कांग्रेस की राजनीतिक और चुनावी संस्कृति में राजनीतिक हिंसा रही है। अपने शैशव के बाद जैसे जैसे कांग्रेस आगे बढ़ी चुनावी गणित में हिंसा का समावेश सत्ताधीश के अहंकार और हठ के परिणाम में आता ही रहा। लोगों ने मान लिया चुनाव हैं तो हिंसा होगी ही। खासकर उत्तर भारत के राज्यों की तो यही कहानी रही है।बंगाल ने भी इसी संस्कृति को रचा है। और इस तरह राजनीति और चुनावों को इसी संस्कृति ने रूढ़ भी किया है। इसीलिए कांग्रेस के बाद के सभी दलों और उनके मतदाताओं के लिए चुनावों में हिंसा कहीं कोई चिंता का मुद्दा नहीं रहा। कहिए कि कांग्रेस ने एक लीक बना दी और सभी दल उस लीक पर चल पड़े। पर क्या आज हम इसको इसी रूप में स्वीकार सकते हैं। हम भारतीय जनता पार्टी की बात कर रहे हैं।
भारतीय जनता पार्टी यानि भाजपा। दोमुंही पार्टी । एक भाजपा हमने अटल बिहारी वाजपेयी की देखी है और एक भाजपा हम नरेंद्र मोदी की देख रहे हैं। दोनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बेशक अपना एजेंडा चलाया हो पर आप देखिए न वाजपेयी सरकार में वह सफल रहा और न मोदी सरकार में वह उस तरह सफल हो पा रहा है जैसा वह एकछत्र चाहता है। आप कह सकते हैं वाजपेयी का अपना ऐजेंडा था और मोदी का अपना है। यह सत्ता में विराजमान होने की बेबसी है। और सत्ता में विराजे व्यक्ति का व्यक्तित्व और उसके अहंकार या हठ का परिणाम भी। लेकिन मोदी केवल हठी और अहंकारी ही नहीं हैं। उनका अतीत और इन सात सालों का शासन बताता है कि उनकी सोच में कहीं बहुत गहरे ऐसे साम्प्रदायिक तत्व भी हैं जो उन्हें ‘विभाजक’ शासक के रूप में भी सिद्ध करते हैं।
संघ प्रमुख मोहन भागवत हों या मोदी साम्प्रदायिकता और अल्पसंख्यकों के मुद्दों पर दोनों की शैली एक ही है। मोदी के सामने सबसे बड़ा सवाल सत्ता में बने रहने का है। यकीनन इसी सोच में दिनरात खटते हुए और सत्ता की डोर अपनी मुठ्ठी में भींचे हुए ,आशंकाओं से घिरे शासक के रूप में मोदी तानाशाह का रूप ले रहे हों तो उसमें आश्चर्य क्या। कभी कभी ऐसा होता स्पष्ट दिखता भी है। और इसीलिए आप देखेंगे कि आने वाले समय में आप देखेंगे कि भाजपा लोकतान्त्रिक मूल्यों से इस कदर दूर हो जाएगी और भारत को दुनिया की नजर में ऐसा मुल्क साबित कर देगी जहां आने से हर कोई कतराने लगेगा। यह अंदेशा इसलिए कि हम नेहरू का भारत देखा और आज का भारत अपनी आंखों में उतरता देख रहे हैं। हिंसा, चाहे वह चुनावी हो, चाहे लिंचिंग के रूप में हो या हिंदू मुसलमानों की बस्तियों में हो, हिंदू- दलितों के बीच की हो।
इस हिंसा को हर किसी का मौन समर्थन दिख रहा है। ऐसी हिंसा को जब शासन का मौन समर्थन हासिल हो तो आप भविष्य के समाज की कैसी कल्पना करेंगे। यह बेपरवाह हिंसा अपने आगोश में कब किसको खींच लेगी कौन जानता है।
