कहते हैं कि राजनीति में बिहार जो आज सोचता है, पूरा देश कल वही सोचता है. ऐसे में बिहार की हर एक राजनीतिक करवट का अपना महत्व है. चाहे वो महागठबंधन बनने का हो या टूटने का. ऐसे में यह देखना जरूरी है कि भाजपा के साथ नीतीश कुमार की एक बार फिर से नई दोस्ती का सफर कैसा चल रहा है? नीतीश कुमार के सलाहकारों और प्रिय नौकरशाहों की जानकारी, जो पर्दे के पीछे से सरकार और बिहार चला रहे हैं. साथ ही गठबंधन के उलझे तार और शराबबंदी की सच्चाई का नंगा सच भी देखिए.

नीतीश की कोर टीम

इतिहास के पन्नों को अगर पलटें, तो महान मुगल बादशाह अकबर के दरबार में विराजमान नवरत्नों ने बादशाह अकबर को न केवल अकबर महान बनने में, बल्कि दुनिया भर में कीर्ति फैलाने में भी पूरा सहयोग दिया. अलग-अलग क्षेत्रों में बेमिसाल ये नवरत्न अकबर के पूरे शासनकाल की रीढ़ बने रहे. वर्तमान की बात करें, तो ठीक इसी तरह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल में बिहार के खाते में आई उपलब्धियों में परदे के पीछे इनके नवरत्नों का भी पसीना बहा है. भले ही इन नवरत्नों में कामों का बंटवारा मौखिक ही हो, पर इन्होंने अपने कामों को बखूबी अंजाम देने में रात-दिन का फर्क मिटा दिया.

मामला चाहे प्रशासनिक हो या फिर राजनीतिक, दैनिक दिनचर्या से लेकर मेहमानों की खातिरदारी तक के कामों में भी इन नवरत्नों का दिमाग लगता है. देश-दुनिया में बिहार और मुख्यमंत्री की छवि उभारने का जिम्मा भी इन्हीं नवरत्नों के हवाले है. कई मंत्रियों, अधिकारियों एवं मतलबी दरबारियों को भले ही इन नवरत्नों की भूमिका रास न आती हो, पर परदे के पीछे के ये हीरो चाहते हैं कि अपनी पूरी क्षमता से नीतीश कुमार को सहयोग करते रहें, ताकि बिहार देश का नंबर एक राज्य बन सके.

नीतीश कुमार के इन नवरत्नों में पहला नाम रामचन्द्र प्रसाद का है. मुख्यमंत्री के खासमखास रामचन्द्र प्रसाद को लोग आरसीपी के नाम से ज्यादा जानते हैं. आरसीपी नीतीश के दरबार के पुराने रत्नों में से एक हैं. कृषि मंत्री, भूतल परिवहन मंत्री और रेलमंत्री के रूप में नीतीश कुमार के कार्यकाल के दौरान भी आरसीपी इनसे जुड़े रहे. यही कारण है कि लो-प्रोफाइल रहने वाले आरसीपी इस समय नीतीश कुमार के सबसे भरोसेमंद सहयोगी हैं. बताया जाता है कि मुख्यमंत्री के राजनीतिक एवं सरकारी स्तर पर गोपनीय कार्य के साथ गृह एवं कार्मिक विभाग के अहम फैसलों में भी आरसीपी नीतीश कुमार को सहयोग करते हैं.

