patrkaritaaफरवरी, 1979 में मुस्तकीम की ज़िंदगी में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया. चतेला गांव के रहने वाले एमए, एलएलबी, बीएड अजीज खां ने मुस्तकीम से संपर्क किया तथा उसे बदलने की कोशिश की. उसने मुस्तकीम को वर्तमान व्यवस्था का चरित्र समझाया. मुस्तकीम की समझ से प्रभावित होकर अजीज उसी के साथ रहने लगा तथा ऊंच-नीच, अमीर-ग़रीब आदि के बारे में समाजवादी व्याख्याएं बताने लगा. मुस्तकीम ने अजीज खां के निर्देशन में पिछड़े तबकों के जितने भी गिरोह थे, उन सबको धीरे-धीरे संगठित करना प्रारंभ किया, लेकिन जब यह प्रयास सफल नहीं हुआ, तो वह मल्लाहों, गड़रियों, काछियों तथा मुसलमानों के ग़रीब, बेरा़ेजगारों-नौजवानों से संपर्क कर एक सेना-सी बनाने लगा. अजीज को राठ पुलिस ने पकड़ कर चार दिन हवालात में रखा और बाद में गोली मार दी. इसके बाद मुस्तकीम ने मुस्लिम नाम के एक नौजवान को अपने गिरोह में शामिल किया, जो उसे समाचार, किताबें आदि पढ़कर सुनाता था.
मुस्तकीम अब जिस रास्ते पर चल रहा था, वह शायद उसे किसी किस्म के नक्सलवाद की ओर ले जाता. पुलिस व राजनीतिज्ञों ने यह खतरा महसूस किया कि यदि नक्सलवादियों ने मुस्तकीम से संपर्क कर लिया, तो एक नई मुसीबत हो जाएगी. इसलिए वे किसी भी क़ीमत पर मुस्तकीम का सफाया करना चाहते थे, यह तो ऊपर की रणनीति थी. नीचे का तबका तो मुस्तकीम से इसलिए नाराज़ था, क्योंकि उसने पुलिस को उसका हिस्सा देना बिल्कुल बंद कर दिया था. हमीरपुर पुलिस ने कुछ दिन पहले मुस्तकीम नाम के एक दूसरे आदमी को धोखे से मार दिया था. बताया जाता है कि मुस्तकीम व अजीज खां के विचारों से मलखान भी काफी प्रभावित हुआ तथा उसने भी अमीर-ग़रीब वाले सिद्धांत पर चलने की सलाह बाकी दस्यु दलों को दी. मलखान सिंह स्वयं बहुत ग़रीब घर का रहा है. बहरहाल, जबसे मुस्तकीम ने ऐसी ज़िंदगी अपनाई, उसे बाबा कहा जाने लगा. मुस्तकीम का अपना परिवार आज भी ग़रीब है और मज़दूरी पर ज़िंदा है. चंबल घाटी में पनपे इस नए रुझान को बिना समझे, केवल क़ानून-व्यवस्था की समस्या के आधार पर नई स्थिति की व्याख्या करना नासमझी होगी.
एक तऱफ जहां डाकुओं का चरित्र बदल रहा है, पुलिस भी अब एक नए रूप में सामने आ रही है. इसका प्रमाण है, एनकाउंटर की घटनाओं में हाल में हुई वृद्धि. एनकाउंटर के बारे में पुलिस के बड़े अफसरों में दो प्रकार के मत हैं. कुछ का तो मानना था कि जहां तक संभव हो, डाकू को तत्काल मार देना चाहिए. पर दूसरों का मानना था कि यदि वादा किया जाता है, तो फिर उसकी जान नहीं लेनी चाहिए. लगभग सारा पुलिस प्रशासन समझता है कि गवाही आदि के अभाव में अदालतें प्रभावहीन-सी हो गई हैं, इसलिए एकमात्र इलाज जान से मार देना ही है. यहां यह सवाल पैदा होता है कि क्या सन्‌ 72 का समर्पण ग़लत था? यदि वह उचित था और उसके अच्छे परिणाम आए, तो फिर उसी रास्ते पर क्यों नहीं चला गया? जो चंबल घाटी लगातार सात साल तक शांत बनी रही, उसे दोबारा सुलगाने की ज़िम्मेदारी नौकरशाहों व राजनीतिज्ञों की भी है. डाकू भी बंदूक का शासन चलाता है और पुलिस भी उसी रास्ते पर है. डाकू अपना क़ानून चलाते हैं, पुलिस भी संविधान से अलग अपना क़ानून चलाती है. यदि भारतीय संविधान व दंड संहिता इस कदर बेकार व अप्रासंगिक हो गए हैं, तो सरकार इसे खुलेआम क्यों नहीं स्वीकार करती और ज़रूरी संशोधन के लिए क्यों कार्यवाही नहीं करती?
