ब्रज श्रीवास्तव

समकालीन कविता का कोलाज़ जिन चित्र पुंजों ,रंग संयोजनों और कला दृष्टियों से बनता है उनमे कवि और उसकी कहन की शैली के साथ संवेदना की समूची ग्राह्यता और अभिव्यक्ति का बहुत महत्व हुआ करता है. मर्म भेद और मर्मस्पर्श की जो क्षमता यहाँ होती है ।वह मर्म परिवर्तन का लक्ष्य भी लेकर चलती है।

यह एक सच है कि साहित्य के इस विराट दृश्य में हर समय में कुछ वास्तविक कवि चुपचाप उम्दा कविता लिखते रहते हैं।
इस वक्फ़े में भी कुछ कवि ऐसे हैं। जिनका टिमटिमाना अब स्थायी चमक में बदल गया है.उन्हीं में से एक कवि हैं मोहन कुमार डहरिया,जो छिंदवाड़ा में रहते हैं।जो केंद्रीय विद्यालय के प्राचार्य रहे हैं।
जिनका हाल का कविता संग्रह “इस घर में रहना एक कला है’’कविता के घर में एक रहने की कला के मानिंद अलग और विशिष्ट दिखाई दे रहा है।.संग्रह की सिर्फ अड़तालीस कविताएँ ऐसे फूल की पंखुडियां हैं जो दिखाई देने में तीव्र चमकदार भले नहीं ।
महक में उतनी तीव्रगंधी भले नहीं, लेकिन असर में किसी औषधि से कम नहीं हैं।

सब जानते हैं कि इस दौर में कई विद्रूपताएँ हैं जो ठगों की तरह काम कर रहीं हैं.। विडंबना तो ये है यह हमें अरसे बाद भान हो पाता है कि जब ठगे जा चुके होते हैं।विश्व स्तर के कवि और नाटककार
बर्तोल्त ब्रेख्त और प्रगतिशील चेतना के कवि मुक्तिबोध ने अपने लिखे में प्रकारांतर से यही लिखा है की चलती हुई राजनीति से कवि का बचना उचित नहीं है.एक सजग कवि हमेशा प्रतिरोध का स्वर उठाता ही है.अपनी कविताओं में वह अपना पक्ष ज़ाहिर करता ही है।

‘लगता है
रहा नहीं आजकल महान विभूतियों का समय
समझ नहीं आता,
किसे कहें अब महानायक ‘’’

ऐसे और भी विद्रूप हैं जिनकी यथा स्थिति कवि की दुनिया में तो कम से कम स्वीकार्य नहीं है।इस इन्कार को वह भले ही एक स्वप्न दृश्य में अभिव्यक्त करे या चौक चौराहे की आँखों देखी घटना के बयान के रूप में.
उनकी दुस्वप्न ‘’ कविता में ऐसी बात आई है.
‘’तीसरे दर्जे के डिब्बे के बीचों बीच गड़ा वासना का एक विराट भाला
झूल रही है
उसकी नोक पर एक अर्ध् विक्षिप्त लड़की की देह.’’

इस कविता में भाला को एक विराट विशेषण के रूप में
लिया गया है| क्रूरता और अमानवीयता को इससे कम में भला कहा भी कैसे जाता।
मोहन कुमार डहेरिया की चिंताओं में सब कुछ ठीक न चलने पर एक दुःख भरा आश्चर्य हमेशा शामिल रहता है.कविताएं क्या हैं ये तो अपने पाठक से अंतरंगता से की गयीं कुछ बातें हैं जिनमें निसंदेह कविता की अपेक्षित ताकत है.जिनमें हम जान पाते हैं कि कवि की बात ही कहाँ और कैसे कविता बन जाती है ? गहरे अहसासों को कुछ बिम्बों और प्रतीकों का अनजाने में इस्तेमाल करने का यहाँ क्या असर होता है?उनकी कविता की बुनावट का फार्मूला हमारे नजदीक बैठकर हमसे ऐसी ही कुछ बातों को साझा करना है जो हम भी अंततः करना ही चाहते हों। पर हमारे पास वो भाषा,शैली,प्रतीक ,मशवरे और कहन नहीं होती जो मोहन के कवि के पास होते हैं|

‘’जंगलों के बीच हाट’’ एक ऐसी कविता है जिसमे दृश्य के सहारे गाँव की हाट में ले जाकर गुम हो गई चीज़ों को बताया जाकर संकेतों में बाज़ार की भयावहता को भी बताया गया है | .
‘’उदास हो जाता हूँ मैं यह सोचकर
जिस हाट को देख समझा था मैंने स्वयं को
सारे भयानक सपनों से मुक्त
उस में बिकने आई सारी चीज़ों की
कुल कीमत भी लगभग एक हज़ार रुपये ही हैं ‘’

