे हैं. अब ग्रामीण भी खनन-कार्यों का विरोध करने के लिए एकजुट होने लगे हैं. उन्होंने चेतावनी दी है कि ग्राम सभा व उनकी मंजूरी के बिना क्षेत्र में यूरेनियम की खोज नहीं करने देंगे. जुलाई 2017 में आदिवासियों ने यूरेनियम खनन के विरोध में एक बड़ी रैली निकाली. वे अपने खेतों को घेरकर खड़े हो गए. मजबूरी में अधिकारियों को मशीनें लेकर वापस लौटना पड़ा. ग्रामीणों ने इसके विरोध में कलेक्टोरेट में ज्ञापन भी दिया था.

उत्तर वन मंडल के वन मंडल अधिकारी संजीव झा बताते हैं कि परमाणु खनिज अन्वेषण एवं अनुसंधान निदेशालय (एएमडीईआर) को इस क्षेत्र में यूरेनियम के भंडार की जानकारी मिली थी. इसके बाद जिले के शाहपुर वन क्षेत्र की 989.076 हेक्टेयर क्षेत्र में यूरेनियम के खोज की अनुमति दी गई. यह क्षेत्र सतपुड़ा टाइगर रिजर्व व कॉरीडोर के निकट है. बैतूल में खनन कार्य के लिए 10 अलग-अलग स्थान की पहचान की गई है.

हालांकि वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि निदेशालय से सर्वे का प्रस्ताव मिलने के बाद इसे राज्य सरकार को भेजा गया था, जहां से खोज की अनुमति मिलने के बाद ही खनन कार्य शुरू किया गया है. वहीं बैतूल के डीसी शशांक मिश्रा बताते हैं कि उन्हें इन क्षेत्रों में खनन कार्यों के बारे में कोई आधिकारिक सूचना नहीं मिली है. खापा पंचायत के ग्रामीणों द्वारा 20 अप्रैल को सौंपे गए ज्ञापन के बारे में भी उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर करते हैं. खनन और भूतत्व विभाग के निदेशक विनीत आस्टिन भी बताते हैं कि उन्हें इस क्षेत्र में खनन कार्य के बारे में कोई जानकारी नहीं है. लेकिन उनका मानना है कि केंद्र सरकार को राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन से ऐसे खनन कार्यों के लिए किसी अनुमति की जरूरत नहीं पड़ती है.

एएमडीईआर के क्षेत्रीय निदेशक ओपी यादव भी बताते हैं कि खोजपरक खनन कार्यों के लिए समुदायों की सहमति आवश्यक नहीं है. हां, माइनिंग साइट तय हो जाने के बाद ग्राम पंचायतों की सहमति जरूरी होती है. दूसरी तरफ, एएमडीईआर के अधिकारी खनन कार्यों की अनुमति के लिए खापा पंचायत के सरपंच का 14 अप्रैल, 2016 को हस्ताक्षर किया हुआ एक कागज दिखाते हैं. इसमें 200 मीटर के दायरे में ड्रिलिंग और खोजपरक कार्यों की अनुमति दी गई है. मंगला कल्ला बताते हैं कि एक सरपंच की सहमति दिखाकर सरकारी अधिकारी आस-पास के पंचायतों में भी गैर कानूनी तरीके से खनन-कार्य जारी रखे हैं. इसके लिए दो-तिहाई ग्रामीणों की सहमति जरूरी है, जबकि हस्ताक्षरयुक्त कागजात में सिर्फ 10 ग्रामीणों का ही नाम है.

आदिवासी हितों के संरक्षण के लिए कई संवैधानिक प्रावधान हैं. पांचवी और छठी अनुसूचियां राज्यपालों को विशेष शक्तियां प्रदान करती हैं, इसके बावजूद उनका शोषण बदस्तूर जारी है. 1996 में पारित पेसा कानून पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया ग्राम सभा को यह अधिकार देता है कि बिना उनकी अनुमति के आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है. वहीं 2006 का वन अधिकार कानून आदिवासियों को जंगल की भूमि पर निवास करने और वनोपजों पर एकाधिकार की मंजूरी देता है.

आदिवासियों की बदनसीबी कहें कि जिस जंगल में वे रहते हैं, वहां धरती लोहा, बॉक्साइट, यूरेनियम आदि खनिज पदार्थों को अपने गर्भ में छिपाए है. यही कारण है कि विकास की सबसे अधिक मार इन आदिवासियों को ही झेलनी पड़ रही है. आजादी के बाद से अब तक विकास के नाम पर किसानों की करीब 5 करोड़ एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया गया है, जिसमें अधिकतर जमीन आदिवासियों की ही है. आदिवासियों के नाम पर जितनी धनराशि का आवंटन सरकारों ने किया है, अगर उसका अगर एक अंश भी उनपर खर्च हो जाता, तो हालात इतने बदरंग नहीं होते. दुर्भाग्य है कि इस धनराशि से नेताओं और सरकारी अधिकारियों का खूब विकास हुआ और आदिवासी अपने हाल पर छा़ेड दिए गए. आज ये आदिवासी खुद  को नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.

