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अन्ना ने अपनी ज़िंदगी को दांव पर लगाया और सरकार से जन-लोकपाल क़ानून बनाने की मांग की. इसके पहले अन्ना कई बार सरकार से बात-चीत कर चुके थे. मंत्रियों से उनकी बातें हो चुकी थीं. मंत्रियों ने उन्हें आश्‍वासन दिया था, लेकिन बाद में अन्ना को हर जगह से धोखा मिला .

अन्ना के ग़ुस्से से शायद कम, लेकिन देश की जनता के ग़ुस्से से डरकर संसद बैठी और एक प्रस्ताव पारित किया गया. हालांकि इस बैठक में पिछली बैठकों की तरह ही अन्ना पर कई सांसदों ने कटाक्ष किया. सबसे कड़ा कटाक्ष लालू प्रसाद यादव की ओर से था. बाद में सर्वसम्मत राय बनी और जनलोकपाल बिल लोकसभा में पास करने का निर्णय हुआ, जिसे सेंस ऑफ हाउस कहा गया.
अन्ना हजारे देश में राजनीतिक विकल्प की बात करने लगे हैं, अन्ना हजारे ने अब यह तय कर लिया है कि वो राजनीतिक दलों के ख़िलाफ़ न केवल जन जागृति करेंगे, बल्कि लोकसभा के चुनाव के लिए ऐसे उम्मीदवारों का समर्थन भी करेंगे, जिनका रिश्ता राजनीतिक दलों से नहीं है. तकनीकी तौर पर यह उम्मीदवार निर्दलीय होंगे, लेकिन अन्ना का कहना है कि इनमें से जिसे जनता खड़ा करेगी, उसे वो जनतंत्र के लिए लड़ने वाला उम्मीदवार मानेंगे. पर इसके लिए उनकी कुछ और शर्ते भी हैं, जिसके बारे में हम बाद में बात करेंगे, पहले हम देखें कि अन्ना के रूख़ में परिवर्तन आया कैसे.
दरअसल अन्ना हजारे ने 2011 में जब भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ रामलीला मैदान में अनशन किया था, तब उन्हें भरोसा नहीं था कि देश की जनता भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ उनके साथ इस क़दर खड़ी हो जाएगी. अगर उन्हें भरोसा होता तो वे देश के लोगों से साथ देने की अपील करते. अन्ना ने अपनी ज़िंदगी को दांव पर लगाया और सरकार से जन-लोकपाल क़ानून बनाने की मांग की. इसके पहले अन्ना कई बार सरकार से बात-चीत कर चुके थे. मंत्रियों से उनकी बातें हो चुकी थीं. मंत्रियों ने उन्हें आश्‍वासन दिया था, लेकिन बाद में अन्ना को हर जगह से धोखा मिला और सरकार के मंत्रियों और राजनीतिक दलों ने अचानक पलटी खाई और उन्होंने अन्ना को जनलोकपाल बिल के मसले पर अकेला छोड़ दिया. अन्ना ने थक हार कर निर्णय किया कि वो आमरण अनशन करेंगे. जिस अनशन पर बैठने के लिए वो लोकनायक जयप्रकाश पार्क में जा रहे थे, वहां जाने से पहले पुलिस ने उन्हें उनके घर से गिरफ्तार कर लिया. पुलिस उन्हें जज के पास ले गई, जहां उन्हें लगभग सात दिन की सजा सुनाई गई. मुश्किल से उन्हें जेल में दो घंटे ही बीते होंगे कि जेल के अधिकारी आए और उनसे कहा कि अन्ना आप बाहर जा सकते हैं, आप की सज़ा माफ़ हो गई. अन्ना ने कहा कि अरे! ऐसे कैसे सज़ा माफ़ हो गई है? अभी तो मुझे सज़ा सुनाई गई है और अभी जेल में आए मुझे तीन घंटे भी नहीं बीते हैं. अधिकारियों ने कहा कि नहीं आपकी सज़ा माफ़ हो गई है. अन्ना ने कहा कि नहीं मैं अभी जेल से बाहर नहीं जाऊंगा और मैं पूरी सज़ा काट कर ही यहां से निकलूंगा. उन्होंने कहा कि अदालत को मैं बनिया की दुकान नहीं समझता कि जहां, जब जैसी मर्जी हो ग्राहक के हिसाब से अपनी क़ीमतों को ऊपर नीचे कर लो. जेल के अधिकारी चले गए और कुछ देर बाद लौट कर बोले की जेल के आईजी ने उन्हें बुलाया है. अन्ना जब आईजी से मिलने पहुंचे तो उन्होंने कहा कि अब आप जेल नहीं जा सकते, क्योंकि अब आप जेल से बाहर आ गए हैं. अन्ना ने कहा कि अगर आप भी वही व्यवहार करेंगे, जैसा कुछ देर पहले आपके मातहत कर रहे थे, तो मैं आपके दफ्तर से नहीं उठूंगा और अन्ना तीन दिन तक आईजी के दफ्तर में बैठे रहे.