मोहन कुमार डहेरिया मीडिया की भूमिका को भी संदिग्ध मानते हैं.स्त्री की आज़ादी की हिमायत, विलुप्त होती जनजातियों ,उनके तीज त्यौहार,छद्म देशभक्ति में सना विजय जुलुस, डूबती सांस्कृतिक अस्मिता,और मनुष्य की स्वाभाविक बातों को भी वह कविता के केंद्र में लाये हैं. वह एक साधारण सी लगने वाली बात पर भी उतने ही संवेदित होते हैं जितने की ज्वलंत माने जा रहे मुद्दों पर.!.
उनकी कुछ कवितायें अलग से ध्यान खींचती हैं ।

ये हैं’

’घर के अन्दर तीन सांप,लोरी,प्रतिदुनिया,मौत के बाद त्यौहार ,,’’इस आदमी को रुलाओ .
स्थानांतरण की संभावना पर में उनका सोचना है..

होगा ही कभी न कभी मेरा स्थानांतरण
चला जाऊंगा यहाँ से आखिर
नहीं रहेगा इस शहर की यादों में
एक कवि के रहने का निशान.

कविता दरअसल एक कुशाग्र भाषा बोध ओर विलक्षण अभिव्यक्ति की कला के युग्मन का नाम है.अपने एकांत को ख़ास तरह से जीकर कुछ अलग तरह से कागज़ पर उतारने का नाम है,रचना प्रक्रिया के इसी ढब को लगभग अपनाते मोहन जब कविता में साकार दिखाई देते हैं तो उनका मनोजगत भी साफ़ साफ़ दिखाई दे जाता है ।वह एक ऐसे व्यक्ति की नुमाइन्दगी कर रहे होते है,जो आपसी संबंधों की गुत्थियों में ,हताशा के कुएं में,अधूरी इच्छाओं और व्यवस्था के शिकारी के निशाने पर भी होता है. खुद को बहरूपिया की शक्ल में पाना,ध्वनि के इशारों का गीत कहना ,जीवन को सुन्दर भी कहना,।
कवि मन के उद्वेलन और दोलन ही तो हैं.प्रेम की अनुपस्थिति को इस तरह उलाहना शायद ही कहीं और देखने को मिलें .

‘’वर्षों हो गए हमें एक ही बिस्तर पर सोते हुए
प्रेम के नाम पर करती रातों में हमारी देह कूट संधियाँ
बेहतर है हम अलग हो जायें.’’’
वैसे प्रेम का तत्व मोहन की कविता में किसी न किसी शक्ल में आ ही जाता है,वह प्रेम कविता के कवि के रूप में भी अपने पिछले संग्रह की वजह से पहचान में आ गये हैं.उनके अनुभव संसार में प्रेम के विभिन्न रूप हैं और कविता में आकर्षक रूपक.

*वर्षों से थामे हूँ मैं फूलों की पंखुड़ियों से बनी मशाल
कई लोगों के पास गया में
किया इसे थाम लेने का अनुरोध कर दिया सबने इनकार*

ऐसी ही कई समकालीन चिंताओं को ,जिनमें एक स्वभाविक सी असहायता दिखाई देती है लेकर चलने के मोर्चे पर मोहन का कवि डटा हुआ है।ऐसा कौन होगा जो अपने न रहने के बाद के संसार की कल्पना न करता हो,अपनी कल्पनाओं में अपनी अनुपस्थिति को न देखता हो।

किसी को न होगा अवसाद
मेरे द्वारा घेरी गई जगह के चले जाने का
बस मेरे कुछ शब्द होंगे
कुछ जिदें और कवितायेँ
जो आएँगी,पीछे पीछे मेरे
तारों की टिमटिमाती दुनिया तक करते हुए विलाप ।

इसी तरह ही उनकी कवितायेँ हमारे पीछे पीछे भी चलने लगती हैं.ये हमारी याददाश्त का हिस्सा बन्ने की भी कुवत रखती हैं,रागात्मकता ,करुणा,छोभ,गुस्सा,अवसाद,प्रेम,और न जाने कितने भाव हैं जिनका संचार ये कविताएँ करती ही हैं.यह भी कहना लाज़मी है कि वैचारिक स्तर पर
मोहन एक तैयार कवि हैं. कविता की जिस तकनीक की वज़ह से वह सुपरिचित हो गए हैं वह अब उनकी पहचान को स्थिर इस हद तक कर सकती है कि आगे कोई संभावना शिल्प में न होने से पाठ रस न आये.उन्हें अनावश्यक विशेषण रखने और विस्तार से बचना भी चाहिए.आखिर कविता ही तो है जो कहती है कि कम लिखे को ज्यादा समझना||

संग्रह की शीर्षक कविता का यद्यपि अन्यान्य निहितार्थ है ,तथापि कहना मुफ़ीद लग रहा है कि मोहन कुमार डहेरिया कविता के घर में नियमित रियाज़ करते हुए ऐसी कला का निर्वाह करते हुए रह रहे हैं जो समाज को यथार्थ से परिचय कराती है.

ब्रज श्रीवास्तव.

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