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बारिश आ रही है और नदियां उफान पर हैं, लेकिन मंत्रियों, राजनेताओं और अफसरों को इसकी कोई चिंता नहीं है. उत्तराखंड में फिर से तबाही मचने वाली है, लेकिन उत्तराखंड, उत्तरप्रदेश, बिहार और उ़डीसा के ब़डे हिस्से में अगले दो महीनों में जो होने वाला है, उसकी कोई तैयारी सरकारों ने नहीं की है. दरअसल, हमारे देश में बा़ढ लूट महोत्सव के रूप में जानी जाती है. लूट महोत्सव का मतलब इंतज़ार रहता है कि किस तरह बा़ढ सहायता का पैसा आए और कैसे उसका आपस में बंटवारा हो. बंटवारा बा़ढ पीड़ितो और आपदा पीड़ितो के बीच में नहीं, बंटवारा अफसरों और मंत्रियों के बीच में. हालांकि कुछ पैसा विपक्ष के ब़डे नेताओं के पास भी चला जाता है, ताकि वे शोर न मचाएं. अब तक दिखाया यही गया है कि बा़ढ पीड़ितो की सहायता में पैसे ख़र्च होते हैं और भ्रष्टाचार होता है, लेकिन शोर रस्मी तौर पर मचता है. रस्मी तौर पर शोर मचाने वाले राजनेता होते हैं. अखबार के लोग कुछ जगहों के फोटो छापकर और बा़ढ पीड़ितो को पैकेट्स हेलिकॉप्टर या मोटराइज्ड नाव के जरिए पहुंचाकर, अपना कर्तव्य पूरा समझ लेते हैं.
यह कहानी पिछले दो, चार, दस या बीस साल की नहीं है, बल्कि यही कहानी पिछले 60 सालों से चलती चली आ रही है. 60 सालों से चलती चली आ रही है का मतलब, हमारा पूरा सिस्टम बा़ढ में लूट की तैयारी कैसे करे और लूट कैसे हो, उसकी विशेषज्ञता हासिल कर चुका है. अफसोस की बात यह है कि हमारे देश के सामान्य जन, जिन्हें इसका भी एहसास नहीं कि 60 सालों में क्यों कोई ऐसा तरीका ईजाद नहीं हो पाया या सिस्टम डेवलप नहीं हो पाया, जिससे कि बा़ढ से परेशान लोगों को बिना किसी चूक के मदद पहुंचाई जा सके. बा़ढ ही क्यों, सूखा, भूकंप जैसी चीजें भी इसी श्रेणी में आती हैं. हालांकि भूकंप अब आने शुरू हुए हैं, लेकिन पहले भी भूकंप आए हैं और हमने कभी भी, किसी भी आपदा में, आपदा के शिकार लोगों को ईमानदारी की राहत सामग्री पहुंचने ही नहीं दी. किसी पर जिम्मेदारी ही नहीं दी गई कि अगर आपदा, बा़ढ, सूखा राहत की सामग्री में भ्रष्टाचार हो रहा है, या बंटवारे में चूक हो रही है, तो इसकी सजा कुछ है या नहीं है. अगर बा़ढ में घिरे लोगों की मौत डूबने से हो जाती है, तो इसका 80 प्रतिशत जिम्मा प्रशासन के पास है, जिसके पास लोगों को बचाने के साधन ही नहीं होते! हालांकि उन्हें मालूम है कि इस महीने में बारिश होगी और इस महीने में नदियां उफान पर आएंगी, जिससे इतने लाख लोग या करोड़ लोग प्रभावित होंगे, क्योंकि अगर उनके पास यह आंक़डा नहीं होता, तो ये पहले से सूची कैसे तैयार कर लेते हैं कि इतने लोग संभावित तौर पर प्रभावित होंगे और इन्हें इतना पैसा दिया जाए, जिसकी तैयारी केंद्र सरकार और राज्य सरकार दोनों करेंगे. उन लोगों को, जो प्रभावित होने वाले हैं, या हुए हैं, उन्हें कभी चेतावनी ही नहीं दी जाती, उन्हें कभी दूसरी जगह पर नहीं ले जाया जाता और उन्हें जो भी दिक्कतें होती हैं, उनके कारणों को भी कभी दूर नहीं किया जाता.
