शायद यही चुनाव का जादू है. हमारे देश के लोग किसी भी चुनाव में चाहे वो कॉरपोरेशन के चुनाव हों, विधानसभा के चुनाव हों या देश के चुनाव हों, तमाशा देखने में लग जाते हैं. अजूबे की तरह नेताओं के भाषण सुनते हैं और भाषणों को सुनकर कोई सवाल नहीं उठाते हैं. वो ये भी ध्यान नहीं देते कि जो सवाल कॉरपोरेशन के चुनाव में उठाने चाहिए, वो विधानसभाओं में कैसे उठते हैं? उनके वायदे विधानसभाओं में कैसे होते हैं? और जिन सवालों को लोकसभा के चुनावों में उठना चहिए, उन सवालों को विधानसभाओं के ज़रिये कैसे हल किया जा सकता है. लेकिन हमारा देश पिछले 65 साल से तमाशा देखने का आदी है, तमाशा देख रहा है और तमाशा देखता रहेगा. लोग शायद चुनावों को मनोरंजन का एक ज़रिया मानते हैं.
लोकसभा चुनाव की बात करें. देश में महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, ख़राब शिक्षा, ख़राब स्वास्थ्य, ख़राब इन्फ्रास्ट्रक्चर, लोगों के काम में न आने वाला विकास जैसे सवाल, देश जब से आज़ाद हुआ, तबसे उठते रहे. सवालों के जवाब में हर चुनाव में बाज़ीगरी हुई.
बाज़ीगरी का ये तमाशा लोगों ने ख़ूब देखा. लोगों ने इस सवाल पर ध्यान ही नहीं दिया कि इन सबकी ज़ड में क्या है. 2014 का चुनाव भी एक ऐसे ही ग्रैंड स्केल पर भव्य तमाशा बनने वाला है. कोई भी ये सवाल नहीं पूछ रहा है कि इन सबकी ज़ड में देश की आर्थिक नीति है. आर्थिक नीति ही तय करती है कि उत्पादन कैसा होगा, कौन लोग उत्पादन में शामिल होंगे, कौन विकास की धारा में जाएगा, स़डकें कहां बनेंगी, स्कूल कहां खुलेंगे, अस्पताल कहां खुलेंगे, या नहीं खुलेंगे? आर्थिक नीति ही तय करती है कि कितने प्रतिशत लोगों को ग़रीबी के दायरे से निकालना है और कितने प्रतिशत लोगों को ग़रीबी के दायरे में ब़ढाना है, और लाना है? पर आर्थिक नीति पर कभी भी कोई दल, जो केंद्र में सरकार बनाना चाहता है, अपने पत्ते नहीं खोलता है.
इस बार तो हालत और मज़ेदार है. कांग्रेस उदारीकरण की नीति, खुले बाज़ार, खुली अर्थव्यवस्था की नीति पिछले 22 सालों से लागू किए जा रही है. बीच में सरकारें आईं, देवेगौ़डा की सरकार आई, गुजराल साहब की सरकार आई, अटल जी की सरकार आई, किसी ने भी आर्थिक नीति के बारे में एक भी सवाल नहीं ख़डा किया. सबने उसी आर्थिक नीति को आगे ब़ढाया. अब भारतीय जनता पार्टी कह रही है कि कांगे्रस उदारीकरण की नीति को ठीक से लागू नहीं कर रही है. हम इस नीति को ठीक से लागू करेंगे. यानी कांग्रेस के द्वारा ग़लत ढंग से लागू की गई उदारीकरण की नीति ने अगर बेरा़ेजगारी का, खेती के अलाभकारी होने का, विदेशी कंपनियों के पास जल, जंगल, ज़मीन के जाने का जितना आंक़डा है, अगर भारतीय जनता पार्टी आएगी तो उसे ठीक से लागू करेगी और उनके पास ये सारी चीज़ें और आंक़डे और ब़ढेंगे. इसका मतलब देश में विकास सबके लिए नहीं, कुछ ख़ास के लिए होगा. देश में ग़रीबों की संख्या ब़ढेगी. देश में अपराध ब़ढेगा.
ये स्थिति लोगों के समझ में नहीं आ रही है, क्योंकि लोग देश को नहीं, ख़ुद को प्यार करते हैं. अक्सर कहते हैं जनता कभी ग़लत ़फैसला नहीं देती, लेकिन जनता के पास कोई विकल्प ही नहीं है. वो फैसला दे, तो क्या दे. जब सारे दल, सरकार बनाने का दावा करने वाले ब़डे दल या उनकी दुम बनने की हसरत रखने वाले छोटे दल, ये सभी दल जब एक ही तरह की आर्थिक नीति की वकालत करें, तो जनता फैसला दे तो क्या दे? बीच में कुकुरमुत्ते की तरह कुछ छोटे दल आए, जिन्होंने विधानसभा का चुनाव म्युनिसिपैल्टी के सवालों पर ल़डा. लोगों ने तालियां बजाईं और कहा कि हमने सबको देख लिया, अब इनको भी देख लें. ये हमारे देश में एक कमाल की चीज़ है कि हमने इनको देख लिया, इनको देख लिया, अब इनको भी एक बार देख लें. देखें शायद कुछ अच्छा हो. और पांच साल का व़क्त बीतने के बाद हम अपना सिर पीटते हैं कि अरे हम तो बेवकूफ़ बन गए. किसने बेवकूफ़ बनाया?