बड़े अधिकारियों के तबादलों पर भी आरसीपी की नजर रहती है. लेकिन इस समय आरसीपी ने अपना पूरा ध्यान जद (यू) को राष्ट्रीय स्तर पर फैलाने में लगाया हुआ है. पार्टी की सारी जिम्मेदारियों का निर्वहन और भाजपा के साथ रिश्तों की कथा-पटकथा आरसीपी ही लिखते हैं. उत्तर प्रदेश कैडर के आईएएस अधिकारी रहे आरसीपी साए की तरह नीतीश कुमार के साथ रहते हैं. आरसीपी पर नीतीश कुमार का भरोसा कई मंत्रियों, विधायकों और अधिकारियों के लिए जलन का कारण बना हुआ है. आरसीपी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं का काम करें या नहीं करें, किन्तु व्यवहार से सबको खुश किए रहते हैं. इससे मुख्यमंत्री को राजनीतिक फायदा भी होता है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नवरत्नों में दूसरे नंबर पर चंचल कुमार हैं. मुख्यमंत्री के सचिव चंचल कुमार बिहार कैडर के आईएएस अधिकारी हैं. मधुबनी के रहने वाले चंचल कुमार नालंदा सहित कई जिलों में कई वर्षों तक जिलाधिकारी के रूप में तैनात रहे हैं. रेल मंत्री के पूरे कार्यकाल में वे नीतीश कुमार के साथ रहे. बताया जाता है कि मुख्यमंत्री शिक्षा, स्वास्थ्य, भवन, सूचना, जनसम्पर्क, विधि, अनुसूचित जाति एवं जनजाति कल्याण, समाज कल्याण, पंचायती राज, पिछड़ा वर्ग एवं अति पिछड़ा वर्ग कल्याण, अल्पसंख्यक कल्याण, वित्त श्रम संसाधन एवं कला संस्कृति विभाग से सम्बन्धित निर्णय लेने में चंचल कुमार की राय को तवज्जो देते हैं. रेल मंत्री के कार्यकाल में नीतीश कुमार का भरोसा जीतने वाले चंचल कुमार कार्यकताओं एवं नेताओं से भी बहुत सहजता से मिलते हैं.

इनके अलावा नीतीश कुमार के भरोसेमंद अधिकारियों की टीम में ब्रजेश मेहरोत्रा, आमिर सुबहानी और अतीश चंद्रा भी शामिल हैं. केंद्र सरकार के साथ तालमेल और राज्य के हितों की रक्षा के लिए केंद्रीय मदद का सारा ब्लूप्रिंट ये अधिकारी ही तैयार करते हैं. सुरक्षा का जिम्मा संभालने वाले हरेंद्र कुमार भी नीतीश के खास हैं. लगभग बीस वर्षों से नीतीश कुमार के साथ जुड़े हैं. सुरक्षा के अलावा इनका काम मुख्यमंत्री को समय पर भोजन कराने से लेकर महत्वपूर्ण लोगों से मोबाइल पर बात कराना, दवा खिलाना एवं अन्य सारे घरेलू कार्य को पूरा करना भी है. मुख्यमंत्री इनपर बहुत ज्यादा भरोसा करते हैं. अंजनी सिंह और गुप्तेश्वर पांडेय के साथ संजय सिंह भी नीतीश कुमार को बेहद पसंद हैं और इन अधिकारियों ने भी मुख्यमंत्री को कभी निराश नहीं किया है.

दोस्ती में गांठ

कहते हैं कि अगर दोस्ती में एक बार गांठ पड़ जाए तो वह हमेशा के लिए शक के घेरे में आ जाती है. दोस्ती से बंधे लोग कहने को तो अपनी दोस्ती के धर्म का पालन करते और दिखाते नजर आते हैं, लेकिन अंदरखाने की हकीकत यह होती है कि दोस्ती के सूत्र में बंधा हर किरदार दूसरे किरदार को शक की निगाह से देखता है. नीतीश कुमार ने जिस दिन भाजपा के साथ अपना दशकों पुराना रिश्ता तोड़ा, उसी दिन यह बात चर्चा में थी कि देर सबेर वे एक बार फिर अपनी पुरानी दोस्ती को जिंदा जरूर करेंगे. साल 2015 में महागठबंधन बना और नीतीश कुमार एक बार फिर सूबे के मुखिया बन गए. लेकिन जैसी कि आशंका थी, लालू प्रसाद से नीतीश कुमार की दोस्ती साल भर भी नहीं चल पाई और एक बार फिर जद (यू) प्रमुख ने भाजपा का हाथ थाम लिया और बिहार में एनडीए की सरकार बना डाली. इस तरह नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ दोस्ती का एक चक्र पूरा कर लिया.