मुस्तकीम को मारना तो था ही
डाकू मुस्तकीम की हत्या थाना डेरापुर के सब-इंस्पेक्टर हरिराम पाल ने की. श्री पाल ने इस सिलसिले में एक लंबी बातचीत के दौरान यह स्वीकार किया कि मुस्तकीम को गिरफ्तार करके अदालत में पेश करने की पूरी सुविधा थी, लेकिन उन्होंने उसे मार डालना ही बेहतर समझा. हरिराम पाल के वक्तव्य के अंश:-
मैंने मुस्तकीम को पकड़ लिया. उसने मेरी अंगुली चबा ली. फिर उसने मेरी बंदूक अपने दोनों हाथों से छीन ली. उसने दो बार निशाना साधकर फायर करने की कोशिश की, तो मैंने कहा….(गाली), इसमें….(शरीर का एक अंग) भी नहीं है. अपनी भाषा में मैंने कहा, इसमें कुछ भी नहीं है. खाली है. कारतूस मैंने फेंक दिए हैं. उसने जब देखा कि इसमें कुछ नहीं है, तो वही बंदूक दो-तीन बार मारी. फिर उसने दोहत्था पलट कर ऐसा मारा कि बंदूक टूट गई. टूटी बंदूक फिर मैंने ले ली और फेंक दी कि अब इसका करना क्या, यह बेकार हो गई. बस एक हाथ से उसे थाम लिया, यह हाथ छूटा नहीं. खूब जमकर एक घंटा मल्लयुद्ध हुआ. कभी हम नीचे, तो कभी वह. मैं पुकारता रहा, जल्दी चलो, बदमाश हैं, पर (गांव का) एक भी आदमी नहीं आया. एक आदमी गट्ठर लिए खड़ा था. मैंने उससे कहा, भलेमानुस, बोझ डाल दे, कुछ हमारी सहायता कर, यह बदमाश है. उसने गट्ठर साइकिल पर रख दिया, साइकिल चलाई और लंबा हुआ. इसके बाद काफी देर हो गई, तो हम फिर चिल्लाए, भइया, गांव वालों, चलो, बदमाश हैं, मारे डाल रहे हैं, बचाओ-बचाओ. इतने में यही डुकरा, सो भी खाली हाथ, आधी धोती पहने, आधी कंधा पर डाले आ गया. मैंने कहा, दद्दा ऐसा है, अंगौछा ही दे दो, जिससे हम इसके हाथ बांध दें. उसने कहा, अंगौछा है नहीं. तब तक उसका लौंडा आ गया. बाप ने उससे कहा कि सारे ने काट खाया हमें. बाप का बदला उसने ले लिया.
उसके बाद मुस्तकीम का हाथ बांध दिया गया. लोगों ने कहा, ढील दो, ढील दो, तो हमने कहा कि भाग जाएंगे. हाथ-पैर उन्होंने खोल लिए, बहुत तगड़ा था वह. फिर भाग लिया, हमने पीछा किया. तब तक दो सिपाही हमारे पास आ गए थे, लाठी लिए-निहत्थे थे बिल्कुल. हम लोगों ने पीछा किया, उसके पीछे भागे. गिरते जाएं, भागते जाएं, गिरते जाएं…मारपीट, पकड़-धकड़ चलता रहा. उसके बाद जब होश आ गया, तो उसको ले गए. मारना तो था ही. लेकिन वहां की पब्लिक के सामने यह कांड हो नहीं सकता था. कुछ छह सिपाही थे और हम दो थे. यानी कुल आठ थे हम लोग. उसे बाईं करवट लिटाया गया. पांच-छह गोली से तो मरा नहीं, पलटा दे गया. फिर और मारे. आठ लोगों ने दस-दस, पंद्रह-पंद्रह फायर किए. (जहां तक मुस्तकीम के साथ वाले आदमी को न मारने का वादा करके मारने की बात है तो) यह पुलिस वाले करते हैं. यही सिखाया जाता है पुलिस वालों को कि पॉलिसी से काम लीजिए. पॉलिसी से ही पुलिस बनती है. (29 मार्च, 1981)

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