और यहीं से शुरू हुआ, देश के लोगों को ग़ुस्सा. ठीक वैसा ही गुस्सा, जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण के सर पर पटना की सड़कों पर लाठी का प्रहार का फोटोग्राफ देखते हुए जनता के मन में उठा था. देश लोकनायक के साथ खड़ा हो गया. उन्हीं लम्हों की पुनरावृत्ति हुई और एक बार देश को फिर से लगा कि 75 वर्ष के सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के साथ सरकार ने अन्याय किया है, जिसके ख़िलाफ़ क्रोधित होकर बहुत बड़ी संख्या में लोग तिहाड़ जेल के सामने बैठ गए. जैसे-जैसे घंटे बीते वैसे-वैसे लोगों की भीड़ तिहाड़ जेल के सामने बढ़ने लगी. सारे देश में प्रदर्शन होने लगे और देश के लोगों को लगा कि एक गांधीवादी और जनता के हित की बात करने वाले व्यक्ति के साथ बहुत ब़डा अन्याय किया जा रहा है. जब अन्ना तीन दिन के बाद जेल से निकले, तो लगभग चार किलोमीटर लंबा जुलूस उनके साथ रामलीला मैदान की तरफ चला. पहले तो सरकार अन्ना हजारे को रामलीला मैदान अनशन के लिए देना ही नहीं चाहती थी, लेकिन इन्हीं तीन दिनों के भीतर रामलीला मैदान को अनशन के लायक बनाया गया और अन्ना सीधे रामलीला मैदान पहुंचे और अपना अनशन जारी रखा. टेलीविजन के सामने इस ग़ुस्से को दिखाने के अलावा कोई चारा नहीं था, न ही प्रिंट मीडिया के पास इसके पक्ष में जाने के अलावा कोई विकल्प. टेलीविजन ने इस घटना को घर-घर पहुंचा दिया और सारे देश में ग़ुस्से की एक लहर फैल गई. रामलीला मैदान में भाषण हो रहे थे, लेकिन यह ग़ुस्सा केवल दिल्ली भर में ही केंद्रित हो, ऐसा नहीं था. देश के अलग-अलग हिस्सों में सभाएं हो रही थीं. जो महिलाएं सभाओं में नहीं जा पा रही थीं, वो अपने गली-मुहल्लों में प्रभात फेरी निकाल रही थीं. बच्चे अन्ना-टोपी लगाकर मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना. सारा देश है अन्ना, के नारे लगाने लगे. नतीजा यह हुआ कि रामलीला मैदान से जो ग़ुस्से का उफान निकला, उसने समूचे देश को अपने दायरे में ले लिया.
अन्ना के ग़ुस्से से शायद कम, लेकिन देश की जनता के ग़ुस्से से डरकर संसद बैठी और एक प्रस्ताव पारित किया गया. हालांकि इस बैठक में पिछली बैठकों की तरह ही अन्ना पर कई सांसदों ने कटाक्ष किया. सबसे कड़ा कटाक्ष लालू प्रसाद यादव की ओर से था. शरद यादव ने भी शिष्ट भाषा का प्रयोग लोकसभा में नहीं किया, लेकिन एक सर्वसम्मत राय बनी और जनलोकपाल बिल लोकसभा में पास करने का निर्णय हुआ, जिसे सेंस ऑफ हाउस कहा गया और जिसे लोकसभा की सामूहिक राय बताई गई. अगले दिन उस प्रस्ताव को लेकर प्रधानमंत्री के पत्र के साथ स्वर्गीय बिलास राव देशमुख अपने कुछ साथी सांसदों के साथ अन्ना से मिलने पहुंचे, उन्होंने अन्ना हजारे को प्रधानमंत्री का एक पत्र और लोकसभा की सेंस ऑफ हाउस की प्रति सौंपी. अन्ना हजारे ने विलास राव देशमुख के कहने पर अपना अनशन तोड़ना स्वीकार कर लिया. इसके पहले, देश के कई जाने-माने लोगों ने अन्ना का अनशन समाप्त करवाने की कोशिशें की, जिनमें श्री श्री रविशंकर और भय्यू जी महाराज प्रमुख थे. ऋषिकेश के स्वामी चिदानंद भी अन्ना का अनशन तुड़वाने गंगाजल लेकर पहुंचे थे, लेकिन अन्ना ने विनम्रता से सबकी अपीलों को नज़रअंदाज़ कर दिया. संसद के सेंस ऑफ हाउस की भाषा देख अन्ना ने अपना अनशन समाप्त कर दिया.