क्यों जरूरी है यूरेनियम की खोज

यूरेनियम का इस्तेमाल परमाणु बम बनाने और बिजली उत्पादन में होता है. भारत सरकार ने मई 2017 में देश भर में 10 न्यूक्लियर पावर प्लांट लगाने की मंजूरी दे दी है. अभी देशभर में 22 न्यूक्लियर पावर रिएक्टर हैं, जिनसे 3 प्रतिशत बिजली की आपूर्ति होती है. सरकार का लक्ष्य 2050 तक इसे बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक करना है. भारत के पास इस समय दुनिया में मौजूद कुल यूरेनियम का मात्र 4 प्रतिशत भंडार मौजूद है. इसे देखते हुए झारखंड, ओड़ीशा, मध्यप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ सूरजपुर तथा राजनांदगांव और मेघालय में यूरेनियम भंडार की खोज हो रही है. आंध्रप्रदेश के तम्मलपल्ली और झारखंड के जादूगोड़ा में यूरेनियम की बड़ी खदानें हैं. जादूगोड़ा (झारखंड) में 1967 से ही खनन कार्य जारी है. यहां से चार किमी की दूरी पर भातिन में यूरेनियम की दूसरी खदान है. जादूगोड़ा से ही 24 किलोमीटर दूर तुरामदिन में भी यूरेनियम मिला है.

एनएसजी की दादागीरी पर भारत की चाल

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विदेश दौरों का एक मकसद यह भी होता है कि भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप में शामिल कर लिया जाए. परमाणु रिएक्टर के लिए यूरेनियम के निर्यात पर अभी एनएसजी के सदस्य देशों का नियंत्रण है. इन्हीं कारणों से भारत अपने यहां यूरेनियम खदानों की खोज पर जोर दे रहा है. परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष डॉ. शेखर बसु ने भी यूरेनियम संवर्धित परमाणु रिएक्टर्स के विस्तार पर जोर दिया है.

थोरियम है देश का परमाणु ईंधन

दुनिया भर में उपलब्ध थोरियम का एक चौथाई भंडार भारत के पास है. नार्वे के अलावा किसी भी यूरोपियन देश में थोरियम का भंडार नहीं है. ईयू देशों को इस बात का डर है कि इससे यूरेनियम पर आधारित परमाणु रिएक्टरों पर उनकी दादागीरी खत्म हो जाएगी. यूरोपीय परमाणु अनुसंधान संगठन के सहयोग से 1999 में थोरियम रिएक्टर पर काम शुरू हुआ था. जैसे ही रिएक्टर शुरू होने की संभावना दिखी, ईयू ने इस परियोजना की फंडिंग पर रोक लगा दी. थोरियम पर आधारित रिएक्टर्स के लिए ईयू और अमेरिका जैसे देशों का वैज्ञानिक और तकनीकी सहयोग जरूरी है. लेकिन उन्हें डर है कि इससे यूरेनियम पर उनका एकाधिकार खत्म हो जाएगा और उनके धंधे में मंदी आ जाएगी. ईयू और विकसित देशों को इस बात का भी डर है कि ऐसा होने पर भारत प्रमुख थोरियम सप्लायर देश बन जाएगा. यही कारण है कि ये देश भारत की मदद के लिए तैयार नहीं हैं. परमाणु वैज्ञानिक बताते हैं कि अगर दुनिया को बचाना है तो हमें थोरियम आधारित रिएक्टर्स पर जोर देना होगा. इसमें प्रति इकाई यूरेनियम से 250 गुना ज्यादा ऊर्जा होती है और इससे निकला कचरा कहीं कम रेडियोधर्मी होता है.

दूसरे भोपाल त्रासदी की ओर बढ़ रहा देश   

झारखंड के जादूगोड़ा स्थित यूरेनियम खदान को लेकर अमेरिकी समाचार एजेंसी ने रेडियोएक्टिव और जहरीले तत्व लीक होने की खबर प्रकाशित की थी.रिपोर्ट में इस बात का जिक्र था कि इस इलाके के आम जन, नदियां, जंगलों और खेती पर भी विकिरण का असर हो रहा है. रिपोर्ट में भारत के परमाणु प्रतिष्ठान पर आरोप लगाया गया कि रेडिएशन के खतरों की अनदेखी कर इन इलाकों में खनन कार्य किए जा रहे हैं. झारखंड विधानसभा में भी यूरेनियम खदानों से 160 प्रतिशत अधिक विकिरण का मामला उठा. विधायकों ने कहा कि अगर इस पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया, तो यह देश में दूसरी भोपाल त्रासदी को जन्म दे सकता है. जादूगोड़ा के फोटोग्राफर आशीष बिरूली यूरेनियम विकिरण से प्रभावित लोगों की तस्वीरें खींच लोगों को जागरूक करते हैं. संथाली में वे कहते हैं जादूगोड़ा उनू मो ताना यानी जादूगोड़ा डूब रहा है, उसे बचा लो. इलाके में विकिरण से प्रभावित मासूमों की तस्वीरें देखकर लोगों की आंखें भर आती हैं, लेकिन उनकी यह मार्मिक अपील गूंगे-बहरे सरकारी अधिकारियों तक शायद ही पहुंचेे. राजस्थान के झुंझनु में यूरेनियम खोज को लेकर खेतों में ड्रिलिंग की गई थी. स्थानीय विधायक शुभकरण चौधरी ने बताया कि क्षेत्र में यूरेनियम की खोज के लिए करीब 113 बोरवेल खोदे गए. इसके लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की मंजूरी भी नहीं ली गई. इन बोरवेल के कारण जमीन का पानी जहरीला हो गया है, जिससे आमजन से लेकर पशु व फसलों को भी नुकसान हो रहा है.

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