बिहार में इन दिनों जातियों को अपने पाले में लाने के ख्याल से राजनीतिक दलों की सक्रियता खूब बढ़ी है. कांग्रेस सूबे की अगड़ी जाति के समूहों को अपने साथ गोलबंद करने में जुटी है. बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की जयंती के नाम पर पटना में आयोजित कांग्रेसी कार्यक्रम उसी की एक कड़ी है. सत्तारूढ़ एनडीए का सबसे बड़ा घटक जनता दल (यू) दलितों और अतिपिछड़ों को गोलबंद करने की जी-तोड़ कोशिश में लगा है. जद (यू) ने इस काम के लिए अलग-अलग टीमों को सूबे में उतार दिया है, जिनकी अगुआई नौकरशाह से राजनेता बने आरसीपी सिंह कर रहे हैं.
ऐसे और इन जाति-केंन्द्रित प्रत्यक्ष कार्यक्रमों के अलावा कुछ और कार्यक्रम भी चल रहे हैं. इनके जरिए आसन्न चुनावी मौसम में जातियों की नब्ज टटोलने की कोशिश हो रही है. अपने वोटरों को गोलबंद करने के लिए भाजपा बूथ स्तर के अपने कार्यकर्ताओं को व्यापक व सघन प्रशिक्षण के साथ-साथ कुछ चिह्नित सामाजिक समूहों में पार्टी के पैठ व विस्तार की कोशिश कर रही है. जद (यू) अपने नव नियुक्त राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर की देखरेख में युवा-छात्र कार्यकर्ताओं की टोली तैयार कर रहा है. तेजस्वी प्रसाद यादव संविधान बचाओ न्याय यात्रा पर चल रहे हैं और इस चरण में वे सूबे के 12 जिलों का दौरा करेंगे.
एनडीए के अन्य दो घटक दल लोजपा व रालोसपा अपने हिसाब से सक्रिय तो जरूर होंगे, पर कहीं दिखते नहीं हैं. महागठबंधन का तीसरा घटक ‘हम’ कोई कार्यक्रम चला रहा है, लगता नहीं है. वस्तुतः इन दलों को संसदीय चुनाव में सीटों के बंटवारे में अपनी हिस्सेदारी में अधिक रुचि दिखती है, बनिस्बत राजनीतिक-प्रभाव विस्तार में.
यह तो निस्संदेह कहा जा सकता है कि प्रशांत किशोर के छात्र-युवा कार्यकर्त्ताओं की टोली तैयार करने या तेजस्वी प्रसाद यादव की संविधान बचाओ न्याय यात्रा या भाजपा के बूथ-स्तरीय कार्यक्रम आदि अभियान में परोक्ष तौर पर जाति केंन्द्रित राजनीति कहीं दिख नहीं रही है, लेकिन राजनीति की गति को समझना इतना ही आसान होता तो वोटर मात क्यों खाता! राजनीति में जो दिखता है, वह होता नहीं है. सो ऐसे अभियानों का असली मकसद जानने के लिए हमें अभी इंतज़ार करना होगा.
अवसर की तलाश में कांग्रेस
बिहार केसरी डॉ. श्रीकृष्ण सिंह की जयंती के अवसर पर पटना में महागठबंधन के नेताओं का अच्छा-खासा जमावड़ा हुआ. कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य डॉ. अखिलेश सिंह की ओर से आयोजित इस कार्यक्रम में महागठबंधन के सभी दलों के नेता शामिल हुए. श्री बाबू को याद करने के लिए अखिलेश सिंह हर साल ऐसा आयोजन करते हैं. इसके जरिए पार्टी नेतृत्व को अपनी राजनीतिक ताकत का अहसास कराना उनकी मंशा होती है. इसमें वे किस हद तक कामयाब रहे, यह कहना तो कठिन है.
बिहार कांग्रेस अभियान समिति के प्रमुख अखिलेश सिंह के इस आयोजन में प्रदेश कांग्रेस के चार में से किसी कार्यकारी अध्यक्ष ने शिरकत नहीं की. इतना ही नहीं, विधान मंडल में पार्टी के नेता सदानंद सिंह भी इससे दूर ही रहे. लेकिन अखिलेश सिंह के लिए संतोष (खुशी भी कह सकते हैं) की बात यह रही कि कांग्रेस के महासचिव और बिहार के प्रभारी शक्तिसिंह गोहिल समारोह में निरन्तर मौजूद रहे. उनके साथ-साथ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मदनमोहन झा भी रहे. लालू प्रसाद के राजनीतिक उत्तराधिकारी तेजस्वी प्रसाद यादव और पूर्व मुख्यमंत्री व हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के प्रमुख जीतनराम मांझी की मौजूदगी भी अखिलेश सिंह के लिए कम महत्वपूर्ण नहीं रही.
