india-nepal-flooding-1बिहार के लिए अगस्त के शुरुआती तीन दिन बड़े ही त्रासदपूर्ण रहे. सूबे में वे दिन कोशी में जल-प्रलय की आशंका के बीच गुजरे. नेपाल के सिंधुपाल चक ज़िले में भू-स्खलन के कारण सनकोसी नदी पर झील बन जाने से यह आशंका पैदा हुई थी. राज्य सरकार के अफसरों एवं अभियंताओं का कहना था कि सनकोसी की धारा के बीच चट्टान आ जाने से झील बन गई है और वहां 28 लाख क्यूसेक पानी एकत्र हो गया है. वह चट्टान उड़ाने पर कोई दस लाख क्यूसेक पानी बिहार आएगा. इससे दस मीटर ऊंचा प्रवाह कोसी में आएगा और फिर तबाही का मंज़र कैसा होगा, उसकी स़िर्फ कल्पना की जा सकती है. इस जल-प्रलय की आशंका के बीच उस क्षेत्र में आपदा बचाव दल एवं वायु सेना के राहत विमानों-हेलिकॉप्टरों की तैनाती हो गई, सेना सतर्क कर दी गई. राज्य के आठ ज़िलों में एलर्ट घोषित कर दिया गया, पानी का वेग नियंत्रित करने के सारे उपाय किए जाने लगे, विस्थापितों के लिए 123 राहत केंद्र और मवेशियों के लिए 31 केंद्र बनाए गए, कोसी तटबंध के भीतरी इलाके खाली कराने का फरमान जारी कर दिया गया. और भी कई क़दम उठाए गए.
वस्तुत: वे तीन दिन बड़े ही डरावने या कहिए कि भयावह रहे. कोसी इलाके की बात कौन करे, पूरा उत्तर बिहार आतंक के साये में जी रहा था. वजह, कोसी में इतना पानी आने का अर्थ उत्तर बिहार की छोटी-बड़ी दर्जनों नदियों के क्षेत्र में तबाही का आना होता है. कोसी तटबंध के भीतर के गांवों को खाली कराने का अभियान चला और लगभग 80 हज़ार लोग राहत शिविरों में आ गए. इससे भी ज़्यादा लोग नाते-रिश्तेदारों के यहां चले गए. मुख्यमंत्री और विभागीय मंत्री ही नहीं, आला अफसरों-अभियंताओं ने भी मा़ैका-मुआयना शुरू कर दिया. बिहार सरकार के साथ लोग-बाग भी दिल थाम कर प्रलय की प्रतीक्षा कर रहे थे. मगर, बड़ा शोर सुनते थे पहलू में दिल का/जो चीरा तो क़तरा-ए-खूं निकला. ख़बर आई कि ख़तरा टल गया. चट्टानों के कारण सनकोसी में एकत्र पानी नियंत्रित विस्फोट से निकाल दिया गया. कोसी का प्रकोप सनकोसी के पानी के साथ बह गया. बिहार की जीतनराम मांझी सरकार की चिंता काबिल-ए-तारीफ़ रही. ख़बर पाते ही आनन-फानन में सब कुछ तैयार कर लिया गया. यह उन्मादी तत्परता अनायास नहीं थी.
इसे संयोग ही कहेंगे, कोसी के इस ताजा जल-प्रलय की आशंका की ख़बर आने के कुछ घंटों पहले 2008 की कुसहा कोसी त्रासदी को लेकर गठित बालिया जांच आयोग की रिपोर्ट और उस पर कार्रवाई रिपोर्ट सार्वजनिक की गई थी. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उस समय बाढ़ नियंत्रण (फ्लड फाइटिंग) और बचाव कार्यों को लेकर सरकारी तंत्र की विफलता का कच्चा चिट्ठा खोल दिया. रिपोर्ट में कहा गया कि सरकार में गंभीरता नाम की कोई चीज नहीं थी. जल संसाधन विभाग का चेतावनी तंत्र नकारा साबित हुआ और
देर-सबेर जो सूचना मिली थी, उस पर भी अमल नहीं किया गया. फ्लड फाइटिंग की ज़रूरी सामग्री की उचित व्यवस्था नहीं की जा सकी थी. कुसहा बांध टूटने से कोई तीन सप्ताह पहले से हालात बिगड़ने की जानकारी विभाग के अभियंता प्रमुख को दी जाती रही, पर समय पर कोई निर्देश जारी नहीं किया गया. बाढ़ की हालत की निगरानी की ज़िम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई जाती है. बाढ़ से प्रभावित इलाकों में पहले से कोई चेतावनी नहीं जारी की गई, जिससे जान-माल की व्यापक क्षति हुई. आयोग ने ऐसे ज़रूरी एहतियाती क़दम न उठाने के लिए सरकार और जल संसाधन विभाग को आड़े हाथों लिया है.