प्रशासन और राजतंत्र ने नदियों में इतनी बुरी तरह खुदाई की कि बालू की सतह ही नदियों से समाप्त हो गई. नीचे से मिट्टी कटती है, जिससे किनारे और किनारे बसे हुए गांव के गांव उफनती हुई नदी के पेट में समा जाते हैं. गांववालों को यह नहीं पता कि अंदर ही अंदर पानी किस तरह उन्होंने मौत के मुंह में ले जा रहा है और यह सब इसलिए होता है, क्योंकि मंत्री, सरकार और प्रशासन से जु़डे लोग इस अवैध खनन के पैसे में हिस्सेदार होते हैं. जब लोग मरते हैं, तो लोगों के मरने के जिम्मेदार तंत्र के लोगों पर भी तो हत्या का मुकदमा चलना चाहिए, क्योंकि उनकी वजह से ही ये मौतें हुई हैं. जिन लोगों की वजह से किसी की बा़ढ में मृत्यु और अकाल मृत्यु हो जाती है, उन लोगों पर हत्या का मुकदमा तो चलना ही चाहिए और जहां पर उत्तराखंड जैसी स्थिति हो, वहां तो पूरी सरकार के ऊपर हत्या का मुकदमा चलना चाहिए. हमारा न्याय तंत्र इस मसले में असंवेदनशील दिखाई दे रहा है. केंद्र सरकार भीषण सत्ता की अवस्था में है, उसने अभी तक उत्तराखंड को राष्ट्रीय आपदा घोषित नहीं किया है, जबकि मजे की बात तो यह है कि हर राज्य के लोग इस आपदा में मरे हैं. दैवीय आपदा घोषित करने से आपदा समाप्त नहीं हो जाती, लेकिन दैवीय आपदा घोषित करने से सारे देश के लोगों को एक संदेश जरूर जाता है कि उन्हें भी विपदाग्रस्त लोगों की मदद के लिए कुछ करना चाहिए. दूसरी ओर उत्तराखंड सरकार का तो कहना ही क्या! क्योंकि ऐसी सरकार देश के लिए एक आदर्श सरकार है. जिस सरकार को पता ही नहीं चला कि कितनी बा़ढ आई और कितने लोग मरे. 14 की रात जब पहला सैलाब आया, तो टेलीविजन चैनल वाले ऋषिकेश में परमार्थ निकेतन के सामने गंगा में स्थापित शिव मूर्ति को दिखा रहे थे कि यहां तक पानी आ गया और वहां तक पानी आ गया. शिव मूर्ति डूब गई. 17 तारीख तक सिर्फ टेलीविजन में यही दिखाया जाता रहा और उत्तराखंड सरकार के लोग टेलीविजन में इसी दृश्य को देख कर एक अपवादिक सुख ले रहे थे. कुछ जगहों की स़डकें बंद हो गईं, चार धाम की यात्रा बंद हो गई, अंदाजे से चारों तरफ यह सब कुछ कहा जा रहा था. 18 तारीख को एक परिवार केदारनाथ का दर्शन करना चाहता था, लेकिन जब वह परिवार केदारनाथ के ऊपर गया, तो उस परिवार ने देखा कि वहां तो कुछ भी बचा नहीं है. जब उसने लौट कर बताया, तब केदारनाथ की कहानी लोगों को पता चली. उत्तराखंड की महान सरकार दैवीय आपदा में प़डे लोगों की मदद के नाम पर सिर्फ उनका मखौल उ़डाती थी, क्योंकि लोगों को निकालने का काम तो सेना ने किया. उत्तराखंड के मंत्री और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री टेलीविजन के सामने जिस बॉडी लैंग्वेज का प्रदर्शन करते थे, और जिस मुस्कुराते चेहरे के साथ वे टेलीविजन में आते थे, उससे लोगों को लगता था कि ये कितने असंवेदनशील हैं.