   मोदी के इन सात सालों का शासन नफरत का शासन रहा है। इसे कहने में क्यों गुरेज करना चाहिए। कांग्रेस की चुनावी हिंसा और मोदी शासन की चुनावी-साम्प्रदायिक हिंसा में यही अंतर है कि वहां की हिंसा चुनाव तक सिमटी हुई थी यह हिंसा सतत सालों से अपने अलग अलग मगर ऐजेंडा आधारित तरीकों से लगातार चल रही है। आज के भारत का दृश्य अपनी आंखों में बसाइये और देखिए कहां से आपको सुकून की खबर मिलती है।
भारत के समाज का साम्प्रदायिक सौहार्द टूट रहा है, तोड़ा जा रहा है। सत्ता का मौन समर्थन है। सरकारें तोड़ी जा रही हैं, गिराई जा रही हैं। किसानों को लावारिस जैसा छोड़ दिया गया है। दूसरे दलों की सरकारों से निरंतर भेदभाव किया जा रहा है। धार्मिक हिंसा, जातिगत हिंसा जहां तहां हर रोज सुनने में आती है। मोदी ने 2014 के चुनाव झूठे वायदों और जुमलों पर जीते थे। 2019 में बालाकोट की चालाकी दिखी जिसे पूरे देश ने समझ लिया। अब यूपी का चुनाव और 2024 के आम चुनाव। मुझे लगता है साम्प्रदायिक हिंसा की ओर ले जा रहे हैं ये दोनों चुनाव। और बड़े पैमाने पर देश भर में साम्प्रदायिक हिंसा का मतलब गृहयुद्ध भी हो सकता है। और सबसे बड़ा दुख यही है कि आज के सत्ताधारियों को इसका कोई मलाल भी नहीं होगा।वैसे भी जिनके चरित्र में ही हिंसा की भाषा हो, उन्हें मलाल कैसा ? साम दाम दंड भेद से चुनाव जीतने हों तो किसी भी चीज से मलाल क्यों हो।
 संतोष भारतीय जी की भारी भरकम पुस्तक बाजार में आयी है – ‘वीपी सिंह, चंद्रशेखर, सोनिया गांधी और मैं’। हमें भी कूरियर से मिली है। बीमारी की हालत में 475 पेज भी हजार पन्नों से कम नहीं लगते। पढ़ कर लिखेंगे उस पर भी। अतीत के पन्ने बड़ी शिद्दत से लिखे गये लगते हैं। रोचकता बरकरार है। फ़ौज़िया अर्शी के संपादकत्व में प्रकाशित है पुस्तक। भारतीय राजनीति के इतिहास में तीनों राजनीतिक हस्तियों का योगदान महत्वपूर्ण तो है ही, रोचक भी है। इसीलिए पुस्तक आकर्षित करती है। 
इस हफ्ते फिल्मी दुनिया के असल ‘शहंशाह’ दिलीप कुमार साहब का इंतकाल हुआ। रवीश कुमार हों, उर्मिलेश जी हों, पुण्य प्रसून वाजपेयी हों, अजीत अंजुम हों सबने अपने अपने तरीके से याद किया। ‘द वायर’ में भी दामिनी यादव ने पूरे वायर की ओर से अच्छी प्रस्तुति दी।उर्मिलेश जी ने कुछ अलग एक सांसद के रूप में दिलीप साहब को याद किया। अच्छा लगा। वह शख्शियत ही कुछ ऐसी थी। मात्र 63 फिल्में, लेकिन हजारों सीन या डायलॉग ऐसे जिसको चाहे उठा लीजिए, मार्के का मिलेगा। वह समय गया, वह दुनिया गयी। कोरोना ने तो सब कुछ तहस नहस कर डाला है ही। फिल्मी इंडस्ट्री भी खतम सी होती दिख रही है। स्टूडियो बिक रहे हैं। सब ‘साहिब बीबी और गुलाम’ वाली हवेली जैसा खण्डहर का नजारा सा नजर आता है। बाकी इस हफ्ते के कार्यक्रमों पर क्या कहें, छोड़िए। फिर अगले हफ्ते ।
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