किसानों को राजनीतिक दलों ने बड़े शातिराना तरीके से मारा है. इसके लिए समाजवादी पार्टी या बहुजन समाज पार्टी अकेले दोषी नहीं है. चीनी मिलों को बर्बाद करने और गन्ना किसानों को तबाह करने का सिलसिला सबसे पहले भाजपा के शासनकाल में ही शुरू हुआ था. थोड़ा पृष्ठभूमि में झांकते चलें. कभी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान खुशहाल थे. गन्ने की खेती और चीनी मिलों से प्रदेश के गन्ना बेल्ट में कई अन्य उद्योग धंधे भी फल-फूल रहे थे. चीनी मिलों और किसानों के बीच गन्ना विकास समितियां (केन यूनियन) किसानों के भुगतान से लेकर खाद, ऋृण, सिंचाई के साधनों, कीटनाशकों के साथ-साथ सड़क, पुल, पुलिया, स्कूल और औषधालय तक की व्यवस्था करती थीं. गन्ने की राजनीति करके नेता तो कई बन गए लेकिन उन्हीं नेताओं ने गन्ना किसानों को बर्बाद भी कर दिया. नतीजतन गन्ना क्षेत्र से लोगों का भयंकर पलायन शुरू हुआ और उन्हें महाराष्ट्र और पंजाब में अपमानित होते हुए भी पेट भरने के लिए मजदूरी के लिए रुकना पड़ा. उत्तर प्रदेश में 125 चीनी मिलें थीं, जिनमें 63 मिलें केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश में थीं. इनमें से अधिकतर चीनी मिलें बेच डाली गईं और कुछ को छोड़ कर सभी मिलें बंद हो गईं. सरकार ने चीनी मिलें बेच कर पूंजीपतियों को और खुद को फायदा पहुंचाया. चीनी मिलों के परिसर की जमीनें पूंजी-घरानों को कौड़ियों के भाव बेच डाली गईं, जिस पर अब महंगी कॉलोनियां बन रही हैं. जबकि चीनी मिलों को किसानों ने गन्ना समितियों के जरिए अपनी ही जमीनें लीज़ पर दी थीं. लेकिन उन किसानों के मालिकाना हक की चिंता किए बगैर अवैध तरीके से उन जमीनों को भी मिलों के साथ ही बेच डाला गया. 1989 के बाद से प्रदेश में नकदी फसल का कोई विकल्प नहीं खड़ा किया गया. गन्ना ही किसानों का अस्तित्व बचाने की एकमात्र नकदी फसल थी. चीनी मिलों के खेल में केवल समाजवादी पार्टी ही शामिल नहीं, अन्य दल भी जब सत्ता में आए तो खूब हाथ धोया. भाजपा की सरकार ने हरिशंकर तिवारी की कम्पनी गंगोत्री इंटरप्राइजेज को चार मिलें बेची थीं. उस समय कल्याण सिंह यूपी के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, उनकी सरकार में हरिशंकर तिवारी मंत्री थे. गंगोत्री इंटरप्राइजेज ने चीनी मिलों की मशीनें और सारे उपकरण बेच डाले. फिर समाजवादी पार्टी की सरकार आई तो उसने प्रदेश की 23 चीनी मिलें अनिल अम्बानी को बेचने का प्रस्ताव रख दिया. लेकिन तब अम्बानी पर चीनी मिलें चलाने के लिए दबाव था.

सपा सरकार ने उन चीनी मिलों को 25-25 करोड़ रुपए देकर चलवाया भी, लेकिन मात्र 15 दिन चल कर वे फिर से बंद हो गईं. तब तक चुनाव आ गया और फिर बसपा की सरकार आ गई. मुख्यमंत्री बनी मायावती ने सपा कार्यकाल के उसी प्रस्ताव को आगे बढ़ाया और चीनी मिलों को औने-पौने दाम में बेचना शुरू कर दिया. मायावती ने पौंटी चड्‌ढा की कम्पनी और उसके गुट की कंपनियों को 21 चीनी मिलें बेच डालीं. देवरिया की भटनी चीनी मिल महज पौने पांच करोड़ में बेच दी गई. जबकि वह 172 करोड़ की थी. इसके अलावा देवरिया चीनी मिल 13 करोड़ में और बैतालपुर चीनी मिल 13.16 करोड़ में बेच डाली गई. अब उन्हीं मिलों की बेशकीमती जमीनों को प्लॉटिंग कर महंगी कॉलोनी के रूप में विकसित किया जा रहा है. बरेली चीनी मिल 14 करोड़ में बेची गई, बाराबंकी चीनी मिल 12.51 करोड़ में, शाहगंज चीनी मिल 9.75 करोड़ में, हरदोई चीनी मिल 8.20 करोड़ में, रामकोला चीनी मिल 4.55 करोड़ में, घुघली चीनी मिल 3.71 करोड़ में, छितौनी चीनी मिल 3.60 करोड़ में और लक्ष्मीगंज चीनी मिल महज 3.40 करोड़ रुपए में बेच डाली गई. ये तो बंद मिलों का ब्यौरा है. जो मिलें चालू हालत में थीं उन्हें भी ऐसे ही कौड़ियों के मोल बेचा गया. अमरोहा चीनी मिल महज 17 करोड़ में बेच डाली गई. सहारनपुर चीनी मिल 35.85 करोड़ में और सिसवां बाजार चीनी मिल 34.38 करोड़ में बिक गई. बुलंदशहर चीनी मिल 29 करोड़ में, जरवल रोड चीनी मिल 26.95 करोड़ में और खड्‌डा चीनी मिल महज 22.65 करोड़ में बेच डाली गई.

पूर्वांचल के जुझारू किसान नेता शिवाजी राय कहते हैं कि पहले यह व्यवस्था थी कि यूपी के किसान गन्ना की फसलें गन्ना समितियों को बेचते थे और गन्ना समितियां उसे चीनी मिलों को बेचती थीं. किसानों को पैसे भी समितियों के जरिए ही मिलते थे. सारा कुछ बहुत ही सीधी रेखा पर चल रहा था. लेकिन भाजपा सरकार ने इस प्रक्रिया को ऐसा घुमाया कि उसे नष्ट ही कर दिया. गन्ना किसानों के खाते में सीधे पैसे डालने की व्यवस्था लागू कर तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने केन यूनियनों को पंगु करने की शुरुआत की थी. उसके बाद न तो किसानों के खाते में पैसे पहुंचे और न केन यूनियनें ही फिर से ताकतवर हो पाईं.

 

 

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