अनशन के बाद अन्ना कुछ दिनों के लिए गुड़गांव के मेदांता हॉस्पिटल में भर्ती हुए, क्योंकि डॉ. नरेश त्रेहन अनशन के दौरान भी उनके स्वास्थ्य की जांच कर रहे थे. कुछ दिन हॉस्पिटल मे रहने के बाद अन्ना अपने मूल स्थान रालेगण सिद्धि चले गए.
इसके बाद, एक तरफ़ सरकार ने अन्ना को अनदेखा करना शुरू किया, तो दूसरी तरफ अन्ना के साथियों ने अन्ना के समर्थन में उठे जनसैलाब को अपने लिए जनता का अंधा समर्थन मान लिया. फिर उन्होंने विभिन्न मुद्दों पर आपस में बातचीत शुरू की, लेकिन इनमें से किसी ने भी यह समझने की कोशिश नहीं की, कि अन्ना हजारे के दिमाग़ में समाजिक  परिवर्तन का नक्शा क्या है. अन्ना हजारे ने जब अनशन किया, उस अनशन से पहले अन्ना ने अपने गांव को बदलने की एक जीती-जागती कोशिश की थी. अन्ना का गांव सही मायने में देश का आदर्श गांव है. इस गांव में पान-बीड़ी-सिगरेट नहीं बिकते. 16 साल पहले जिस गांव में शराब की 40 भठ्ठियां थीं, आज उस गांव में कोई शराब नहीं पीता और जिस गांव में लोगों के खाने के भी लाले पड़े हुए थे, आज उस गांव से रोज 500 लीटर दूध का निर्यात हो रहा है. अकाल पीड़ित गांव में अन्ना ने खाने का संचयन किया. गांव के लोगों को तैयार किया और मॉनसून न आने से जो गांव कभी अकाल पीड़ित क्षेत्र में आता था, आज वहां तीन फसलों के लिए पानी का इंतजाम अन्ना ने करके दिखाया. अन्ना के गांव में उगी हुई सब्जियां विदेशों तक गई हैं.
अन्ना ने 16-18 साल की मेहनत के बाद जो उपलब्धि हासिल की दरअसल, अन्ना उसे बढ़ाकर समूचे देश में लागू करना चाहते थे और उनके दिमाग़ में यह सपना हमेशा घूमता रहता था कि  देश के लोग, हिंदुस्तान के गांवों को स्वावलंबी व आत्मनिर्भर बनाएं. अन्ना को गांधी जी के इस सिद्धांत में पूरा भरोसा था.
पर अन्ना के साथियों अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और किरण बेदी समेत सारे कोर-कमेटी के सदस्यों में से किसी ने भी अन्ना से यह जानने की कोशिश नहीं कि अन्ना के दिमाग़ में समाज परिवर्तन का जो ताना-बाना है, वह कैसा है? लेकिन अन्ना शायद यह समझ चुके थे कि उनके साथियों के दिमाग़ में महज एक क़ानून है और उस क़ानून को ही उनके साथी अपनी अंतिम उपलब्धि मान रहे हैं. अन्ना ने कई बार कोशिश भी की ताकी वे अपना मूल मंतव्य अपने साथियों को समझा सकें, पर अन्ना के साथियों ने न उनकी बात सुनी न ही उनके संकेतों को समझा. उसके बाद अन्ना ज़्यादातर समय रालेगण सिद्धि में ही रहे.
इसी बीच जंतर-मंतर पर अरविंद केजरीवाल ने अपने साथियों मनीष सिसौदिया और गोपाल राय के साथ अनशन करने का फैसला किया. अन्ना इस फैसले से सहमत नहीं थे, लेकिन जब उन्होंने दिल्ली के जंतर-मंतर पर अनशन करना शुरू कर दिया तो अन्ना रालेगण से दिल्ली आए और उनके समर्थन में अनशन शुरू किया.
