इस देश में अजीब माहौल बन गया है. सभी लोग अच्छी-अच्छी बातें बोलना और सुनना चाहते हैं. देश का भविष्य और लोगों की सुरक्षा के मामले में भी जिम्मेदार संस्थाएं सिर्फ मीठी-मीठी बातों को ही तरजीह दे रही हैं. कड़वी बातें बोलना और सुनना देश की सरकार और संस्थाओं के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट ने भी बंद कर दिया है. सरकार लगातार बिना बहस के कानून पास कराने में सफल हो जा रही है और विपक्ष अपनी मूर्खता की पराकाष्ठा का परिचय दे रहा है. विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच हो रहे छोटे-मोटे झगड़े को लेकर संसद में जोरशोर से हंगामा तो होता है, लेकिन विदेशी शक्तियों के इशारे पर देश के भविष्य के साथ होने वाले खिलवाड़ पर विपक्ष के मुंह से एक शब्द नहीं निकलता है. सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का सरेआम उल्लंघन विपक्ष के लिए मुद्दा नहीं है. देश की जनता की निजता और सुरक्षा जैसे चिंताजनक मामलों पर किसी सांसद या राजनीतिक दल का ध्यान तक नहीं जाता है. चौथी दुनिया ने आधार कार्ड के खतरे से हमेशा आगाह किया है. हम एक बार फिर आधार को लेकर ऩई चुनौतियों और सरकार की करतूतों पर से पर्दा उठा रहे हैं.

aadharपिछले संसद सत्र में सरकार ने कई बड़े फैसले लिए. उनमें से फाइनेंस एक्ट 2017 बहुत महत्वपूर्ण है. मोदी सरकार ने जिस फाइनेंस एक्ट 2017 को पास किया है, उसके 40 कानूनों में 250 संसोधन किया गया है. इसमें कंपनी एक्ट और आधार एक्ट में जो बदलाव किए गए हैं, वे सबसे महत्वपूर्ण हैं. इसके कई दूरगामी असर होने वाले हैं. इन दोनों एक्ट में जो बदलाव हुए हैं, वो वैचारिक दृष्टि से प्रजातंत्र के लिए खतरनाक साबित हो सकते हैं. हैरानी की बात ये है कि ज्यादातर लोग ये समझ नहीं पाए कि ये बदलाव एक दूसरे से जुड़े हुए हैं.

सवाल तो ये भी है कि लोकसभा और राज्यसभा के किसी सांसद को भी इसका पता नहीं चला और न ही किसी ने सवाल उठाया. कंपनी एक्ट में बदलाव कर सरकार ने कंपनियों की पहचान को छिपाने का फैसला लिया है. मसलन, कोई भी कंपनी किसी भी राजनीतिक दल को पैसा दे सकती है, लेकिन उसकी पहचान को सार्वजनिक नहीं किया जाएगा. लेकिन ठीक इसके विपरीत, सरकार आधार के जरिए आम जनता की पहचान को सार्वजनिक करने के समर्थन में बदलाव कर रही है. मतलब यह कि सरकार आम नागरिकों को तो पारदर्शी बनाना चाहती है, लेकिन कंपनियों को पारदर्शी बनाने के बजाय अपारदर्शी बना रही है, यानि उसकी पहचान छिपाना चाहती है.

इससे सवाल उठाना लाजिमी है कि ये सरकार किसके लिए काम कर रही है. ये भेदभाव क्यों है. सरकार एक तरफ कंपनियों को गुमनाम होकर काम करने की इजाजत देती है, वहीं आम नागरिकों की सारी जानकारियां व क्रियाकलाप सार्वजनिक करना चाहती है. लोगों की सारी जानकारी बाजार में बिकने के लिए उपलब्ध रहेगी. आधार का सबसे बड़ा फायदा विदेशी कंपनियों को होने वाला है, जिन्हें आधार के जरिए भारत के ग्रामीण बाजार में घुसने की खुली छूट मिल जाएगी.

पहले यूपीए और अब मोदी सरकार भी वही गलतियां कर रही है, जिसके बारे में दुनिया की तमाम एजेंसियां चेतावनी दे रही हैं. क्या सुरक्षा एजेंसियों को अब तक ये मालूम नहीं है कि इस योजना के तहत ऐसे लोग भी पहचान पत्र हासिल कर सकते हैं, जिनका इतिहास दाग़दार रहा है. एक अंग्रेजी अख़बार ने विकीलीक्स के हवाले से अमेरिका के एक केबल का ज़िक्र करते हुए लिखा है कि लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठन के आतंकवादी इस योजना का दुरुपयोग कर सकते हैं. कुछ कश्मीरी आंतकियों के पास से यूआईडी बरामद भी किए गए हैं. फिर भी किसी के कान में जूं नहीं रेंग रही है. अजीब स्थिति है. अब पता नहीं नंदन निलेकणी ने पहले मनमोहन सिंह और अब नरेंद्र मोदी को कौन पट्टी पढ़ाई है कि दोनों ही प्रधानमंत्री यूआईडी के दीवाने बन गए.