यह बताने की जरूरत नहीं कि श्री बाबू के नाम पर कांग्रेस की यह कवायद क्यों महत्व का मुद्दा है या अतिपिछड़ों व दलितों को गोलबंद करने का जद (यू) का अभियान किस हद तक उसके लिए उपयोगी है या नए चिह्नित सामाजिक समूहों में भाजपा की पैठ की प्रत्यक्ष-परोक्ष कोशिश के पीछे कौन सी राजनीति काम कर रही है. यह बताने की भी बहुत जरूरत नहीं रही है कि तेजस्वी प्रसाद यादव ‘माय’ के साथ किन सामाजिक समूहों को जोड़ने की कोशिश में हैं.
इन बातों को हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं के आलोक में देखने पर बातें साफ हो जाती हैं. एससी/एसटी कानून में हाल ही अध्यादेश के जरिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के विपरीत केंद्र सरकार द्वारा किए गए बदलाव से खासकर हिन्दी-पट्टी का सवर्ण समाज काफी उत्तेजित है. इस मसले पर आंदोलन चल रहे हैं. बिहार में पिछले दशकों में अगड़े समाज की जातियां भाजपा से जुड़ी रही हैं. अब ये जातियां सरकार के विरोध में सड़क पर आ गई हैं.
कांग्रेस बिहार की ऊंची जातियों में फिर से अपनी पकड़ बनाने के लिए इस अवसर को काफी अनुकूल पा रही है. हालांकि अखिलेश सिंह व कुछ और भूमिहार नेता श्री बाबू को उनकी जयंती के अवसर पर निरंतर याद करते रहे हैं, पर इस बार जिस तर्ज पर समारोह आयोजित किए गए, वह खास राजनीतिक मकसद को तो इंगित करता ही है.
दलितों-पिछड़ों पर सबकी नज़र
एनडीए से नाराज दलितों को मनाने के भाजपा के प्रयास का कोई सकारात्मक नतीजा अब तक दिख नहीं रहा है. बिहार में दलित वोटरों पर भाजपा का जुड़ाव कभी सघन नहीं रहा है, पर दलितों के एक तबके पर रामविलास पासवान का गहरा असर है. करीब 13 वर्षों के अपने शासन काल में नीतीश कुमार इन समूहों के लिए काफी कुछ करने की बात कह रहे हैं, उन्होंने किया भी है.
इन समूहों का लगाव नीतीश कुमार की राजनीति से रहा है. लेकिन जीतनराम मांझी प्रकरण के बाद इसमें क्षरण हुआ है और अनेक महादलित समूहों पर मांझी का प्रभाव दिख रहा है. सो, नीतीश कुमार को इन वोटरों को गोलबंद करने के लिए मशक्कत करनी पड़ रही है. उनके इस अभियान के दो मकसद हैं. पहली तो उन्हें जद (यू) के साथ एकजुट करना और दूसरा, मांझी के असर को खत्म करना. जद (यू) सूत्रों पर भरोसा करें, तो महीनों से जारी अभियान के बावजूद यह कहना कठिन है कि वे नीतीश के साथ खड़े हो गए हैं.
बिहार की मौजूदा राजनीति में सूबे के करीब 40 प्रतिशत अतिपिछड़े वोटरों की पहली पसंद नीतीश कुमार ही हैं, पर यह भी सही है कि मांझी के उदय के बाद अतिपिछड़ों में भी अति विपन्न उनसे सहानुभूति रखने लगे हैं. इन समाजिक समूहों में लालू प्रसाद की वक़त अब भी बनी हुई है. तेजस्वी अपनी मौजूदा यात्रा के दौरान इस मोर्चे पर भी ध्यान देंगे.
जद (यू) की परेशानी यह भी है कि उसके नेतृत्व की सामाजिक संरचना में अतिपिछड़ों की भागीदारी कतई उल्लेखनीय नहीं है. एनडीए का दूसरा बड़ा घटक भाजपा भी इन सामाजिक समूहों में पैठ बनाने की कोशिश कई वर्षों से कर रहा है. इस बार उसे भी कुछ न कुछ हासिल होने की उम्मीद दिखती है. ऐसे में इन सामाजिक समूहों के वोट का कितना हिस्सा कौन पाएगा, यह कहना कठिन है.
कुशवाहा का इम्तिहान
मंडलवादी राजनीति के ख्याल से बिहार में कुशवाहा समाज की अनदेखी नहीं की जा सकती है. सूबे में इस समाज के करीब छह प्रतिशत वोटर हैं और इनका फैलाव राज्य के हर कोने में है. दो दर्जन से अधिक विधानसभा सीटों की जीत-हार में इस सामाजिक समूह की भूमिका बड़ी होती है. पर इसके साथ यह भी सही है कि यादव व कुर्मी जैसी पिछड़ी जातियों की तरह इसमें कोई ऐसा नेता फिलहाल नहीं दिखता है, जिसका प्रभाव व्यापक हो.