हमारी जानकारी बताती है कि अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने चुनाव लड़ने या राजनीतिक दल बनाने के बारे में अन्ना से कभी बातचीत नहीं की. अगर बातचीत की भी होगी तो ऐसी भाषा में, जिस भाषा को अन्ना समझ नहीं पाए. जनरल वीके सिंह ने लगभग 10 दिनों के बाद सबका अनशन तुड़वाया, लेकिन जिस दिन अनशन टूटा, अन्ना ने अपनी बात पर क़ायम रहते हुए कहा कि जनता को कोई विकल्प देना चाहिए.  लेकिन अरविंद केजरीवाल ने उस अनशन तोड़ने वाली मीटिंग में ही एक नई पार्टी बनाने और चुनाव लड़ने की भी
घोषणा कर दी. यहां से अन्ना और उनकी पुरानी टीम में दरार दिखने लगी. अन्ना हजारे के साथ अरविंद केजरीवाल ने एक बड़ी मीटिंग रखी, जिसमें ज़्यादातर अन्ना के साथ काम करने वाले और उन्हें समर्थन देने वाले लोग शामिल थे. इनमें कई चैनलों के संपादक भी थे. दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशनल क्लब में दिन भर मीटिंग चली और सबने अलग-अलग राय रखी. अरविंद केजरीवाल का कहना था कि अन्ना ने उनसे कहा है कि- मैं आपका विरोध नहीं करूंगा, मेरी आपको शुभकामनाएं हैं. लेकिन अन्ना ने जो भी वहां कहा हो, इसकी सच्चाई तभी पता चल सकती है, जब वह रिकॉर्डिंग सामने आए. हालांकि  अन्ना ने तभी यह साफ़ कर दिया था कि उनका नई बनने वाली पार्टी से कोई लेना-देना नहीं है और वे लोग उनकी तस्वीर का भी इस्तेमाल नहीं कर सकते. उसी दिन शाम साढ़े सात बजे अन्ना हजारे, बाबा रामदेव और जनरल वीके सिंह की एक बैठक हुई. उस बैठक में  अन्ना ने साफ़ कहा कि जनता कि लिए कुछ करना चाहिए, जिसका समर्थन बाबा रामदेव और जनरल वीके सिंह ने किया. अगले दिन अन्ना वापस रालेगण सिद्धि चले गए. देश में यह संदेश साफ़ चला गया कि अन्ना हजारे अब अपने साथियों अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और मनीष सिसौदिया से अलग हो चुके हैं. किरण बेदी पहले अरविंद केजरीवाल के साथ थीं, लेकिन इस मौ़के पर वे अन्ना हजारे के साथ रहीं.
किरण बेदी, सुनीता गोधारा और राकेश रफ़ीक सहित कई लोग जिनमें से किरण बेदी के अलावा, पहले कभी सार्वजनिक रोशनी में नहीं दिखाई दिए थे, अचानक सामने आ गए. उन लोगों ने अन्ना हजारे पर दबाव बनाया कि अन्ना एक नई कोर कमेटी बनाएं. अन्ना ने दिल्ली में एक बैठक भी की और तब तक लगभग दो साल बीत चुके थे. उनके तर्कों से पूरी तरह से सहमत न होते हुए भी अन्ना ने एक कोर कमेटी बनाने का ़फैसला लिया और इसके लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई, लेकिन पता नहीं क्यों प्रेस कॉन्फ्रेंस के पहले ही अन्ना हजारे को लगा कि अगर वो कोर कमेटी बनाएंगें तो, यह कोर कमेटी भी उनके साथ वही व्यवहार करेगी जो अरविंद केजरीवाल वाली कोर कमेटी ने किया. इसलिए उन्होंने बहुत सावधानी पूर्वक अपने शब्दों का चयन प्रेस कॉन्फ्रेंस में किया. उन्होंने एक
काम-चलाऊ सलाहकार समिति की घोषणा की. अन्ना ने कोर कमेटी शब्द का इस्तेमाल नहीं किया. अन्ना फिर रालेगण चले गए और जाने से पहले रात में उन्होंने जनरल वीके सिंह से मुलाकात की. जनरल से अन्ना ने कहा कि वे चाहते हैं कि जनरल वीके सिंह उनकी सलाहकार समिति में रहें. जनरल वीके सिंह ने अन्ना हजारे से कहा कि मैं आपके लिए सारा काम करूंगा, लेकिन मुझे अभी आप इस सलाहकार कमेटी में विशेष आमंत्रित सदस्य के तौर पर भी मत रखिए. उन्होंने कहा कि मैं आपके लिए काम करता रहुंगा, लेकिन जब तक आप इस कमेटी के गुण दोष को परख ना लें, तब तक आप मुझे इसमें शामिल होने के लिए दबाव न डालें.