लेकिन भाजपा के साथ इनकी नई दोस्ती खुद नीतीश कुमार की अपनी कसौटी पर खरी उतर रही है या नहीं, यह एक ऐसा सवाल है जिसे अब मुख्यमंत्री से जुड़ा हर एक शख्स पूछने लगा है. भाजपा के साथ दो बार दोस्ती करने से पहले से ही नीतीश कुमार साफ-साफ कहते रहे हैं कि बिहार का विकास इनकी प्राथमिकता है और वे अपना हर कदम इसी सपने को पूरा करने के लिए उठाते हैं. भाजपा के साथ नई सरकार बनाने के बाद जब इनसे लोगों ने महागठबंधन तोड़ने और भाजपा के साथ दोबारा दोस्ती का कारण पूछा, तो उस समय भी नीतीश कुमार ने यह कहकर सबकी बोलती बंद कर दी कि सूबे की जनता ने मुझे विकास के लिए वोट दिया है किसी के भ्रष्टाचार को छिपाने के लिए नहीं. उन्होेंने कहा कि बिहार के विकास के लिए वे हमेशा से संकल्पित हैं और आगे भी रहेंगे.

हालांकि नीतीश कुमार लगातार विकास की दुुहाई तो दे रहे हैं, लेकिन जमीन पर कुछ खास होता नजर नहीं आ रहा है. आम धारणा है कि केंद्र और राज्य में एक ही गठबंधन की सरकार बनने से विकास की गति बढ़ जाती है. बिहार में भी जब नीतीश कुमार ने तमाम अटकलों को विराम लगाते हुए भाजपा के साथ सरकार बनाई, तो कहा जाने लगा कि अब डबल इंजन लग गया. लगभग दो दशक बाद जब बिहार और केंद्र में एक ही गठबंधन वाली सरकार बनी, तो विकास की उम्मीद जगी. लेकिन साल पूरा होने को है और विकास की तस्वीर धूंधली-धूंधली सी ही नजर आ रही है.

आम तौर पर विकास, भ्रष्टाचार और धर्मनिरपेक्षता के मुद्दों पर तुरंत फैसला लेने वाले नीतीश कुमार इस पारी में कुछ लाचार दिख रहे हैं. विरोधी तो कहते हैं कि सरकार नीतीश नहीं, बल्कि भाजपा और संघ चला रहे हैं. सरकार में वही हो रहा है, जो भाजपा चाह रही है और नीतीश कुमार चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं. अपने चंद भरोसे के नौकरशाहों के भरोसे नीतीश अपनी वही पुरानी हनक पाने की कोशिश तो कर रहे हैं, लेकिन हाल की कुछ घटनाओं से साफ हो गया है कि इस सरकार में पहले वाली भाजपा- जद (यू) सरकार की तरह तालमेल नहीं है या ज्यादा स्पष्ट कहा जाय तो भाजपा वह तालमेल चाहती ही नहीं है.

न ताल है न मेल है

नई सरकार बनी तो यह बात कही जाने लगी कि बिहार को विशेष राज्य का दर्जा मिले न मिले, कम से कम जल्द से जल्द विशेष पैकेज तो मिल ही जाएगा. लेकिन विशेष पैकेज को लेकर जो देरी हो रही है, इसका खामियाजा बिहार रोज भुगत रहा है. अभी जब चंद्रबाबू नायडू ने विशेष राज्य को लेकर बवाल काटा हुआ है, तो नीतीश कुमार को कुछ बोलते नहीं बन रहा है. वे बस इतना कह रहे हैं कि मैं हर हमेशा बोलने वाला इंसान नहीं हूं. 15 वें वित्त आयोग के पास पूरा मामला है और बिहार के लिए कुछ अच्छा ही होगा.

नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदगी में पटना विश्वविद्यालय को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग की, लेकिन प्रधानमंत्री ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया. नीतीश कुमार नहीं चाहते थे कि जद (यू) जहानाबाद का उपचुनाव लड़े. जद (यू) ने ऐलान भी कर दिया कि वो उपचुनाव में हिस्सा नहीं लेगी. लेकिन आखिरकार भाजपा ने ऐसा दबाव बनाया कि नीतीश कुमार को वहां अपना प्रत्याशी उतारना पड़ा. जद (यू) प्रत्याशी अभिराम शर्मा वहां भारी अंतर से चुनाव हार गए और नीतीश के हिस्से में आई केवल बदनामी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि अपनी बात के पक्के नीतीश कुमार इतने मजबूर कैसे हो गए कि न चाहते हुए भी उन्हें अपना प्रत्याशी चुनावी समर में उतारना पड़ा. कहने वाले कहने लगे है कि सरकार में तो भाजपा की ही चल रही है.