मैं गायत्री परिवार के संस्थापक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य की एक पुस्तक प़ढ रहा था, जिसमें उन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर देश के सामान्य आदमी के मनोविज्ञान का वर्णन किया है. वो कहते हैं कि हमारा देश अजीब है. हम जब पांच रुपये का घ़डा ख़रीदने जाते हैं तो उसे दस जगह ठोंक बजा कर देखते हैं कि कहीं वो चटका हुआ तो नहीं है. उसके बाद हम उसका मोलभाव करते हैं. चार दुकानों पर जाते हैं, तब हम घ़डा ख़रीदते हैं. पंडित श्रीराम शर्मा आगे कहते हैं कि जब हमारे देश का सामान्य जन अपनी बेटी या बहन की शादी करने जाता है तो वो सौ तरह से पता लगाता है कि जिसके यहां वो शादी कर रहा है वो परिवार कैसा है, उसका चाल-चलन कैसा है, उसकी आर्थिक स्थिति कैसी है, उसकी नेकनामी या बदनामी कैसी है और तब वो शादी के बारे में ़फैसला करता है. पर हमारे देश के लोग महान हैं, जो देश की क़िस्मत पांच साल के लिए जिसके हाथ में देते हैं, उसके बारे में इतना भी पता नहीं करते कि जिसके हाथ में वो क़िस्मत दे रहे हैं, क्या वो क़िस्मत देने लायक हैं. उसकी आर्थिक नीतियां क्या हैं? उसके नेता दागी तो नहीं है, अपराधी तो नहीं हैं? जीतने के बाद वो जनता के पास आएंगे भी या नहीं आएंगे? इतना ही नहीं, पूछते भी नहीं कि भाई तुमको हम वोट देने के बारे में ़फैसला करें तो कम से कम ये तो वादा करो कि तुम हमारे पास आओगे. हमारे दुख-दर्द, तकली़फें सुनोगे. और जहां भी उसका निदान हो सकता है, वहां पर कम से कम सिफ़ारिश कर दोगे. ये नहीं देखते कि उस दल में या उस व्यक्ति में ये क्षमता है कि वो देश के भविष्य को सुधारने वाले सवालों पर समझ रखता भी है या नहीं रखता है. हम जाति धर्म भाषा क्षेत्र और संप्रदाय के नाम पर वोट दे देते हैं और फिर अपना सिर पीटते हैं.
पिछले 65 सालों से ऐसा ही होता आ रहा है. काश! संविधान के अनुसार चुनाव होते, तो राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि संसद में, विधानसभाओं में न जाते. संविधान के अनुरूप चुनाव न होने से जितने प्रतिनिधि संसद में जाते हैं, वे एक ब़डे माफ़िया ग्रुप की तरह काम करते हैं. राजनीति के माफ़ियाओं की तरह से. चुने जाने के बाद उन्हें जनता की कोई परवाह नहीं होती. उन्हें परवाह होती है स़िर्फ विभिन्न प्रकार से आने वाले पैसों के स्रोतों को ब़ढाने की. और जब सरकार नीतियां बनाने के लिए मीटिंग करती है, तो उनमें भी ये सांसद नहीं जाते. आज किसी भी सांसद की सोच का दायरा अपने क्षेत्र और अपने ज़िले से ब़डा नहीं है, जबकि सांसद की सोच के दायरे में पूरा देश आना चाहिए.
2014 का चुनाव आ रहा है और हमने इस चुनाव में एक नई चीज़ देखी. वो नई चीज़ है कि कुछ नये राजनीतिक दल बने हैं, जो विधानसभा या लोकसभा में जाने से पहले ही राजनीतिक माफियाओं की तरह व्यवहार करने लगे हैं. उनका सबसे ब़डा नेता भी वहीं भाषा बोलता है. उनके दाएं ख़डा रहने वाला चाटुकार भी वही भाषा बोलता है. उनके बाएं ख़डा होने वाला बुद्धिजीवी भी वहीं भाषा बोलता है और उनके उम्मीदवार चुने जाने से पहले ही ज़मीन क़ब्ज़ा करने की बात, पैसे लेने की बात, एक कंपनी के हितों के मुक़ाबले दूसरी कंपनी के हितों को ब़ढाने में सहयोग देने की बात करते दिखाई देते हैं. ये किसी विधायक या सांसद का काम नहीं है कि दो कंपनियों की ल़डाई में वो किसी एक का साथ दे, पर पैसे के बदले सब कुछ संभव है. अगर 2014 के लोकसभा चुनावों में भी यही सब होने वाला है, तो फिर ये लोकतंत्र किस काम का? इसका एक वाक्य में अर्थ निकालें कि क्या हमने आज़ादी का मतलब समझा है? क्या हमने देश का मतलब समझा है? क्या हमने लोकतंत्र का मतलब समझा है? अगर नहीं समझा है तो ये मानना चाहिए कि हमारे सामने एक अलग तरह का भविष्य ख़डा है. बहुत सारे देश हैं, जहां लोकतंत्र आया, लेकिन लोकतंत्र की जगह बहुत जल्दी ही तानाशाही आ गई. फ़ौज़ की तानाशाही. और फ़ौज़ की तानाशाही से उन देशों में लंबी ल़डाई हुई और वहां फिर लोकतंत्र, ल़डख़डाते हुए ही सही, लेकिन आ रहा है. हमारे देश में जहां लोकतंत्र सबसे मज़बूत था, जहां वाणी की स्वतंत्रता है, कर्म की स्वतंत्रता है, विचारों की स्वतंत्रता है, वहां पर हमारी इन कमज़ोरियों की वजह से, देश के लोगों की कमज़ोरियों की वजह से ऐसे लोग पार्टियों के नाम पर फल-फूल रहे हैं, जो इस देश के लोकतंत्र को तबाह करने में सबसे ब़डी भूमिका अदा कर रहे हैं. चलिए, सोचें कि हम सोएंगे या कम से कम 2014 के चुनाव में जागकर एक नई सुबह का आग़ाज़ करेंगे.

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