मैं लखनऊ में एक मीटिंग में गया था. शाम को एक परिचित के यहां चाय पर गया. उसने एक चौंकाने वाली कहानी बताई. उसके यहां काम करने वाली युवती ने भी उत्तराखंड के पीड़ितो के लिए कुछ सामान दिया. जब मेरे मित्र के परिवारवालों ने पूछा कि सामान किसको दिया, तो उसने कहा कि सामान हमने सीधे एक संस्था को दिया, जिसने उसे यह कहा था कि वे उत्तराखंड सामान भेज रहे हैं, हमने उनको ही सामान दे दिया. फिर वह ल़डकी सलाह देती है कि मेम साहब प्रधानमंत्री के दफ्तर में मत पैसा भेजना, क्योंकि वहां प्रधानमंत्री पैसा खा जाते हैं, इसलिए पैसा वहां नहीं पहुंचता. यह कहानी सुन कर मुझे अफसोस हुआ कि हमारे राजनेताओं ने अपनी साख कितनी गिरा ली है. यह पहला मौका है, जब प्रधानमंत्री राहत कोष में लोग पैसे नहीं दे रहे हैं और यही हाल मुख्यमंत्री सहायता कोष का भी है. बहुत सारे लोग सीधे सामग्री उत्तराखंड भेज रहे हैं. यह अलग बात है कि सामग्री का ईमानदारी से बंटवारा नहीं हो रहा है.
उत्तराखंड में सरकारी मशीनरी की अकर्मण्यता से फूड रायट्स की स्थिति पैदा हो गई है, क्योंकि भेजा हुआ सामान लूटा जा रहा है. सामान हेलिकॉप्टर से या तो नदियों में या फिर जंगलों में गिर रहा है. और सबसे ब़डी चीज, उत्तराखंड की पूरी प्रशासनिक मशीनरी, विशेषकर पुलिस पंगु है. उत्तराखंड की पुलिस ने इस भीषण आपदा में क्या किया, यह जानना थो़डे दिनों बाद बहुत दिलचस्प रहेगा. जिन्हें पहा़ड पर च़ढने का अनुभव नहीं है, ऐसे नौजवान बाहर से जाकर किसी तरह चोट खाकर भी सामान गांवों में पहुंचा रहे हैं. पर उत्तराखंड सरकार को जो करना चाहिए था, वह सिर्फ हजारों करोड़ मिलने के बाद कैसे उनका खर्च होना है, इसके ऊपर दिमाग लगा रहे थे. सरकार को अपने राज्य के लोगों की चिंता नहीं है. दरअसल, उसे बाहर से आए लोगों की सिर्फ इसलिए चिंता है, क्योंकि देश में उनको लेकर शोर मच रहा है. और उत्तराखंड प्रशासन को इसके लिए और कितनी शाबासी दी जाए, कि शब्द ही कम प़ड जाएं. सिर्फ यही कहने को जी चाहता है कि उत्तराखंड का उदाहरण कोई दूसरा राज्य न बन जाए!
आवश्यकता इस बात की है कि न केवल उत्तराखंड, बल्कि बिहार, उत्तरप्रदेश, उ़डीसा जैसे बा़ढ ग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचने वाली सहायता ईमानदारी से पहुंच जाए और लोग इस बात के लिए सचेत हो जाएं और सरकारों पर दबाव डालें कि वे इन समस्याओं का तर्कपूर्ण समाधान जल्दी तलाशें, क्योंकि सचमुच यह अफसोस की बात है कि हमारा प़डोसी देश चीन बा़ढ के संकट से मुक्ति पा चुका है और हम बा़ढ का इंतजार, या सूखे का इंतजार सिर्फ रुपये खाने के लिए लूट महोत्सव के रूप में करते हैं.
आवश्यकता इस बात की है कि न केवल उत्तराखंड, बल्कि बिहार, उत्तरप्रदेश, उ़डीसा जैसे बा़ढ ग्रस्त क्षेत्रों में पहुंचने वाली सहायता ईमानदारी से पहुंच जाए और लोग इस बात के लिए सचेत हो जाएं और सरकारों पर दबाव डालें कि वे इन समस्याओं का तर्कपूर्ण समाधान जल्दी तलाशें, क्योंकि सचमुच यह अफसोस की बात है कि हमारा प़डोसी देश चीन बा़ढ के संकट से मुक्ति पा चुका है और हम बा़ढ का इंतजार, या सूखे का इंतजार सिर्फ रुपये खाने के लिए लूट महोत्सव के रूप में करते हैं.  

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