बालू संकट को लेकर भी नीतीश कुमार लाचार दिखे. सरकार यह बता ही नहीं पाई कि वो करना क्या चाहती है. कहा जा रहा है कि भाजपा ने केके पाठक को खुली छूट दे दी थी कि वे अपने हिसाब से चीजों को देेखें. नीतीश कुमार के पास इसे लेकर जमीनी फीडबैक भी आ रहा था कि इससे नुकसान के अलावा और कुछ नहीं हो रहा है. राजस्व का घाटा तो हो ही रहा है, पब्लिक का मूड भी बिगड़ रहा है. दूसरी ओर मुख्यमंत्री के सात निश्चय वाले प्रोजेक्ट भी पीछे छूटने लगे. लेकिन नीतीश कुमार केवल यह कहते रहे कि समय दीजिए सब ठीक हो जाएगा.

इस मामले में आखिरकार हाईकोर्ट का डंडा चला और सरकार ने एक बार फिर बालू उठाव की पुरानी नीति को ही लागू कर दिया. हाल के दिनों में नीतीश कुमार की छवि को बड़ा झटका भागलपुर कांड ने दिया. केंद्रीय मंत्री अश्विनी चौबे के बेटे अर्जित की गिरफ्तारी में जिस तरह टालमटोल किया गया, उससे लोगों को लगने लगा कि इस सरकार की डोर नीतीश कुमार के बजाय किसी दूसरे के हाथ में है. हालांकि नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि न तो भ्रष्टाचार से और न ही धर्मनिरपेक्षता को नुकसान पहुंचाने वालों से कोई समझौता होगा. भागलपुर के बाद बिहार के शेखपुरा, नालंदा और औरंगाबाद में साम्प्रदायिक तनाव फैला.

नीतीश कुमार के अपने पूरे कार्यकाल में यह पहला मौका था, जब इस तरह की वारदात सामने आई. इन घटनाओं से आम धारणा यह बनी कि भाजपा अपने हिंदुत्व का एजेंडा बिहार में धीरे-धीरे लागू कर रही है और नीतीश कुमार चाहकर भी भाजपा के कदम नहीं रोक पा रहे हैं. इधर अर्जित मामले को लेकर भाजपा नेताओं का एक प्रतिनिधिमंडल डीजीपी से मिल आया. इससे सरकार के लिए बड़ी ही दुविधा की स्थिति उत्पन्न हो गई. जद (यू) के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी ने तुरंत बयान जारी किया कि भाजपा नेताओं को कुछ बात कहनी थी तो वे मुख्यमंत्री को कह सकते थे या फिर एनडीए की  बैठक में कह सकते थे. लेकिन सरकार में रहते डीजीपी से प्रतिनिधिमंडल का मिलना ठीक नहीं है.

जानकार बताते हैं कि दरअसल भाजपा नीतीश कुमार के साथ इस नई दोस्ती को एक अस्थायी लॉन्चिंग पैड की तरह इस्तेमाल कर रही है. भाजपा ने जिस तरह अर्जित के कारनामों को महिमामंडित किया, उससे यह साफ हो गया कि नीतीश कुमार भले इसे गलत मान रहे हैं, पर भाजपा सरकार में रहते हुए भी इसे जायज ठहरा रही है. भाजपा का पिछला अनुभव यह रहा है कि सरकार के सभी कामों का पूरा श्रेय नीतीश कुमार उठा ले जाते हैं और पार्टी के हाथ में कुछ नहीं लगता है. भाजपा को यह पूरा अहसास है कि इस बार इसे एक मजबूत राजद से लड़ना है और किसी भी हाल में लोकसभा चुनाव में उम्दा प्रदर्शन करना है. लेकिन यह तभी संभव है जब भाजपा अपनी विचारधारा के आधार पर सरकार की नीतियों को प्रभावी बनाए.