ग़ौरतलब है कि कुसहा त्रासदी के कुछ ही दिनों बाद पटना उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजेश बालिया की अध्यक्षता में न्यायिक जांच आयोग का गठन किया गया था. तत्कालीन नीतीश सरकार ने इस हादसे की ज़िम्मेदारी अपनी पूर्ववर्ती सरकारों पर थोपने की कोशिश की थी और आयोग की जांच के लिए उसी तरह के टर्म्स ऑफ रेफरेंस तैयार किए गए थे. लेकिन, यह जांच आयोग कुसहा में कोसी बांध टूटने के ज़िम्मेदार लोगों की पहचान में विफल रहा. जांच आयोग ने इसके लिए एक समिति के गठन की ज़रूरत जताई है. हालांकि, आयोग ने कुछ बातें दो टूक शब्दों में कही हैं. मसलन, विभाग के अफसरों की बात कौन करे, अभियंता प्रमुख जैसे बड़े पद पर तैनात टेक्नोक्रेट भी मौ़के पर जाने की ज़रूरत महसूस नहीं करते. कुसहा जैसे हादसों का एक कारण यह भी है. कोसी में उन दिनों मुख्य अभियंता सहित जिन अभियंताओं को तैनात किया गया था, उनमें प्राय: सभी कोसी की प्रकृति से ग़ैर वाकिफ थे. किसी को कोसी क्षेत्र में काम करने का अनुभव नहीं था. अधिकांश अभियंताओं को बाढ़ नियंत्रण और बचाव कार्यों का कोई अनुभव नहीं था. इनमें अनेक अभियंता तो ऐसे थे, जिन्होंने नदी अभियांत्रिकी के बारे में दशकों पहले पाठ्यक्रम में ही पढ़ा था. कुछ तो पथ निर्माण के अनुभव के साथ कोसी क्षेत्र में भेजे गए थे.
आयोग ने अनेक तकनीकी मुद्दों पर अपनी सीमा का बखान करते हुए समितियों के गठन की सिफारिश की है. बिहार सरकार के जल संसाधन विभाग की कार्यशैली और रिकॉर्ड के रखरखाव की स्थिति के बारे में लिखते हुए आयोग ने कहा कि उसे कोसी परियोजना की प्रति तक विभाग में न होने की जानकारी दी गई. इतना ही नहीं, विभाग में 1984 या 1991 की बाढ़ों सहित कोसी की अन्य किसी बड़ी बाढ़ से जुड़ा कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं है. आयोग ने ऐसी विभागीय लापरवाही पर गहरा विस्मय जताया है. वस्तुत: जल संसाधन विभाग में कोसी-गंडक जैसी
बाढ़-प्रवण नदियों को लेकर लापरवाही, अभियंताओं के पदस्थापन के तौर-तरीके और आपात स्थिति के प्रति अभियंताओं-अफसरों के टालू रवैये अथवा आपराधिक उदासीनता को गंभीरता से रेखांकित किया है. यहां इस बात की चर्चा बेमानी नहीं होगी कि उस त्रासदी के तुरंत बाद पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र समेत बिहार की नदियों के अनेक विशेषज्ञों ने कहा था कि पूर्वी एफलक्स बांध का टूटना और यह त्रासदी कोसी की नहीं, सरकार की लापरवाही और अभियंताओं की गलतियों का परिणाम है. लेकिन, तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार सहित उनकी पूरी सरकार और बिहार के कई नौकरशाहों-टेक्नोक्रेट्स ने उन बातों को सरकार विरोधी अभियान के तौर पर रेखांकित किया था. बालिया आयोग ने इन बातों को सही करार दिया. अब आयोग की सिफारिशों के
