‘यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की बात करने वाले जिस समाज में हर घंटे 40 बलात्कार होते हों, ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ को सियासी नारा बना देने वाली जिस सरकार के कार्यकाल में देश की राजधानी में मासूमों के खिलाफ यौन उत्पीड़न के मामले 34 फीसदी बढ़ जाएं और जहां शीर्ष न्यायालय से फटकार सुनने के बाद भी निर्भया फंड के उद्देश्यों की पूर्ति में सरकारों की निर्लज्जता आड़े आ जाए, वहां अब आधी आबादी की भावी पीढ़ी से यह गुहार लगाने का ही रास्ता बचता है कि

daughter‘ऐसे अपराध कानून की कमी की वजह से नहीं, बल्कि सुशासन की कमी के कारण होते हैं.’ निर्भया कांड के बाद रेप और यौन शोषण से जुड़े कानून को बेहतर बनाने का सुझाव देने के लिए तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा गठित की गई कमिटी के अध्यक्ष जस्टिस जे. एस. वर्मा ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए यही कहा था. वर्मा कमिटी की सिफारिशों पर कानून बने आधा दशक बीत गया, लेकिन अफसोस कि देश में सुशासन का राज स्थापित नहीं हो सका. नतीजतन, बलात्कार और यौन अपराध के मामले दिन-ब-दिन बढ़ते ही जा रहे हैं और यह समस्या सरकार और समाज के सामने सुरसा की भांति मुंह फैलाए खड़ी हैं. हालांकि समस्या केवल यही नहीं है कि यौन अपराधों में बढ़ोतरी हो रही है, बड़ी चिंता की बात यह है कि ऐसे मामले अंजाम तक पहुंच ही नहीं पा रहे और ज्यादातर केस में अपराधी छूट जा रहे हैं. 2014 से 2016 के बीच देशभर में बलात्कार के कुल 1,10,233 मामले दर्ज हुए, लेकिन इनमें से 79,776 मामलों में आरोपी छूट गए.

ऐसे मामलों में पूर्ण निपटारे की बात करें, तो नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2016 में देश की विभिन्न अदालतों में चल रहे बलात्कार के 1 लाख 52 हजार 165 नए-पुराने मामलों में से केवल 25 का ही निपटारा किया जा सका, जबकि इस साल बलात्कार के 38 हजार 847 नए मामले दर्ज किए गए. महिलाओं के खिलाफ होने वाले दूसरे अपराधों की बात करें, तो ऐसी घटनाओं में 2016 में सिर्फ 18.9 फीसदी केस में सजा हो पाई. जम्मू के कठुआ में 8 साल की बच्ची जिस दरिंदगी की शिकार हुई, उसने सबको झंझोड़ कर रख दिया, लेकिन उससे भी भयावह बात यह है कि बच्चों से जुड़े ऐसे यौन अपराधों में सजा के आंकड़े निराशाजनक तस्वीर पेश करते हैं. केवल 2016 में मासूम बच्चों से बलात्कार के 19,675 मामले रिपोर्ट हुए, लेकिन इस साल केवल 30 फीसदी ऐसे अपराधियों को सजा हो पाई, जो बच्चों से सम्बन्धित यौन अपराधों में संलिप्त थे.

मासूमियत पर हावी हवस

बलात्कार जैसे यौन अपराधों के आरोपी सरकार और कानून व्यवस्था को तो ठेंगा दिखा ही रहे हैं, इनकी हवस ने अब नन्ही बच्चियों और मासूमों को भी असुरक्षित कर दिया है. कठुआ की घटना इसकी बानगी है, जहां 8 साल की एक मासूम सिर्फ दो लड़कों की ही नहीं, बल्कि एक अधेड़ और एक पुलिस वाले के हवस की भी बलि चढ़ गई. इस घटना के बाद 2 महीनों तक समाज और सरकार के बीच पसरा सन्नाटा भी वह कारण है, जिससे ऐसे अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं. केवल अप्रैल महीने के पहले पखवाड़े की ही बात करें तो मासूम बच्चियों से बलात्कार के दर्जन भर से ज्यादा मामले सामने आ चुके हैं. कठुआ की मासूम बच्ची को न्याय दिलाने की मांग उठ ही रही थी कि 6 अप्रैल को गुजरात के सूरत में पुलिस ने 11 साल की एक बच्ची का शव बरामद किया, जिसके शरीर पर चोटों के 86 निशान थे, बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी गई थी.

