दुनिया को पता चल गया कि पाकिस्तान की जेल में बंद निर्दोष भारतीय नागरिक सरबजीत सिंह की जान एक सोची-समझी साजिश के तहत ले ली गई. लेकिन एक तीखा सच यह भी है कि सरबजीत की मौत के लिए जितनी ज़िम्मेदार पाकिस्तान सरकार है, हमारा यानी भारत का अपराध किसी भी मायने में उससे कम नहीं है.
218-h-1Aकूटनीति का अर्थ राष्ट्रहित के लिए समग्र राष्ट्रीय शक्ति का व्यवहार कुशल प्रयोग एवं नियोजन होता है, ताकि बिना युद्ध किए हम अपनी मांगों को पूरा करा सकें. प्रतिद्वंद्वी या मित्र देश को हम ऐसे फैसले लेने के लिए बाध्य कर सकें, जो हमारे राष्ट्रहित में हों. यह एक कला है. जो देश कूटनीति में अपनी सामरिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों से दबाव बनाने में पारंगत होते हैं, वही विश्व विजेता बनते हैं. उन्हीं देशों के नागरिक दुनिया के हर कोने में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं. लेकिन जिस देश का विदेश मंत्रालय कूटनीति का मतलब बड़े-बड़े प्रतिनिधि मंडलों को विदेशी दौरे पर ले जाने, छुट्टियां मनाने, विदेशी अधिकारियों के साथ पार्टी करने, उनके फोन नंबर लेने, मुस्कुराते हुए अच्छी-अच्छी बातें करने और मीडिया में फोटो छपवाने को समझने लगे, तो ऐसे में यह मान लेना चाहिए कि उस देश के नागरिकों की सुरक्षा खतरे में है. इससे कोई फर्क़ नहीं पड़ता कि उस देश के पास बड़ी फौज है या फिर न्यूक्लियर बम. अफसोस! हमारा विदेश मंत्रालय कूटनीति के इसी मार्ग पर अग्रसर है. यही वजह है, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख गिर गई है. चीन घुसपैठ कर रहा है, लेकिन कोई कार्रवाई ही नहीं हो रही है. नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका हमारी बात नहीं सुनते, लेकिन इसकी किसी को कोई चिंता ही नहीं है. हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि मॉरीशस जैसा छोटा-सा देश भी हमारी तरफ गुर्राकर देखता है, लेकिन फिर भी हम कुछ नहीं कर पाते. फिर पाकिस्तान तो पाकिस्तान है. इसलिए सरबजीत का बच पाना, उसे ज़िंदा वापस लाना या फिर इसकी अपेक्षा भी करना बेमानी है. सरबजीत की मौत के लिए जितनी ज़िम्मेदार पाकिस्तान सरकार है, उतना ही भारत भी जबावदेह है.
अक्टूबर 2005 में पहली बार सरबजीत का मामला दुनिया के सामने आया. पता चला कि एक बेकसूर हिंदुस्तानी 1990 से पाकिस्तान की जेल में सड़ रहा है. पुलिस ने उसे मंजीत सिंह समझ कर गिरफ्तार किया. वह कोर्ट में लगातार गुहार लगाता रहा कि वह मंजीत नहीं, सरबजीत है, लेकिन पाकिस्तान में उसकी सुनने वाला कोई भी नहीं था, इसलिए उसके साथ नाइंसाफी हुई और उसे दहशतगर्द घोषित कर दिया गया. उसे फांसी की सजा सुना दी गई. इस नाइंसाफी के लिए न केवल पाकिस्तान की क़ानून व्यवस्था पर सवाल उठता है, बल्कि इससे बड़ा सवाल यह उठता है कि हिंदुस्तान की सरकार ने क्या किया. 2005 से अब तक पाकिस्तान से कई बार कई स्तरों पर बातचीत हुई, लेकिन सरबजीत को छुड़ाने में हम नाकाम रहे. सरकार अब घड़ियाली आंसू बहा रही है, सरबजीत के परिवार को पैसे और नौकरियां दे रही है और अपनी गलतियां छुपा रही है. दरअसल, सरबजीत की मौत हिंदुस्तान की कूटनीति की मौत है. यह देश के नागरिकों के लिए एक इशारा है कि अगर आप विदेशी ज़मीन पर किसी मुसीबत में फंस गए, तो देश की सरकार आपकी मदद के लिए कुछ नहीं करेगी.
पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत सिंह ने कुछ पत्र लिखे थे, जिनसे उसकी स्थिति और उसके साथ हो रहे अन्याय का पता चला. अपनी बहन और वकील के अलावा, सरबजीत ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी एवं लालकृष्ण आडवाणी को भी पत्र लिखे थे. सोनिया गांधी को लिखे पत्र में सरबजीत ने बताया था कि जेल के अंदर उसकी जान को खतरा है. इसी तरह का एक पत्र सरबजीत ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भी लिखा. सरबजीत ने प्रधानमंत्री से इस बात का अनुरोध किया कि वह उसकी रिहाई के लिए पाकिस्तान सरकार पर दबाव बनाएं. इसके अलावा, सरबजीत ने प्रधानमंत्री से यह भी अनुरोध किया कि वह उसके वकील अवैस शेख को कुछ महत्वपूर्ण अधिकारियों से मिलने की अनुमति दें, ताकि उन्हें उसका मुकदमा लड़ने में सुविधा हो. सरबजीत ने अपने देश का आभार व्यक्त करते हुए लिखा कि मेरी रिहाई के लिए कोशिश की जाए, ताकि एक बार फिर से वह अपने देश की सेवा कर सके. सरबजीत खत लिखता रहा और मीडिया में खबरें आती रहीं, लेकिन देश का विदेश मंत्रालय अपनी कुंभकर्णी नींद से कभी जाग ही नहीं सका. हालांकि सरकार जिस तरह सरबजीत की मौत के बाद ऐक्शन में आई, अगर वह पहले इसी जज्बे के साथ काम करती, तो शायद सरबजीत अपनी कहानी बताने के लिए ज़िंदा होता और भारत में होता.
सरबजीत द्वारा लिखी गई कई चिट्ठियां चौथी दुनिया के पास हैं. हमने सरबजीत की आपबीती पर पूरी सीरीज छापी थी. हमने सरबजीत की हर चिट्ठी और गुहार को छापा कि जेल के अंदर उसे किस तरह समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है और किस तरह उसे मारने की साजिश हो रही है. बीच में सरबजीत की तबीयत खराब हो गई थी, जिस पर उसने लिखा था कि जेल अधिकारी उसके भोजन में कुछ मिला रहे हैं, जिससे उसका शरीर कमजोर होता जा रहा है. मगर अफसोस! सरकार ने इसे भी नज़रअंदाज कर दिया.
मंजीत के गुनाह की सजा मिली सरबजीत को
सरबजीत सिंह का केस असल में गलत पहचान से जुड़ा हुआ था. एफआईआर में तो सरबजीत का नाम ही नहीं था. उसे मंजीत सिंह की जगह पेश किया गया. अब सवाल यह है कि यह मंजीत सिंह कौन है, इस केस में उसकी भूमिका क्या है, अब वह कहां है, क्या उसके बारे में किसी को जानकारी है, क्या पहले उसे गिरफ्तार किया गया और बाद में छोड़ दिया गया या फिर वह पुलिस कस्टडी से भाग निकला या फिर मंजीत सिंह को पुलिस गिरफ्तार ही नहीं कर सकी? ऐसे कई सवाल हैं, जो अभी तक रहस्य बने हुए हैं और मंजीत सिंह के बहाने सरबजीत सिंह के केस से जुड़े हुए हैं. जब सरबजीत सिंह को गिरफ्तार किया गया था, तब पुलिस को उसे मंजीत सिंह की जगह अदालत में पेश करने और यह साबित करने का एक अच्छा अवसर दिखा कि यही वह आदमी है, जिसका बम धमाके में हाथ है. लेकिन दुर्भाग्यवश, अभियोजन पक्ष ने अदालत को भी गलत ट्रैक पर ला खड़ा किया. दरअसल, वास्तविक तथ्य सामने लाए ही नहीं गए और इस तरह सरबजीत सिंह का ट्रायल हो गया, उस पर केस चला और उसे फांसी की सजा भी सुना दी गई. और यह सब हुआ, असल अभियुक्त मंजीत सिंह की गैरहाजिरी में. सवाल यह है कि सजा किसे मिली? जब सरबजीत सिंह पर आरोप लगाए गए थे, तब असल में वे आरोप मंजीत सिंह पर लगाए गए थे. इस तथ्य की वजह से यह पूरा मामला (सरबजीत केस) ही अवैधानिक और गैर-क़ानूनी बन गया था.