आलोक में सरकार ने समिति का गठन किया है. चूंकि मामलों की जांच तो उसी विभाग के अभियंता प्रमुख की अध्यक्षता में गठित समिति को करनी है, लिहाजा मामलों की लीपापोती ही अधिक होगी, बजाय हालात सुधारने के उपायों के. बालिया आयोग की रिपोर्ट विपक्ष की जबर्दस्त मांग के चलते बीते एक अगस्त को विधान मंडल के दोनों सदनों में पेश कर दी गई और दो अगस्त को कोसी में संभावित जल-प्रलय की ख़बर आई. सो, राज्य सरकार को वह सब कुछ करना था, जो वह कर सकती थी. केंद्र सरकार कहां पीछे रहने वाली थी. उसका भी सक्रिय होना ज़रूरी था, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल यात्रा पर थे. ऐसे में बिहार डूबता, तो बड़ी बदनामी होती. और, वह भी विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले. क़ानून मंत्री रविशंकर प्रसाद और कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने बिहार की विजातीय सरकार को विपत्ति में राजनीति से ऊपर उठकर हरसंभव मदद का वचन दिया. लाखों की आबादी की सुरक्षा के नाम पर युद्ध स्तर की इस तत्परता के बीच सरकारों (राज्य एवं केंद्र) ने रक्षा की तैयारी तो काबिल-ए-तारीफ़ की, पर वे कुछ बुनियादी जानकारी हासिल कर काम करने की ज़िम्मेदारी भूल गईं. सनकोसी में बनी झील में कितना पानी है, उसका सही पता लगाने और फिर उससे निपटने की तैयारी की ज़रूरत थी. हालांकि नेपाल सरकार अपनी तरफ़ से यह बताती रही, लेकिन राज्य अथवा केंद्र सरकार ने उस पर ध्यान नहीं दिया और ध्यान दिया, तो उसे गंभीरता से नहीं लिया. सनकोसी में जहां भू-स्खलन से झील बनी थी, वहां से तेज प्रवाह में भी भारत (बिहार में बीरपुर कोसी बैराज) में पानी आने में कम से कम चौदह घंटे का समय लगता और वहां एकत्र पानी का मात्र चालीस फ़ीसद आ पाता. पानी को वहां से नियंत्रित विस्फोट से निकाला जा रहा था.
विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसे में पानी के प्रवाह में मामूली बढ़ोतरी हो सकती थी. ऐसी स्थिति में बीरपुर कोसी बैराज पर पानी का डिस्चार्ज मात्र तीस हज़ार क्यूसेक ही होता. नदी विशेषज्ञ सरकार के अफसरों-अभियंताओं पर मात्र हंसते हैं. पहली बात, वे हड़बड़ाहट में भूल गए कि क्यूसेक प्रति सेकेंड जल प्रवाह मापने की प्रणाली है, एकत्र जल की गहराई नहीं. एकत्र जल की गहराई मापने की प्रणाली क्यूबिक मीटर (घन मीटर) है. फिर, जहां पानी एकत्र था, वहां सात-सात नदियां हैं.
पानी का अलग-अलग नदियों में बंट जाना तय था. नेपाल ने कहा कि सत्तर लाख घन मीटर पानी एकत्र है. यदि यह आंकड़ा सही था (और गलत क्यों होगा), तो राज्य को उन्मादी आतंक में डाल देना अपराध है. वस्तुत: बिहार सरकार कुसहा त्रासदी से आतंकित रही और बालिया आयोग की रिपोर्ट आने के बाद उस पर भाजपा और सामाजिक संगठनों के हमले बढ़ गए. ऐसे में राज्य का सरकारी तंत्र बसहा की तरह सरपट सामने दौड़ रहा था. लेकिन, केंद्र सरकार ने भी कुछ वैसा नहीं किया, जिससे बिहार की आम जनता को भय और आतंक से राहत मिले. कोसी प्रकरण में ऐसा लगा ही नहीं कि केंद्र में जल संसाधन मंत्रालय है और उसकी भी कोई ज़िम्मेदारी है. यह भी नेपाल का मामला है और नेपाल से भारत सरकार ही बात कर सकती है. बिहार सरकार की तरह वह भी बसहा-सक्रियता की शिकार रही. दोनों सरकारें अपनी ग़ैर-ज़िम्मेदार सक्रियता के कारण बिहार में आतंक की बाढ़ का विस्तार करती रहीं. यह वोट की ही माया है.

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