इसमें अति महत्वाकांक्षी नेताओं की भरमार है, पर सामर्थ्य-वान राजनेता की कमी है. हालांकि राष्ट्रीय लोक समता पार्टी खुद को इस समाज की अघोषित प्रवक्ता और इसके सुप्रीमो उपेन्द्र कुशवाहा खुद को इस समुदाय का नेता बताते हैं. उनके इस दावे की अब तक पुष्टि नहीं हुई है. आसन्न संसदीय और अगले विधानसभा चुनावों में इसका भी खुलासा हो जाएगा. पर इतना तो सही है कि फिलहाल कुशवाहा समाज में उन्हें काफी गंभीरता से लिया जा रहा है.
उनका नारा है, ‘बिहार में कुशवाहा मुख्यमंत्री क्यों नहीं?’ यह बताने की कोई जरूरत नहीं है कि वो किसे मुख्यमंत्री की कुर्सी पर देखना चाहते हैं, पर उनका यह नारा जमीन पकड़ रहा है. यही कारण है कि बिहार एनडीए के दो बड़े नेताओं की इच्छा के विपरीत अमित शाह उन्हें गठबंधन में बनाए रखना चाहते हैं. उन्हें लेकर महागठबंधन का आकर्षण भी शायद इसी वजह से है. इतना होने के बावजूद, उपेन्द्र कुशवाहा के मतदान को प्रभावित करने- अर्थात वोट हासिल करने व उसके ट्रांसफर की क्षमता की अभी परख होनी है. आसन्न संसदीय चुनाव में यह भी हो जाएगा, चाहे वे जिस गठबंधन में रहें.
सब जाति के सहारे
जाति वोट हासिल करने का ऐसा हथियार है, जिसकी निंदा हर रंग की राजनीति करती है, पर वोट हासिल करने के लिए इसका सहारा लेने से कोई बाज भी नहीं आती. सो, जाति की राजनीति को पोषित-पालित करने का उपाय सभी राजनीतिक दल इस चुनाव से उस चुनाव तक अनवरत करते हैं. चुनाव की आहट के साथ जातीय गोलबंदी के लिए रैलियों से लेकर विचार गोष्ठी तक खुलकर होने लगती हैं. बिहार में फिलहाल यही हो रहा है, पर थोड़े बदलाव के साथ. डेढ़-दो दशक पहले तक बिहार में जातियों की बड़ी-बड़ी रैलियां होती थीं. ऐसी रैलियों की शुरुआत का सेहरा राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद के सर जाता है. पर कोई दल इसमें पीछे नहीं रहा है. मंडल बनाम कमंडल के उत्तेजक राजनीतिक दौर में पहला संसदीय चुनाव 1991 में और विधानसभा चुनाव 1995 में इस राज्य में हुए थे. इस दौरान बिहार की राजनीति में महत्व रखने का दावा करनेवाले सभी दलों (या उनके नेता) ने ऐसी रैलियों का आयोजन किया या करवाया था.
इसमें वे भी थे जो जाति के नाम पर कुछ न करने का दावा करते हैं और वे भी जो घोषित रूप से जाति-समूहों का नाम लेते हैं. उसी दौर में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद ने मुस्लिम+यादव समीकरण तैयार किया, जो अब भी उनकी पूंजी है. उसी दौर में जनता दल (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार ने (तब की समता पार्टी के नेता के तौर पर) लव+कुश (गैर यादव पिछड़ी जातियों कुर्मी व कुशवाहा) समीकरण तैयार करने की कोशिश की थी, जो कुछ चुनावों तक चला.
उन्हीं वर्षों में भाजपा ने कांग्रेस की राजनीति और उसके मंडलवाद से दुखी बिहार की दो प्रमुख अगड़ी जातियों (ब्राह्मण व भूमिहार) में मजबूत पैठ बनाई और उसने इन दो जातियों के साथ वैश्यों का समीकरण तैयार किया था. इसी दौर में वामपंथी दलों का तीव्र क्षरण हुआ और इसी दौर में कांग्रेस सामाजिक समीकरण के नाम पर बेलल्ला हो गई.
वस्तुतः मंडल बनाम कमंडल के उत्तेजक माहौल के बाद सूबे की राजनीति का समाजिक परिदृश्य पूरी तरह बदल गया. जो दौर आया वह जातियों के अपनी राजनीतिक पार्टियों के साथ खुलकर व मजबूती से दिखने का था और इसी दौर में जातिवाद को सम्मानित करने के ख्याल से राजनेता सोशल इंजीनियरिंग शब्दावली का खुलकर और आदर के साथ उपयोग करने लगे.
हालत यह हो गई है कि मौजूदा राजनीति इस सोशल इंजीनियरिंग के आगे किसी तरह की कोई और इंजीनियरिंग नहीं चलने देती है. हां, इसके साथ एक और काम होता है, गरीब जनता के पैसे से वोटरों को तोहफा देने का. पूरी की पूरी सत्ता-राजनीति इन्हीं दो ध्रुवों में फंसी है. साइकिल, स्कूटी, स्मार्टफोन, लेपटॉप बांटने या कंबल, कपड़े, किचन सेट आदि के मुफ्त वितरण को ही विकास का पर्याय बना दिया गया है.