अगर मंजीत सिंह की गिरफ्तारी हो जाती, तो सरबजीत सिंह के केस में नया मोड़ आ सकता था. अवैस शेख की सहयोगी बैरिस्टर जस उप्पल ने मंजीत सिंह को ढूंढने में उनकी मदद की थी. उन्होंने मंजीत सिंह से जुड़ी कई सनसनीखेज सूचनाएं उपलब्ध कराई थीं. उन्होंने एक प्रकाशित रिपोर्ट भेजी थी, जिसमें लिखा था कि कोट लखपत जेल में बंद भारतीय कैदी सरबजीत सिंह, जिसे बम धमाके के आरोप में फांसी की सजा सुनाई गई है, के केस में तब एक नया मोड़ आ गया, जब कनाडा पुलिस ने एक पूर्व भारतीय मंजीत सिंह को गिरफ्तार किया. क्या यही वह मंजीत सिंह रत्तू है, जिसे पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट ने फांसी की सजा सुनाई है. मंजीत सिंह रत्तू बम विस्फोट के वक्त करांची में ही था और धमाकों के बाद वह इंग्लैंड चला गया. उस पर कथित तौर पर अलकायदा से संबंध रखने के आरोप भी हैं. यह कहा जा रहा है कि मिलिटेंसी के दौर में मंजीत सिंह खुफिया एजेंसियों के लिए काम कर रहा था और एजेंसी की मदद से वह नकली पहचान पत्र एवं नकली पासपोर्ट के जरिए दुनिया भर में घूमता था. उसके कई बार पाकिस्तान जाने की भी रिपोर्ट है. उसके कई नाम थे. वह लोगों के बीच मंजीत सिंह रत्तू उर्फ मोहम्मद शरीफ रत्तू उर्फ मुमताज शरीफ उर्फ अनमोल सिंह उर्फ एम सिंह उर्फ मंजीत सिंह गेंडा उर्फ डॉ. मंजीत सिंह रत्तू के नाम से जाना जाता था. उसने पाकिस्तान जाने से पहले अपनी पत्नी को छोड़ दिया था, जो अब फगवाड़ा के निकट चक देशराज गांव में रहती है.
नकोदर के मेहतपुर के नज़दीक रामोवल गांव का रहने वाला मंजीत सिंह 1986 में जालंधर आ गया. उस वक्त चरमपंथ उफान पर था. 1993 में मंजीत सिंह इंग्लैंड चला गया और फिर 1997 में कनाडा चला गया. तब उसने एक अन्य महिला मंजीत कौर रंधामा से दूसरी शादी की. धोखाधड़ी के एक आरोप में 1999 में उसे गिरफ्तार कर लिया गया और सजा पूरी करने के बाद वह रिहा हो गया. 2000 में वह दोबारा इंग्लैंड चला गया, लेकिन वहां से इंग्लैंड पुलिस ने उसे 2001 में भारत डिपोर्ट (भेज) कर दिया. इसके बाद मंजीत सिंह दोबारा पाकिस्तान चला गया. बाद में 2004 में वह तब अमेरिका गया, जब भारतीय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमेरिका की यात्रा पर थे. उसने कनाडा में शरणार्थी बनने के लिए आवेदन किया, जिसे अस्वीकार कर दिया गया था. 80 के दशक में वह चरमपंथियों के संपर्क में था और उनके साथ काम भी कर रहा था, जिससे पुलिस का ध्यान उसकी तऱफ गया और उसके बाद उसे पड़ोसी देश पाकिस्तान भागना पड़ा. पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में भी उसका नाम आया था. वह 1990 में पाकिस्तान पहुंचा और वहां तीन साल तक रहा. वहां उसने इस्लाम धर्म अपना लिया और साजिदा सुल्ताना नामक महिला से शादी की. यह शादी उसके पाकिस्तान में होने का प्रथम दृष्टया सबूत मानी जा सकती है. अवैस शेख को कनाडा के नेशनल पोस्ट के जरिए उसकी गिरफ्तारी और साथ ही उसकी अन्य आपराधिक गतिविधियों के बारे में जानकारी मिली. 4 जनवरी, 2009 को द कनाडियन प्रेस में छपी एक रिपोर्ट में भी कहा गया कि एक भारतीय नागरिक मंजीत सिंह को 20 मई, 2008 से ही कैलगेरी रिमांड सेंटर में रखा गया है. अंतत: मंजीत सिंह को कनाडियन पुलिस इमीग्रेशन ने कनाडा से डिपोर्ट कर दिया, लेकिन यह नहीं बताया कि उसे किस दिन और कहां भेजा गया. क्या वह वापस भारत आया? इन सवालों पर कुछ भी स्पष्ट नहीं है. मंजीत सिंह ने ट्रैवल डॉक्यूमेंट्‌स पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था. उसके वकील का कहना था कि उनके मुवक्किल को भारत में जान का ख़तरा है, इसलिए उसे भारत न भेजा जाए.