जबकि प्रधानमंत्री चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी पानी पी-पी कर इस योजना को कोसते थे और अपने चुनावी भाषणों में आधार का उदाहरण देखकर मनमोहन सिंह सरकार को घेरते थे. लेकिन जब वे खुद प्रधानमंत्री हैं, तो उन सारी समस्याओं को भूल चुके हैं. यानि कि आधार में जरूर ऐसी कोई बात है कि देश की सरकार बदल जाती है, लेकिन ये प्रोजेक्ट नहीं बदलता. दरअसल, ये पूरा प्रोजेक्ट ही एक सैन्य रणनीति का हिस्सा है. इसका रिश्ता अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में हुए हमले से है.

उस हमले के बाद से अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस ने लोगों पर नजर रखने के लिए एक सुरक्षा प्रोजेक्ट बनाया, जिसके तहत अलग-अलग देशों में इसे लागू किया गया. हैरानी की बात ये है कि इंग्लैंड में इसे लागू करने के बाद बीच में ही इस प्रोजेक्ट को खत्म करना पड़ा. वहां इसे लोगों की निजता और सुरक्षा के लिए खतरा बताया गया. ऐसा प्रोजेक्ट, जो इंग्लैंड के लोगों की निजता और सुरक्षा के लिए खतरा है, वो भारत के लोंगों के लिए लाभकारी कैसे हो सकता है?

समझने वाली बात ये है कि आधार को एक सैन्य प्रोजेक्ट के रूप में लागू नहीं किया जा सकता था, इसलिए भारत में इसे नागरिक सुविधाओं से जोड़ कर पेश किया गया. इस प्रोजेक्ट के लिए वर्ल्ड बैंक काम कर रहा था. इस पर 2007 से ही काम शुरू हो गया था. वर्तमान यूआईडीएआई के चैयरमैन जे सत्यनारायणा उस वक्त आईडेंटिटी मैनेजमेंट के टास्क फोर्स के सदस्य भी थे. गैर सरकारी तौर पर विप्रो ने 2006 में एक रिपोर्ट तैयार की थी और सरकारी तौर पर टास्क फोर्स ने आधार की पूरी रूप रेखा तैयार की. 2009 में प्रणब मुखर्जी ने भारत में इसे लागू किया. इससे पहले अमेरिका की डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस ऐसे प्रोजेक्ट को अपना चुकी थी. इसलिए भारत में इसके लागू होने पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ.

ये पूरा प्रोजेक्ट नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड और नेशनल काउंटर-टेररिज्म सेंटर से जुड़ा हुआ है. बताया ये जाता है कि संयुक्त राष्ट्र की सेक्युरिटी कॉन्सिल भी इस तरह के प्रोजेक्ट पर स्वीकृति दे चुकी है. जिसका सार ये है कि इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के जरिए दुनिया में आतंकवाद और समाजिक उपद्रव पर कंट्रोल करना एक कारगर तरीका है. यही वजह है कि दुनिया के कई देशों में भारत की तरह बायोमैट्रिक के जरिए पहचान देने की प्रक्रिया चल रही है. इसमें दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियां और खुफिया एजेंसियां अपरोक्ष रूप से दखल दे रही हैं और ये सुनिश्चित कर रही हैं कि इस प्रोजेक्ट में कोई विघ्न-बाधा न पड़े. वर्तमान में ये प्रोजेक्ट पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, सेंट्रल एशिया समेत दुनिया के 14 देशों में चल रहा है.

अब कुछ सवाल हैं, जिसका जवाब मोदी सरकार को देश की जनता को देना चाहिए. सरकार एक-एक करके लगातार हर सेवा में इसका इस्तेमाल अनिवार्य कर रही है. क्या सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करने से मना कर दिया है? 23 सितंबर 2013, 26 नवंबर 2013 और 24 मार्च 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने कहा, देश के नागरिकों पर आधार कार्ड जबरदस्ती नहीं थोपा जा सकता है. फिर भी सरकारी एजेंसियां इसे अनिवार्य क्यों बना रही हैं? हालात तो ये है कि अब सुप्रीम कोर्ट अपने आदेशों को हर सुनवाई के दौरान दोहराती है, लेकिन सरकार उसके कुछ दिन बाद ही किसी नए विभाग में इसके इस्तेमाल को अनिवार्य कर देती है.

