क़ानून के जरिए लोगों को यह अवसर नहीं दिया जाना चाहिए कि वे उसका गलत इस्तेमाल कर सकें, जिससे कि रिश्‍वतखोरी, भ्रष्टाचार और उत्पीड़न को बढ़ावा मिले. मुझे लगता है कि यह उचित समय है, जब सरकार स्वयं चुनाव कराने का निर्णय ले. एक नई सरकार सत्ता में आए, जो परिपक्वता के साथ, सहयोगियों या किसी अन्य के दबाव में आए बिना निर्णय ले सके.

लगता है कि सरकार लगातार एक कोने में सिमटती जा रही है. विदेश नीति, जो आज़ादी के समय में शुरू हुई थी और जो आज भी चल रही है, उसे कभी भी बदलने की कोशिश नहीं हुई. यहां तक कि मोरारजी भाई देसाई सरकार द्वारा भी इसे नहीं बदला गया. तब भी, जबकि 1977 में  अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री के रूप में जनता पार्टी की सरकार में थे. बाद में अन्य गैर कांग्रेसी सरकारें ज़रूर आईं, लेकिन वे सभी इस बात पर सहमत थीं कि उपनिवेशवाद, मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता के मसले पर भारत का रुख वही रहना चाहिए, जो पहले से चला आ रहा है और उसे बदलने की ज़रूरत ही नहीं है.
अब हम एक ऐसी स्थिति देख रहे हैं कि कांग्रेस की एक सहयोगी पार्टी उस पर इस बात के लिए दबाव डाल रही है कि वह एक ऐसा प्रस्ताव पारित करे, जो हमारी सालों से चली आ रही विदेश नीति के ख़िलाफ़ है. मैं ममता बनर्जी को बधाई दूंगा. वह कांग्रेस पार्टी का समर्थन कर रही थीं, अब वह कांग्रेस से दूर ज़रूर चली गई हैं, लेकिन फिर भी उन्होंने विदेश नीति के मसले पर कांग्रेस का समर्थन किया है. जहां तक विदेश नीति का संबंध है, उन्होंने बहुत ही अच्छा क़दम उठाया है. यह एक बहुत ही राष्ट्रवादी क़दम है. इससे यह पता चलता है कि वह राजनीतिक रूप से कितनी परिपक्व हैं और उनकी राजनीतिक समझ कितनी अच्छी है. उनकी यह समझ और परिपक्वता कांग्रेस के किसी भी सहयोगी से कहीं ज़्यादा है और यहां तक कि कांग्रेस पार्टी में जो लोग हैं, उनसे भी कहीं ज़्यादा है.
प्रधानमंत्री एक बहुत ही परिपक्व व्यक्ति हैं. मैं यह समझने में असफल हूं कि आख़िर ऐसी क्या वजह है, जिसके चलते वह इस तरह का दबाव झेलने के लिए मजबूर हो रहे हैं. उनके  सहयोगी दल ज़्यादा से ज़्यादा क्या कर सकते हैं, सिवाय समर्थन वापस लेने के. और, समर्थन वापस लेने से भी सरकार नहीं गिरेगी. यदि सरकार गिर भी गई, तो क्या नुकसान होगा? कुछ नहीं, क्योंकि चाहे जो भी स्थिति आए, चुनाव तो आ ही रहे हैं. मुझे लगता है कि यह बहुत अधिक क़ीमत है, जो एक कमजोर सरकार को बचाने के लिए अदा की जा रही है. इसी तरह एक और मामला है, आपराधिक क़ानून में संशोधन का. सबसे पहले, इस क़ानून में जल्दबाजी में कोई संशोधन नहीं किया जाना चाहिए. वर्मा समिति ने अन्य कई बेहतर सुझाव दिए हैं. इस मसले पर काफी सोच-समझ कर परिपक्वता के साथ चर्चा की जानी चाहिए. इस देश में सालों से एक आपराधिक क़ानून (क्रिमिनल लॉ) चला आ रहा है. आप अचानक दिल्ली में घटी एक घटना की वजह से क़ानून नहीं बदल सकते. हालांकि, वह एक गंभीर और क्रूर घटना थी, लेकिन ऐसे मामलों में परिपक्वता की ज़रूरत होती है, ऐसा सांसदों ने भी लोकसभा में कहा है.
सेक्स के लिए सहमति की उम्र को लेकर एक मसला आया. अब वक्त आ गया है कि समाज में बदलाव हो रहे हैं और समय बदल रहा है, इसलिए सहमति की उम्र कम की जानी चाहिए. इस सुझाव के साथ कुछ भी गलत नहीं है. लेकिन भाजपा और अन्य दलों ने इस मसले को लेकर सरकार पर दबाव डाला और अंतत: सरकार ने उम्र सीमा 18 साल तय कर दी. इसी तरह अन्य मुद्दे, मसलन एसएमएस, संदेश आदि को लेकर हैं. आख़िर हम कर क्या रहे हैं? यहां तक कि लड़कियां भी नहीं चाहतीं कि लड़कों को उनसे बातचीत नहीं करनी चाहिए. यह क़ानून पुरुषों और महिलाओं के बीच सामाजिक संपर्क को हतोत्साहित करेगा, इसलिए यह नहीं होना चाहिए. महिलाओं को भी लगता है कि ऐसा नहीं होना चाहिए. शरद यादव ने लोकसभा में ठीक ही कहा कि हमें लंबे समय के लिए यानी दीर्घकालिक उपाय के बारे में सोचना चाहिए.
ऐसा न हो कि हम जल्दबाजी में कोई क़ानून बना दें और फिर उसमें सुधार करते रहें. इस क़ानून के गलत इस्तेमाल की आशंका ज़्यादा है. पुलिस को आप और अधिक शक्ति दे रहे हैं. पुलिस बल पहले से ही ठीक से कार्य नहीं कर रहा है. क़ानून बनाया जाना चाहिए, लेकिन वह तर्कसंगत हो. क़ानून के जरिए लोगों को यह अवसर नहीं दिया जाना चाहिए कि वे उसका गलत इस्तेमाल कर सकें, जिससे कि रिश्‍वतखोरी, भ्रष्टाचार और उत्पीड़न को बढ़ावा मिले. मुझे लगता है कि यह उचित समय है, जब सरकार स्वयं चुनाव कराने का निर्णय ले. एक नई सरकार सत्ता में आए, जो परिपक्वता के साथ, सहयोगियों या किसी अन्य के दबाव में आए बिना निर्णय ले सके.

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