अगर ऐसा होता है, तो नीतीश कुमार की धर्मनिरपेक्ष छवि को धक्का पहुंचेगा और न हुआ, तो भाजपा अपनी चुनावी तैयारी में पीछे छूटती हुई दिखाई पड़ेगी. भाजपा का पूरा प्रयास है कि बिहार की जनता को यह साफ दिखे कि भाजपा ने नीतीश के ना चाहते हुए भी बहुत सारे कामों को अंजाम दे दिया. मतलब यह कि इन कामों का पूरा यश भाजपा अपने माथे पर सजाना चाहती है न कि नीतीश के माथे पर. नीतीश कुमार की दुविधा या लाचारी की असली वजह यही है. सरकार बने अभी साल भर भी नहीं हुए हैं, ऐसे में गठबंधन को लेकर कोई उल्टी बात करना आत्मघाती हो सकता है. इसलिए नीतीश बस इतना कह रहे हैं कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा हर हाल में की जाएगी.

नीतीश कुमार सूबे के हर नागरिक को सुरक्षा प्रदान करने की भी बात कर रहे हैं. लेकिन भाजपा के बढ़ते कदम का उनकी छवी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है और वे उनके पास इसका कोई इलाज भी नहीं दिख रहा है. भाजपा और जद (यू) में दोस्ती है और सरकार चल रही है, लेकिन इस दोस्ती और सरकार में मिठास कम और तीखापन कुछ ज्यादा लग रहा है. लगता है दोनों ही मजबूरी की सरकार चला रहे हैं. भाजपा और जदयू को साथ मिलकर सरकार चलाने की मजबूरी है और हकीकत भी यही है कि सरकार बस चल रही है. समय और मुद्दों के हिसाब से सत्ता की डोर अलग अलग हाथों में चली जाती है. कभी जद (यू) का पलड़ा भारी दिखता है, तो कभी भाजपा का. अफसोस की बात यह है कि दोनों का पलड़ा कभी समान नहीं दिख रहा है. मौजूदा सरकार के लिए यही बात चिंता का सबब है. देखना दिलचस्प होगा कि मजबूरी-मजबूरी के इस खेल से परदा कब उठता है और कौन उठाता है.

शराबबंदी: 1.06 लाख एफआईआर 1.27 लाख गिरफ्तारियां

बिहार में पूर्ण शराबबंदी के दो साल पूरे हो गए हैं. सरकार कहती है कि समाज सुधार से जुड़ा यह अभियान गरीबों के घरों में खुशहाली लेकर आया है. वहीं विपक्ष का आरोप है कि सरकारी दावे खोखले हैं और शराब की अब होम डिलेवरी हो रही है. नशाबंदी के नाम पर गरीब लोगों को जेल भेजा जा रहा है. लेकिन बिहार की जमीनी हकीकत इन दावों और आरोपों की बीच की है. यह कहना गलत होगा कि सूबे में कहीं शराब नहीं मिल रही है. जो शराब के लिए ज्यादा पैसा देने को तैयार हैं, उन्हें घर बैठे शराब मिल रही है. जिलों में कुछ पुलिस वाले इसे रोक रहे हैं, तो कुछ शराब पहुंचाने में मदद कर रहे हैं. पूर्ण शराबबंदी के दो वर्षों में राज्य सरकार ने शराबबंदी कानून का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ करीब 1.06 लाख एफआईआर दर्ज कराई, जिनमें 1.27 लाख लोग गिरफ्तार कर जेल भेजे गए.

इनमें से अकेले उत्पाद विभाग द्वारा दर्ज कराए गए 45,600 मामलों में 25 लोगों को सजा भी दिलायी गई है. इन 25 लोगों को न्यूनतम एक साल से लेकर 15 साल तक की सजा हुई. वहीं, पुलिस की ओर से दर्ज किए गए 60,354 मामलों में 87 हजार से अधिक को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया. उत्पाद, मद्य निषेध एवं निबंधन विभाग के आंकड़ों की मानें, तो गिरफ्तार लोगों में 68 फीसदी शराब पीने के, जबकि 23.55 फीसदी लोग शराब बेचने के आरोप में जेल भेजे गए हैं. खास बात यह है कि इस अवधि में देसी शराब से दोगुनी से अधिक विदेशी शराब जब्त की गई है. शराबबंदी का फैसला लेना काफी कठिन था, पर नीतीश सरकार द्वारा इसे दृढ़ता के साथ लागू किया गया. इस कानून को बेहतर तरीके से लागू कराने में बिहार पुलिस ने भी एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. इसमें कोई शक नहीं है कि शराबबंदी के बाद लोगों के जीवन में खुशहाली आई है. अपराध घटे हैं, हादसे कम हुए हैं और तरक्की की राहें खुली हैं. इन दो वर्षो में लोगों के रहन-सहन में काफी बदलाव आया है.