इस घटना के 4 दिन बाद ही बिहार के सासाराम से 6 साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार की खबर आई. 12 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक 16 वर्षीय छात्रा को अगवा कर उसके साथ बलात्कार किया गया. 13 अप्रैल को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में तो 9 साल की एक बच्ची अपने सौतेले पिता की हवस का शिकार बन गई. इंसानियत को शर्मसार करने वाली एक और खबर 14 अप्रैल को बिहार के सिवान से आई, जहां गोरेयाकोठी में 8 वर्षीय दिव्यांग बच्ची के साथ बलात्कार किया गया था. इसके अगले ही दिन बिहार की राजधानी पटना में एक लड़की सामूहिक दुष्कर्म की शिकार हो गई. इसी दौरान राजधानी दिल्ली में 19 साल की एक लड़की से हैवानियत का एक मामला सामने आया.

इस लड़की को 30 मार्च से ही दिल्ली के अमन विहार इलाके में बंधक बनाकर रखा गया था और उसके साथ बलात्कार और मारपीट की गई थी. पुलिस के अनुसार, उस लड़की के शरीर का कोई हिस्सा ऐसा नहीं था, जहां जख्म के निशान न हों. 16 अप्रैल को तो तीन ऐसी घटनाएं सामने आईं, जिन्होंने मानवता को भी शर्मसार कर दिया. पहली घटना हरियाणा के रोहतक की थी, जहां के तितौली गांव से पुलिस ने 9 साल की एक बच्ची का शव बरामद किया. बलात्कार के बाद उसके शव को बैग में डालकर नाले में फेंक दिया गया था. दूसरी घटना भी हरियाणा से ही थी, हरियाणा के पलवल में 7 साल की बच्ची दुष्कर्म की शिकार हो गई. इससे पहले 3 मार्च को भी पलवल में 6 साल की एक बच्ची के साथ बलात्कार की घटना सामने आई थी.

16 अप्रैल की तीसरी घटना ओड़ीशा के बालेश्वर की थी, जहां एक 48 वर्षीय व्यक्ति ने 8 साल की बच्ची को अपनी हवस का शिकार बना लिया. 17 अप्रैल को उत्तर प्रदेश के एटा में 8 साल की बच्ची के साथ बलात्कार और हत्या का मामला सामने आया, वहीं 19 अप्रैल को छत्तीसगढ़ के कवर्धा से खबर आई कि वहां 12 साल की बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या कर दी गई है. मासूम बच्चियों के साथ हैवानियत वाली घटनाओं की ये फेहरिस्त चिंता की बात तो है ही, लेकिन उससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि इनमें से अधिकतर घटनाएं हर दिन अखबारों की सुर्खियों में दम तोड़ देती हैं. किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता, न सरकार को, न समाज को.

कठघरे में सत्ता-सियासत

वो चाहे उन्नाव मामले में आरोपी को बचाने की कोशिश हो या कठुआ मामले का राजनीतिकरण, हर जगह स्पष्ट नजर आया कि ऐसे मामलों में भी सियासत का स्तर कितना नीचे जा सकता है. लेकिन यह नया नहीं है और न ही यह केवल आरोपी का ढाल बनने तक सीमित है. एडीआर की रिपोर्ट कहती है कि देश के मौजूदा 48 सांसदों-विधायकों पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न का आरोप है और इनमें सर्वाधिक भारतीय जनता पार्टी से जुड़े हैं. भाजपा के 12, शिवसेना के 7, टीएमसी के 6, टीडीपी के 5, कांग्रेस के 4, बीजेडी के 4,  3 निर्दलीय, जेएमएम के 2, आरजेडी के 2, डीएमके के 2 और सीपीएम के 1 सांसद-विधायक महिला हिंसा के आरोपी हैं. जाहिर सी बात है, इनमें से कई मंत्री भी हैं और उनपर ही कानून-व्यवस्था की भी जिम्मेदारी है.

यह भी एक कारण है कि न तो यौन उत्पीड़न की घटनाओं पर लगाम लग रही है और न ही उसके बाद की कार्रवाई और पीड़िताओं की सहायता से सम्बन्धित मामलों में कार्यवाही में तेजी आ पा रही है. इसका एक उदाहरण है निर्भया फंड का खर्च. निर्भया मामले के बाद सरकार ने बलात्कार पीड़िताओं की आर्थिक सहायता के लिए ‘निर्भया फंड’ बनाया था, लेकिन 6 साल बाद भी इस फंड का उद्देश्य अधूरा ही दिख रहा है. 1000 करोड़ रुपए की राशि के साथ 2013-14 में यह फंड शुरू किया गया था. उसके बाद हर वित्तीय वर्ष में इसमें 1000 करोड़ जुड़ते गए और अभी यह फंड 5 हजार करोड़ रुपए तक पहुंच गया है, लेकिन इसका 40 फीसदी हिस्सा भी अब तक खर्च नहीं हो पाया है. हालत यह है कि इस मामले में सरकारों की निष्क्रियता को लेकर सुप्रीम कोर्ट को डांट लगानी पड़ रही है.