जैसे कि हाल में ही इनकम टैक्स रिटर्न भरने के दौरान भी आधार नंबर के उपयोग को अनिवार्य बना दिया गया. साथ ही हर व्यक्ति के बैंक एकाउंट को आधार से जोड़ने का सख्त आदेश दिया गया है. हैरानी कि बात ये भी है कि विपक्ष के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी मूकदर्शक बनी हुई है. अब तो चुनाव आयोग ने भी वोटिंग के लिए आधार कार्ड का उपयोग करने की तैयारी कर ली है. राजनीतिक दल चुनाव हारने के बाद ईवीएम की गड़बड़ी को लेकर इतना हंगामा कर रहे हैं, लेकिन मतदान में आधार के उपयोग को लेकर आज तक किसी पार्टी ने चुनाव आयोग में शिकायत या विरोध दर्ज नहीं की है.

नरेंद्र मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने आधार के खतरे को लेकर कई सारी बातें कही. उनमें से एक खतरा लोगों की सुरक्षा को लेकर था. अब वो प्रधानमंत्री हैं और आधार के समर्थक बन गए हैं. अगर प्रधानमंत्री के रुख में कोई बदलाव आया है, तो जरूर स्थिति में कई फर्क हुआ होगा. ऐसे में उन्हें बताना चाहिए कि क्या आज भी देशवासियों के पर्सनल सेंसिटिव बायोमीट्रिक डाटा विदेश भेजे जा रहे हैं या नहीं? क्या आधार से जुड़े डाटा के इस्तेमाल और उनके ऑपरेशन का अधिकार विदेशी निजी कंपनियों को दिया गया है?

अगर सरकार इस सवाल का जवाब सार्वजनिक रूप से नहीं देती है, तो इसका मतलब साफ है कि लोगों का बायोमैट्रिक डाटा विदेश भेजा जा रहा है और उन डाटा के आपरेशन का अधिकार विदेशी कंपनियों के पास है. अगर मोदी सरकार ने इसमें कुछ बदलाव किया है, यानि अगर डाटा को विदेशी हाथों में जाने से रोक दिया है, तो इस जानकारी को जनता के साथ शेयर करने में क्या परेशानी है? हम जैसे लोगों का वहम भी खत्म हो जाएगा और देश की सुरक्षा के लिए सरकार को इसका क्रेडिट भी जाएगा. चूंकि सरकार इन सवालों के ऊपर चुप है, इसलिए शक होना लाजिमी है. विपक्ष भी चुप है, इसलिए साजिश का संदेह होना बेमानी नहीं है.

चौथी दुनिया ने सबसे पहले आधार से जुड़ी विदेशी कंपनियों के बारे में पर्दाफाश किया था. चौथी दुनिया ने अगस्त 2011 में ही बताया था कि कैसे यह यूआईडी कार्ड हमारे देश की सुरक्षा के लिए ख़तरनाक है. दरअसल, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) ने इसके लिए तीन कंपनियों को चुना- एसेंचर, महिंद्रा सत्यम-मोर्फो और एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन. एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन के बारे में हमने बताया था कि इस कंपनी के टॉप मैनेजमेंट में ऐसे लोग हैं, जिनका अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए और दूसरे सैन्य संगठनों से रिश्ता रहा है.

एल-1 आईडेंटिटी सोल्यूशन अमेरिका की सबसे बड़ी डिफेंस कंपनियों में से है, जो 25 देशों में फेस डिटेक्शन, इलेक्ट्रॉनिक पासपोर्ट जैसी चीजों को बेचती है. इस कंपनी के डायरेक्टर्स के बारे में जानना ज़रूरी है. इसके सीईओ ने 2006 में कहा था कि उन्होंने सीआईए के जॉर्ज टेनेट को कंपनी बोर्ड में शामिल किया है. ग़ौरतलब है कि जॉर्ज टेनेट सीआईए के डायरेक्टर रह चुके हैं और उन्होंने ही इराक़ के ख़िलाफ़ झूठे सबूत इकट्ठा किए थे कि उसके पास महाविनाश के हथियार हैं.

