राजनीति का दस्तूर भी अजीब है. दोस्त कब दुश्मन हो जाए, पता ही नहीं चलता और यही फ़र्क राजनीति के दुश्मनी में बदलती दोस्ती की तस्वीर के रूप में दिखाई देता है. राजनेता पहले भी थे और राजनेता आज भी हैं. आपको कुछ घटनाएं पहले के राजनेताओं से जुड़ी बताते हैं.
रफी अहमद किदवई और पंडित गोविंद वल्लभ पंत में बहुत ज़्यादा नहीं बनती थी. नेहरू जी इस बात से परिचित थे, लेकिन जब कभी अकेले रफी अहमद किदवई या गोविंद वल्लभ पंत पंडित जवाहर लाल नेहरू से मिलते थे, तो उनसे यही कहते थे कि मेरी राय यह है, लेकिन उनकी राय ज़रूर जान लीजिए, क्योंकि वह शायद इस मसले पर ज़्यादा सही सलाह आपको दे सकते हैं. यह बड़प्पन रफी अहमद किदवई और पंडित गोविंद वल्लभ पंत का था. आपस में, चाहे वे कैबिनेट की बैठकें हों या पार्टी की मीटिंग, दोनों में वाकयुद्ध होता था, पर फैसले के समय दोनों एक-दूसरे की राय का सम्मान करने की बात पंडित जवाहर लाल नेहरू से करते थे. दूसरा मशहूर उदाहरण आचार्य नरेंद्र देव का है. आचार्य जी ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी बना ली थी, लेकिन पार्टी का संविधान और घोषणा-पत्र लिखने में देरी हो रही थी. कारण, आचार्य नरेंद्र देव काफी बीमार थे. उन्होंने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री एवं अपने मित्र पंडित संपूर्णानंद जी को संदेश भेजा कि वह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का संविधान और घोषणा-पत्र लिख दें. पंडित संपूर्णानंद ने प्राथमिकता के आधार पर लगभग सात या बारह दिन लगाकर संविधान और घोषणा-पत्र लिखा और उसे आचार्य नरेंद्र देव जी के पास फैजाबाद भेज दिया. जब आचार्य जी के पास पंडित संपूर्णानंद जी की हस्तलिखित प्रति पहुंची, तो उन्होंने उसे सीधे प्रेस में छपने के लिए भेज दिया. आचार्य जी के साथियों ने कहा कि आचार्य जी, संपूर्णानंद कांगे्रस पार्टी के बड़े नेता हैं, मुख्यमंत्री हैं. आपने उन्हें संविधान और घोषणा-पत्र सोशलिस्ट पार्टी का लिखने को कहा है. एक बार देख तो लीजिए कि उन्होंने कुछ ऐसी बातें तो नहीं डाल दी हैं, जो आप नहीं चाहते हैं! आचार्य जी का जवाब था कि जब संपूर्णानंद जी ने लिखा है, तो सही ही लिखा होगा और उन्होंने बिना कॉमा, फुलस्टॉप बदले, छपने की अनुमति दे दी. प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का संविधान और घोषणा-पत्र आज भी राजनीतिक दलों के लिए पढ़ने योग्य सामग्री है, क्योंकि उसमें रंचमात्र भी बदलाव की गुंजाइश है ही नहीं. इसीलिए आज भी वह एक आदर्श संविधान और एक आदर्श घोषणा-पत्र के रूप में जाना जाता है.