शायद यहीं से अन्ना के मन में अपने सलाहकार कमेटी के हर सदस्य को लेकर एक शंका पैदा हो गई. अन्ना ने देखा कि अरविंद केजरीवाल के हटने के बाद उनके पास जो मिलने जाता था, वही एक-दूसरे की शिकायत करने लगता था. सलाहकार समिति के लोग भी एक-दूसरे की शिकायत करते थे. बैठकों में लोग आपस में लड़ते थे, यह सब अन्ना हजारे की आंख के सामने होता था. अन्ना का विश्‍वास अपने साथियों पर से कम होने लगा और उन्होंने इस सलाहकार समिति की दूसरी बैठक बुलाई ही नहीं. अन्ना देश में घूमना चाहते थे, लेकिन अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने कभी अन्ना के देश में घूमने की कोई कारगर योजना नहीं बनाई और न ही कभी अन्ना की भावना को समझने का प्रयास किया. उसी तरह, इस सलाहकार कमेटी ने भी देश भ्रमण की न तो कोई योजना बनाई और न ही उनके विचारों को समझने की कोई कोशिश की. अन्ना सबके विचारों को अपने मन में परखने की कोशिश कर रहे थे. अन्ना से जो भी मिलने जाता था, वे उसकी बातें सुनते थे और अपनी बातें समाज परिवर्तन के संदर्भ में उसके सामने रख देते थे, पर जब वे देखते थे कि उनसे मिलने वाले लोग बाक़ी सारी बातें करते हैं, लेकिन समाज परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन की बात नहीं करते, तो उनके मन में एक डर और संदेह पैदा हो जाता था. इसीलिए अन्ना ने दिल्ली आना भी बहुत कम कर दिया. उन्होंने दिल्ली आने की बजाए अपना रास्ता ही बदलने का निर्णय कर लिया.
इस बीच दिसंबर 2012 में अन्ना की मुलाकात जनरल वीके सिंह और एक अखबार के संपादक से हुई. इसी मुलाक़ात के दौरान अन्ना ने 30 जनवरी को पटना में रैली करने की बात कही. इस बीच अन्ना ने अपने सारे साथियों से कहा कि वे 30 जनवरी को पटना में रैली करना चाहते हैं, लेकिन उनके साथ काम कर रहे उनकी सलाहकार समिति के ज़्यादातर सदस्यों ने इसके ऊपर ध्यान नहीं दिया. जब अन्ना ने इस इच्छा को दोबारा जाहिर किया, तो उनके पास अंतिम रूप से यह संदेशा गया कि वहां पर दो दफ्तर बन गए हैं, दो ग्रुप बन गए हैं और नेता आपस में लड़ रहे हैं. अन्ना का मन और टूट गया, इससे पहले अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण यह कह चुके थे कि अन्ना के पास वापस लौटने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है. योगेंद्र यादव ने यह सार्वजनिक बयान दिया था कि अन्ना हजारे तीन-चार महीनों में उनके पास लौट आएंगे, लेकिन ये लोग अन्ना की इच्छाशक्ति से अपरिचित थे. बस यही उनकी ग़लती थी. उन लोगों ने सोचा कि अगर हम लोग अन्ना को अकेला कर देंगे तो अन्ना उनके पास लौट आएंगे, लेकिन अन्ना जिस प्रक्रिया में अन्ना बने हैं, उस प्रक्रिया ने उन्हें लौहपुरुष बना दिया. दरअसल, उनकी सलाहकार समिति में हर नया आदमी अरविंद केजरीवाल जैसी ख्याति बटोरना चाहता था, लेकिन वहीं अन्ना अपने लिए व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई लड़ने वाले साथियों की तलाश कर रहे थे. इस बीच अन्ना के पास महाराष्ट्र से कई सारे साथी आए, लेकिन अन्ना को लगा कि कोई भी राष्ट्रीय फलक के ऊपर शायद काम न कर पाए, इसलिए अन्ना रालेगण सिद्धि में ही जमकर बैठ गए. जब उनकी जनरल वीके सिंह और एक अख़बार के संपादक से मुलाक़ात हुई तो, अन्ना को लगा कि अब समाज परिवर्तन की उनकी कल्पना को आगे ले जाने वाले साथियों की तस्वीर साफ़ हो रही है. उन्होंने समाज परिवर्तन की अपनी जिन-जिन बातों को रखा, उनसे जनरल वीके सिंह और उन संपादक ने अपनी सहमति जाहिर की. वहीं यह तय हुआ की पटना में 30 जनवरी को रैली की जाए, जिसमें अन्ना जी जाएंगे और सभी मिल जुलकर समाज परिवर्तन और व्यवस्था परिवर्तन के अन्ना के सपने को साकार करेंगे. इसके साथ ही एक और नई सामाजिक क्रांति की शुरुआत हो चुकी थी.

 

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