सुप्रीम कोर्ट ने 9 जनवरी 2018 को सभी राज्य सरकारों से यह बताने के लिए कहा था कि उन्होंने यौन उत्पीड़न की कितनी पीड़िता महिलाओं को निर्भया फंड से कितना पैसा दिया. लेकिन राज्य सरकारों ने इस मामले में कोई जवाब दाखिल नहीं किया. उसके बाद 15 फरवरी को कोर्ट ने राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्भया फंड खर्च ना करने और बलात्कार पीड़िताओं की मदद में कोताही बरतने को लेकर फटकार लगाई. बलात्कार पीड़िताओं की मदद के लिए मात्र छह से साढ़े छह हजार रुपए खर्च करने वाले मध्य प्रदेश के रवैये पर तो कोर्ट ने यहां तक कह दिया कि क्या मध्य प्रदेश सरकार ने बलात्कार की कीमत 6500 रुपए लगाई है.

बेकार पड़ा निर्भया फंड

निर्भया फंड के बेकार पड़े रहने के पीछे एक कारण यह भी है कि इसे जरूरतमंदों तक पहुंचाने में केंद्र और राज्य सरकारों की बराबर की भागीदारी है. निर्भया फंड के अंतर्गत ही 200 करोड़ का सेंट्रल विक्टिम कॉम्पेनसेशन फंड बनाया गया था, जिसके जरिए बलात्कार या एसिड अटैक की पीड़िताओं को 3 लाख रुपए का मुआवजा दिए जाने की बात कही गई थी. इस मुआवजे की 50 फीसदी राशि केंद्र को देनी थी और बाकी 50 फीसदी का वहन राज्य सरकारों को करना था, लेकिन राज्य सरकारें फंड की कमी बताकर इसका भुगतान नहीं कर रही हैं.

इससे बलात्कार पीड़िताओं को लेकर हमारी सरकारों का रवैया सहज ही समझा जा सकता है. निर्भया कांड के बाद पीड़िताओं के लिए वन स्टॉप सेंटर्स को भी सबसे जरूरी बताया गया था, लेकिन केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का ही आंकड़ा है कि नवंबर 2017 तक देशभर में 660 वन स्टॉप सेंटर्स में से मात्र 165 ही खोले जा सके हैं. फंड के खर्च की बात करें, तो पिछले साल जनवरी में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की तरफ से कहा गया था कि निर्भया फंड के अंतर्गत अभी तक 2,195.97 करोड़ रुपए के 18 प्रपोजल विभिन्न मंत्रालयों की तरफ से आए हैं, जिनमें से 2,187.47 करोड़ रुपए के 16 प्रपोजल को मंजूरी मिल गई है. इस मंजूरी का क्या हुआ पता नहीं, इधर केंद्र सरकार ने इस साल निर्भया फंड से करीब 3 हजार करोड़ का एक अन्य प्रोजेक्ट तैयार कर दिया है. 2919 करोड़ के इस प्रोजेक्ट को नाम दिया गया है ‘सेफ सिटीज’.

सार्वजनिक स्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा और क्विक रेस्पॉन्स सिस्टम तैयार करने के लिए केंद्र सरकार ने 1 मार्च 2018 को इस प्रोजेक्ट को मंजूरी दी. इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत देश के 8 शहरों दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई, अहमदाबाद, कोलकता, बेंगलुरु और लखनऊ को स्थानीय निकायों और पुलिस मुख्यालयों के सहयोग से आधुनिक तकनीक द्वारा महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाया जाना है. इसके लिए दिल्ली में 663 करोड़, मुम्बई में 252 करोड़, चेन्नई में 425 करोड़, अहमदाबाद में 253 करोड़, कोलकता में 181.32 करोड़ और बेंगलुरु में 667 करोड़ रुपए खर्च होने हैं. भारी-भरखम बजट वाले इस प्रोजेक्ट का सही क्रियान्वयन देश के बड़े शहरों में महिलाओं के लिए सुरक्षातंत्र को मजबूत बना सकता है. लेकिन निर्भया फंड के खर्च में बीते 6 सालों से चल रही लापरवाही इसमें शक पैदा करती है.

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