तीसरा उदाहरण श्री चंद्रभानु गुप्ता का है, जो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. एक बार प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के लोग उनके ख़िलाफ़ 10 हज़ार की संख्या में प्रदर्शन करने गए. उनका नारा था, गली-गली में शोर है, सीवी गुप्ता चोर है. दिन भर उन्होंने नारे लगाए. अपने कार्यकर्ताओं को खाना खिलाने के लिए प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेताओं के पास पैसे नहीं थे. चंद्रशेखर जी उस समय प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में थे. वह अपने एक-दो साथियों के साथ चंद्रभानु गुप्ता से मिलने चले गए, क्योंकि उन्हें लगा कि कार्यकर्ताओं को खाना खिलाने के लिए कुछ पैसों के इंतजाम के लिए वह चंद्रभानु गुप्ता से कहें. जब ये लोग मुख्यमंत्री चंद्रभानु गुप्ता से मिलने गए, तो उन्होंने इनसे कहा, आ जाओ फक्कड़ों, भूखों, क्या बात है? इन लोगों ने कहा कि गुप्ता जी, कार्यकर्ताओं को…बस, इतना ही बोला था. उन्होंने कहा कि तुम परेशान मत हो, मैंने 10 हज़ार लोगों के खाने के लिए इंतजाम करा दिया है, पूड़ी-सब्जी बन रही है. गेंदा सिंह जी उस समय चंद्रशेखर जी के साथ थे. चंद्रभानु जी ने कहा, गेंदा सिंह वहां चले जाओ, पूड़ी-सब्जी बन रही है, 10 हज़ार लोगों के लिए. उनके खाने के लिए ले आओ. यह था उस समय के राजनेताओं का बड़प्पन. जिस नेता को दिन भर गली-गली में शोर है, सीवी गुप्ता चोर है, की गाली सुननी पड़ी हो, उन गाली देने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए भोजन की व्यवस्था भी उन्होंने ही की. उस दौर के राजनेताओं में यही खास बात थी. वे अपने कार्यकर्ताओं का काम बाद में करते थे, लेकिन विपक्ष के लोगों का काम पहले करते थे. विपक्ष के लोगों से मिलकर समस्याएं पहले जानते थे और साथ ही अपनी पार्टी के लोगों को धैर्य रखने की सलाह देते थे.
यह दौर, ऐसा लगता है कि अब समाप्त हो गया है. प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई बैठक में हमें देखने को मिला कि नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार में दुआ-सलाम तक नहीं हुई. छोटी सी जगह पर आमना-सामना हुआ, लेकिन दोनों ने एक-दूसरे को देखा भी नहीं. इस घटना के संकेत ये हैं कि राजनेताओं के मन की दूरी इतनी ज़्यादा बढ़ चुकी है कि सामान्य राजनीतिक शिष्टाचार निभाने के मामले में वे अपने साधारण कार्यकर्ताओं से भी कमतर नज़र आते हैं. अभी भी ज़िलों या प्रदेश में दो पार्टियों के राजनीतिक कार्यकर्ता मिलते हैं, तो वे आपस में राजनीति के अलावा, बहुत सारी बातचीत कर लेते हैं और कभी-कभी तो राजनीति की बात भी कर लेते हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर नेताओं में यह व्यवहार अब देखने को नहीं मिलता.
चंद्रशेखर जी संभवत: इस दौर के आख़िरी व्यक्ति थे, जिनके यहां हर पार्टी के लोग मिलने चले जाते थे और चंद्रशेखर जी भी जब कोई समारोह करते थे, तो वह हर पार्टी या हर विचारधारा के नेताओं को आमंत्रित ज़रूर करते थे. वहां जिस तरह का सौहार्द्र, सहिष्णुता और संवाद लोगों में देखने को मिलता था, उससे राजनीति की जमी हुई बर्फ दरक जाती थी. चंद्रशेखर जी के बाद इस काम को भारतीय राजनीति में किसी ने नहीं किया. राज्यों में तो यह हो ही नहीं रहा है, क्योंकि वहां तो वही हो रहा है, जो वे दिल्ली में होता हुआ देखते हैं. भारतीय जनता पार्टी के नेता आपस में नहीं मिलते. कांग्रेस के नेता भी आपस में मन में दुराव रखकर मिलते हैं और जब वे एक-दूसरे से मिलते हैं, तो उनके मन में कहीं न कहीं, तुझे कैसे उठा के ज़मीन पर पटकूं, का भाव रहता है. जब वे मिलकर बाहर निकलते हैं, तब उनकी प्रतिक्रिया और उनके शब्द बताते हैं कि जितनी देर उन्होंने बात की, दूसरे की बात सुनी ही नहीं, बल्कि अपने मन में यह सोचा कि इसकी राजनीतिक हत्या कैसे की जाए!