छूटी शराब तो बदली ज़िंदगी

शराबबंदी ने राज्य की 99 फीसदी महिलाओं की जिंदगी बदल दी है. मानसिक हिंसा से लेकर यौन हिंसा तक का ग्राफ औंधे मुंह गिर गया है. शराब पर साप्ताहिक खर्च 971 रुपए से घटकर 146 रुपए पर पहुंच गया है. वहीं शिक्षा पर साप्ताहिक व्यय 364 रुपए से बढ़कर 4612 रुपए हो गया है. राज्य महिला आयोग के मार्च 2018 के आंकड़ों को देखें, तो छेड़छाड़ और शराब के नशे में जमीन बेचने की घटनाएं न्यूनतम हो गई हैं. हालांकि पूर्ण शराबबंदी के बाद भी करीब 19 फीसदी लोग शराब पी रहे हैं.

प्रदेश सरकार द्वारा नवादा, पूर्णिया, समस्तीपुर, पश्चिमी चम्पारण और कैमूर में शराब पीने वाले 2368 लोगों के परिवारों पर जो शोध कराया गया था, वो बता रहा है कि शराबबंदी का चमत्कारिक प्रभाव पड़ा है. आर्थिक हिंसा 70 फीसदी से घटकर 6 फीसदी पर आ गई है. इस बदलाव से बच्चे भी अछूते नहीं हैं. इनके खिलाफ होने वाली मानसिक, शारीरिक और मौखिक हिंसा का स्तर घटकर 5 फीसदी तक पहुंच गया है. शराबबंदी से पहले यह स्तर 35 फीसदी तक था. शराबबंदी से राज्य में न केवल अपराध और सड़क हादसों में काफी कमी आई है, बल्कि लोगों के जीवन स्तर और स्वास्थ्य में भी सुधार आया है. साथ ही गांव-घर में शांति भी कायम हुई है.

यही कारण है कि शराबबंदी कानून को सख्ती से लागू करने में राज्य सरकार कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है. इस मामले में अब तक की गई कार्रवाई के आंकड़े इसकी पुष्टि करते हैं. शराबबंदी के बाद तनाव, सड़क हादसे, हृदय और लिवर के मरीजों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है. राज्य के 25 जिलों में मद्य निषेध एवं उत्पाद विभाग की ओर से कराए गए इस सर्वे में पाया गया कि लीवर और हृदय के मरीजों की संख्या में क्रमश: 20 और 25 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है, वहीं तनाव के मामलों में 75 प्रतिशत की कमी आई है. इस सर्वे के अनुसार, 75 से 80 प्रतिशत लोगों ने माना है कि शराबबंदी के बाद गृह-कलह खत्म हुए हैं और पारिवारिक रिश्ते प्रगाढ़ हुए हैं.

शराबबंदी के बाद बिहार में बड़े अपराध जैसे फिरौती, हत्या व डकैती के वारदातों में भी उल्लेखनीय कमी आई है. शराबबंदी से पहले चालू दशक के मध्य तक जहां डकैती के मामले बिहार में औसतन 5 सौ के आसपास रहे. वहीं, अब यह आंकड़ा 325 के आसपास सिमट गया है. इसी तरह, चालू दशक की शुरुआत में समूचे प्रदेश में हत्या के दर्ज वारदातों का आंकड़ा औसतन तीन हजार से ज्यादा था, लेकिन अब यह आंकड़ा तीन हजार से काफी नीचे आ गया है. यही नहीं, शराब पीकर उपद्रव करनेवालों की संख्या भी नगण्य रह गई है. यह निष्कर्ष अपराध से जुड़े आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है. अपराधों में आई कमी का पुलिस बड़े स्तर पर वैज्ञानिक और तार्किक अध्ययन कर रही है. अहम बात यह है कि गंभीर वारदातों को अंजाम देनेवालों ने पुलिस पूछताछ में स्वीकार किया है कि शराबबंदी के बाद वारदातों में नए लोगों को शामिल करना मुश्किल हो गया है.

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