कनाडा से प्रकाशित होने वाले अख़बार पंजाब न्यूज लाइन की इंवेस्टिगेटिव रिपोर्ट के जरिए ही असली दोषी मंजीत सिंह के बारे में पता चला. कनाडाई पुलिस के एक उच्चाधिकारी ने इस रिपोर्ट की पुष्टि की. यह रिपोर्ट मंजीत सिंह के सारे अपराधों, गिरफ्तारी एवं सजा के बारे में है. इसमें मंजीत सिंह के पाकिस्तान में होने का सबूत और धमाकों के वक्त उसके वहां होने का विवरण भी शामिल है. इस रिपोर्ट के मुताबिक, मंजीत सिंह कई बार और लगातार पाकिस्तान जाता रहा है. उक्त कनाडाई अ़खबार ने बताया कि पाकिस्तान में बम धमाकों के पीछे असल हाथ मंजीत सिंह का है. क्या भारत सरकार इन तथ्यों को लेकर पाकिस्तान से बातचीत नहीं कर सकती थी. इतना होने के बावजूद क्या हमारी सरकार ने इन सबूतों को पाकिस्तान सरकार के सामने रखा? अगर रखा होता, तो शायद सरबजीत आज ज़िंदा होता. पूरी दुनिया को पता है कि सरबजीत के साथ नाइंसाफी हुई है. क्या एक निर्दोष भारतीय की जान बचाना विदेश मंत्रालय की ज़िम्मेदारी नहीं थी?
जब फांसी की सजा हो गई और भारत में मीडिया ने इस मामले को उठाया, तो सरबजीत ने सभी राजनीतिक दलों को चिट्ठियां लिखीं और अपने साथ हुई बेइंसाफी की दास्ता बयां की. जेल के अंदर वह इस बात का इंतज़ार ही करता रह गया कि उसकी चिट्ठी पढ़कर कोई न कोई ज़रूर आगे बढ़कर उसे बचाने की कार्रवाई करेगा. लेकिन चाहे वह सोनिया गांधी हों, प्रधानमंत्री हों या फिर लालकृष्ण आडवाणी, किसी ने भी सरबजीत को बचाने की कोई कोशिश नहीं की. मीडिया में सरबजीत की ़खबरें लगातार आती रहीं, लेकिन भारत सरकार पर उसका कोई असर नहीं हुआ.
भारत-पाकिस्तान के रिश्ते जिस तरह के हैं, उसमें सरबजीत की मौत से भारतीय शर्मसार महसूस कर रहे हैं. लोगों में गुस्सा है और उनका आत्मविश्वास हिल गया है. सरकार से एक और चूक हुई. जिस दिन सरबजीत पर हमला हुआ, वह अस्पताल पहुंचा, उस दिन भी अगर भारत सरकार ऐक्टिव हो जाती, तो हो सकता है कि सरबजीत न बचता, लेकिन सरकार की साख बच गई होती. पूरी दुनिया को पता है कि पाकिस्तान की स्वास्थ्य सेवाएं बिल्कुल लचर हैं, क्योंकि पाकिस्तान में जिसके पास पैसा है, वह भारत या यूरोप में अपना इलाज कराता है. अगर हमारी सरकार सरबजीत को इलाज के लिए भारत या किसी यूरोपीय देश ले जाती, तो हिंदुस्तान के लोगों को लगता कि वाकई इस देश में नागरिकों के दु:ख-दर्द का ख्याल रखने वाली सरकार आज भी मौजूद है. दरअसल, सरबजीत पर हमले की ़खबर आते ही सरकार को मानो सांप सूंघ गया. न कोई बयान और न ही कोई कार्रवाई. मीडिया चीखता-चिल्लाता रह गया. जो लोग पाकिस्तान को जानते हैं, वे पहले ही इस बात को समझ चुके थे कि जिस तरह सरबजीत घायल हुआ है, उसमें वह पाकिस्तान में ज़िंदा नहीं बच सकता. लेकिन हिंदुस्तान की सरकार लापरवाह निकली. यह लापरवाही काफी महंगी पड़ सकती है, क्योंकि सरबजीत की मौत के बाद देश के अंदर जो माहौल बना है, वह भारत-पाकिस्तान के रिश्तों के लिए ठीक नहीं है.
अगर सरकार को अपनी साख बचानी है और सरबजीत की मौत से लगा कलंक धोना है, तो आज भी विदेश मंत्रालय के पास एक मौक़ा है. पाकिस्तान की जेलों में कई सरबजीत बंद पड़े हैं. कुछ के मामले कोर्ट में चल रहे हैं और कई लोगों को सजा सुना दी गई है. भारतीय होने की वजह से उनके साथ ज़्यादतियां होती हैं. उन्हें न्याय नहीं मिलता. पाकिस्तानी जेलों में बंद भारतीयों को छुड़ाने के लिए भारत सरकार को अविलंब कार्रवाई करनी चाहिए. भारत और पाकिस्तान के बीच जनमत के खिलाफ जाकर सरकार विदेश नीति नहीं चला सकती. सच तो यह है कि अगर दोनों देशों को रिश्ते सुधारने हैं, तो पाकिस्तान को गारंटी देनी होगी कि फिर कोई सरबजीत न हो, चमैल सिंह न हो और न ही बॉर्डर पर हिंदुस्तान के जवानों के सिर कटें, हत्याएं हों.

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