संसद का सेंट्रल हॉल एक बहुत बड़ा आईना है. संसद के सेंट्रल हॉल में जब भी देखा जाता है, तो एक पार्टी के लोग दूसरी पार्टी के लोगों के साथ मिलकर बैठे नज़र नहीं आते. हरेक का अपना-अपना दायरा होता है. लालू यादव के साथ आरजेडी के मौजूदा या भूतपूर्व सांसद बैठे दिखाई देते हैं. शरद यादव के साथ उनके दल के लोग दिखाई देते हैं. कांगे्रस के बड़े नेता वहां बैठते नहीं, लेकिन कांगे्रस के सबसे बड़े नेता अहमद पटेल, कभी-कभी जब जाते हैं, तब उनके पास कांगे्रस के सांसदों की भीड़ होती है. सांसद भी जहां बैठते हैं, एक ही पार्टी के बैठते हैं. दक्षिण भारत के सांसद अलग बैठते हैं, उनका कोई संवाद उत्तर भारत के लोगों के साथ नहीं होता. पहली बार, एक महीने पहले सेंट्रल हॉल में राहुल गांधी 15 मिनट के लिए बैठे थे, तो उनके पास कांग्रेस के सांसदों की भीड़ लग गई और जो दूर थे, वे वहीं से अपना चेहरा उन्हें दिखाने की कोशिश कर रहे थे. और जैसा कि राहुल गांधी का स्वभाव है, वह 90 प्रतिशत लोगों को न तो चेहरे से जानते हैं और न ही नाम से, पर वह इस क्रिया को उत्सुकता से देख ज़रूर रहे थे कि लोग कैसे उन्हें अपना चेहरा दिखाना चाहते हैं. भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता, जिनमें लालकृष्ण आडवाणी एवं सुषमा स्वराज के नाम शामिल हैं, भी सेंट्रल हॉल में नहीं बैठते. हां, कभी-कभी अरुण जेटली ज़रूर बैठते हैं, पर अरुण जेटली हों या फिर शरद पवार, उनके आस-पास भारतीय जनता पार्टी या कांगे्रस के सदस्यों की जगह पत्रकार ही ज़्यादा होते हैं.
यह दृश्य भारतीय राजनीति की विकृति का दृश्य है. हमारा मानना है कि अगर विभिन्न पार्टी के नेताओं के बीच एक चाय की प्याली पर भी बात होती रहे और यदि लोकसभा या राज्यसभा की बर्फ फिर भी न पिघले, लेकिन कोमल या मुलायम ज़रूर होगी. अफसोस! अब इसके लिए कोशिश करने वाले राजनेता ही नहीं बचे. अटल जी आख़िरी प्रधानमंत्री थे, जिनसे हर पार्टी का सांसद राजनीतिक धरातल पर भी मिलने की कोशिश करता था और अटल जी भी उसे देखकर जिस तरह मुस्करा कर संदेश देते थे, वह राजनीतिक अंतरंगता का बोध कराता था. पर मौजूदा प्रधानमंत्री ने तो इतिहास ही रच दिया. अपना पूरा समय राज्यसभा का सदस्य रहते हुए काट दिया, लोकसभा का चुनाव लड़ने की हिम्मत तक नहीं की और एक भी दिन सेंट्रल हॉल में नहीं बैठे. अपने सांसदों से मिलने के लिए उनके पास वक्त नहीं है और अब तो हालत यह है कि उन सांसदों ने भी पीएम से मिलना छोड़ दिया. सोनिया गांधी भी सेंट्रल हॉल में नहीं बैठतीं, जहां कम से कम सांसद उन्हें अपना चेहरा तो दिखा सकें. सेंट्रल हॉल के पीछे की तरफ़ एक रास्ता नुमा गैलरी है, उससे निकल कर सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह, सुषमा स्वराज एवं लालकृष्ण आडवाणी बिना दाएं या बाएं देखे, सीधे चलते चले जाते हैं. कुछ नेता तो उनमें ऐसे भी हैं, जिन्हें लोग दूर से देखकर नमस्कार करते हैं, लेकिन वे जवाब तक नहीं देते. जब यह हालत सेंट्रल हॉल की हो, तो यह अपेक्षा करना कि दो विचारधाराओं या दो विभिन्न पार्टियों के लोग आपस में चाय या ढोकला के बहाने बैठकर देश को लेकर बात करेंगे, असंभव लगता है. शायद भारतीय राजनीति की विडंबना यही है कि यहां संवाद समाप्त हो गया है.

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