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अगर आप माओवाद को सामाजिक-आर्थिक समस्या मानते हैं, तो आपको एक बार फिर से सोचने की ज़रूरत है. सवाल यह उठता है कि किसी सूबे का गृहमंत्री ऐसा क्यों चाहता है कि उसके सूबे के ज़्यादा से ज़्यादा जिले नक्सल प्रभावित घोषित हों? माओवादियों की मूल लड़ाई की जड़ में जल, जंगल, ज़मीन, खनिज हैं. तो फिर मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था इन संसाधनों की लूट की छूट कॉरपोरेट हाउसेज को देकर इन इलाकों में रहने वाले लोगों को क्या संदेश देना चाहती है? आख़िर लोकसभा और विधानसभा के आगे ग्रामसभा क्यों बेबस और लाचार हो जाती है? माओवादियों, जो इसी देश के वासी हैं, को अपने ही प्रतिनिधियों, यानी नेताओं पर विश्‍वास क्यों नहीं रहा?
आम तौर पर माओवाद को एक सोशियो-इकोनॉमिक (सामाजिक-आर्थिक) समस्या माना जाता है, लेकिन जब आप इस समस्या के पनपने के कारणों की जड़ में जाएंगे, तो पता चलेगा कि यह समस्या भी भारत की बाकी समस्याओं जैसी ही है. इसका कारण भी वही है, यानी सत्ता, शासन एवं व्यवस्था पर राजनीतिक दलों द्वारा पूर्ण कब्जा बनाए रखने की मानसिकता. केंद्रीयकृत सत्ता, शासन एवं व्यवस्था की वजह से इस देश में आज भ्रष्टाचार है, प्राकृतिक संसाधनों की खुली लूट मची हुई है. दरअसल, यही वह वजह है, जो माओवाद की जड़ को खाद-पानी मुहैया कराती है.
जाहिर है, संविधान की मूल भावना (जिसमें राजनीतिक दल का जिक्र नहीं है) के विपरीत यह देश आज राजनीतिक दलों के चंगुल में फंस चुका है. जनप्रतिनिधि आज जनता के नहीं, बल्कि अपनी पार्टियों के प्रतिनिधि बन चुके हैं और इसीलिए उन्हें जनता की समस्याओं से कोई मतलब ही नहीं रह गया है. लोकतंत्र पर इन राजनीतिक दलों द्वारा कब्जा जमाने और विकेंद्रीकरण के नाम पर शासन व्यवस्था को केंद्रीयकृत बना देने की वजह से भी आज इस देश में माओवाद की समस्या है. इस सबकी जगह अगर सत्ता सचमुच गांवों एवं आम आदमी के हाथ में होती, तो वे सारी वजहें पैदा ही न होतीं, जिनके चलते माओवाद जैसी समस्या जन्म लेती है. अगर सचमुच जनप्रतिनिधित्व, यानी जनता की भागीदारी (आम आदमी की भागीदारी) ग्रामसभा से लेकर विधानसभा एवं लोकसभा तक होती, तो आज यह समस्या ही न होती.
एक उदाहरण लेते हैं. अकेले छत्तीसगढ़ में तीस से ज़्यादा थर्मल पावर अभी स्थापित किए जाने हैं, जिनमें जिंदल से लेकर भूषण, बाल्को, एस्सार एवं जीएमआर आदि शामिल हैं. इनके अलावा, खनन कार्य में लगी कंपनियों को भी शामिल किया जा सकता है. सवाल यह है कि इस सबके लिए इन कंपनियों को आवश्यक जल एवं ज़मीन राज्य और केंद्र सरकार मिलकर मुहैया कराती हैं, तब क्या उसमें स्थानीय लोगों की भी राय ली जाती है? बिल्कुल नहीं. इसमें स्थानीय लोगों की राय के लिए कोई जगह ही नहीं होती. सरकारें अपने मन से भूमि या खदानों का आवंटन करती हैं और यह भी नहीं सोचतीं कि इससे विस्थापित हुए लोगों की क्या हालत होगी या उनके पुनर्वास के लिए क्या-क्या क़दम उठाए जाने चाहिए. यह कहानी स़िर्फ छतीसगढ़ की ही नहीं है, बल्कि उन सभी राज्यों की है, जहां माओवाद की समस्या है, चाहे वह उड़ीसा हो या फिर झारखंड. अभी उड़ीसा में पोस्को एवं वेदांता को लेकर जिस तरह का जनसंघर्ष चल रहा है, उससे वहां माओवाद और माओवादियों की ताकत बढ़ेगी या घटेगी?
अब जरा सरकारों द्वारा बनाए गए क़ानून पर भी नज़र डालिए. 1996 में पेसा एक्ट आया, जिसके तहत पंचायती राज व्यवस्था को अनूसूचित क्षेत्र तक विस्तारित किया गया. 15 साल बीत गए, लेकिन अभी तक 9 में से स़िर्फ तीन राज्यों ने ही इस संबंध में क़ानून बनाए हैं. पेसा के तहत ग्रामसभा को महत्वपूर्ण अधिकार दिए गए, लेकिन कहीं भी इस क़ानून का न तो सही इस्तेमाल हो रहा है और न ही सरकारें इसके क्रियान्वयन में कोई दिलचस्पी दिखा रही हैं. इसकी एक वजह यह है कि अगर स्थानीय स्तर पर लोगों को जल, जंगल, ज़मीन एवं खनिज से जुड़े फैसले लेने का अधिकार मिल जाएगा, तो फिर राज्य सरकार क्या करेगी, यह विचार भी सरकारों को शासन की स्थानीय इकाई मजबूत बनाने से रोक देता है. नतीजतन, सत्ता, शासन एवं व्यवस्था से आम आदमी दूर होता चला जाता है और फिर जो नतीजा हमारे सामने आता है, उसे हम माओवाद के रूप में भी देखते हैं.
जहां तक वन अधिकार क़ानून का सवाल है, तो इसके तहत जंगल में परंपरागत तौर पर रहने वाले लोगों को कुछ वन उत्पाद इकट्ठा करने भर का अधिकार दिया गया है, या फिर उन्हें पट्टे पर खेती के लिए ज़मीन दी जा सकती है, लेकिन किसी भी क़ीमत पर वे वहां की ज़मीन या संपदा बेच नहीं सकते, या उस पर उनका मालिकाना हक नहीं हो सकता. आख़िर इस तरह के अधिकारों से उन लोगों को क्या फ़ायदा होगा, जो सैकड़ों वर्षों से न स़िर्फ जंगलों में रहते आ रहे हैं, बल्कि उनकी रक्षा भी करते आ रहे हैं? दूसरी तरफ़, सरकारें जब चाहें, उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल कर उसे निजी कंपनियों को दे सकती हैं. आख़िर यह कैसा क़ानून है, कैसा अधिकार है कि लोग अपनी ही ज़मीन पर किराएदार की हैसियत से रहने के लिए मजबूर हैं. ऐसे में, एक लोकतंत्र की पारंपरिक परिभाषा संदेह के घेरे में आ जाती है, जहां जनता अपने ही प्रतिनिधियों की गुलाम बनकर रह गई है.

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