सवाल यह है कि सरकार इस तरह की कंपनियों को भारत के लोगों की सारी जानकारियां देकर क्या करना चाहती है? एक तो ये कंपनियां पैसा कमाएंगी, साथ ही पूरे तंत्र पर इनका क़ब्ज़ा भी होगा. इस कार्ड के बनने के बाद समस्त भारतवासियों की जानकारियों का क्या-क्या दुरुपयोग हो सकता है, यह सोचकर ही किसी के भी दिमाग़ की बत्ती गुल हो जाएगी. तो अब सवाल ये है कि क्या मोदी सरकार ने आधार से जुड़ी इन कंपनियों के इतिहास और विदेशी खुफिया एजेंसियों से इन कंपनियों के रिश्ते की तहकीकात की है?

मोदी सरकार को यह बताना चाहिए कि आधार योजना का काम सरकारी एजेंसियों के बजाय विदेशी कंपनियों के हाथों में क्यों है? अब आधार को लेकर जो नई जानकारियां आ रही हैं, वो चौंकाने वाली हैं. केंद्र सरकार को ये बताना चाहिए कि आधार के नागरिक इस्तेमाल को सैन्य इस्तेमाल से क्यों जोड़ दिया गया? लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा यूआईडी योजना पर पुनर्विचार करने की बात कहती रही. चुनाव के बाद भाजपा का स्टैंड क्यों बदल गया? भाजपा ने चुनाव से पहले कहा था कि आधार योजना को लेकर पार्टी की दो चिंताएं हैं, एक तो इसका क़ानूनी आधार और दूसरा सुरक्षा का मुद्दा.

पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी ऑन इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी की साइबर सिक्योरिटी रिपोर्ट के मुताबिक़, क्या आधार योजना राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता करने जैसा और नागरिकों की संप्रभुता और निजता के अधिकार पर हमला नहीं है? क्या ये चिंताएं अब ख़त्म हो गई हैं? सरकार को बताना चाहिए कि पिछले तीन सालों में ऐसा क्या हुआ, जिसकी वजह से आधार, जो बीजेपी के लिए एक खतरनाक प्रोजेक्ट था, अचानक से सरकार की प्राथमिकता बन गई.

पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपीए सरकार से ये पूछा था कि आधार योजना पर कितना पैसा ख़र्च हुआ है और आगे कितना होगा. आज यही सवाल मोदी सरकार से पूछना चाहिए. अगर इन सवालों का जवाब नहीं मिलता है, तो ये क्यों न मान लिया जाए कि देश की सरकार और सरकारी संस्थाएं विदेशी कंपनियों और अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के हाथ की कठपुतली बन गई है. उन्हीं के इशारों पर भारत की जनता की निजता और सुरक्षा को खतरे में डालने की शर्मनाक साजिश हो रही है.

विदेशी संगठन ताकतवर हैं. दुनिया के किसी भी देश में वो कुछ भी करने में सक्षम हैं. खासकर उन देशों में इनकी शक्ति और भी ज्यादा है, जिन देशों की आर्थिक व्यवस्था और आर्थिक नीतियों का संचालन उन संगठनों के हाथ में है. अफसोस की बात ये है कि 1991 से भारत उन्हीं देशों की लिस्ट में शामिल हो गया जिसकी कमान वैश्विक संगठनों के हाथ में है. आखिर में, किर्गिस्तान नामक देश का एक उदाहरण देता हूं, जिससे आपको समझ में आ जाएगा कि आधार योजना किस तरह एक अंतर्राष्ट्रीय साजिश का हिस्सा है और क्यों भारत ने घुटने टेक दिए हैं.

किर्गिस्तान की सरकार ने भी आधार जैसी योजना को लागू किया और वहां के नागरिकों के बायोमैट्रिक्स को जमा करना शुरू किया. जिस तरह भारत में इसे हर जगह लागू किया जा रहा है, उसी तरह किर्गिस्तान में भी पासपोर्ट, पहचान पत्र और चुनाव में इसके इस्तेमाल को अनिवार्य करने का फैसला लिया गया. किर्गिस्तान की सरकार ने 2014 में एक कानून पास कर नागरिकों की बायोमैट्रिक जानकारी को जमा करने पर कानूनी मुहर लगा दी थी. भारत की तरह वहां के भी सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. विरोध का तर्क और साक्ष्य वही, जो भारत में पेश किया जा रहा है. इस पर किर्गिस्तान की सुप्रीम कोर्ट की जज क्लारा सूरोनकुलोवा ने एक दस्तावेज तैयार किया.

इसके ड्राफ्ट में जज साहिबा ने इस पूरी प्रक्रिया को गैर-संवैधानिक घोषित कर दिया. यह खबर मिलते ही सुप्रीम कोर्ट के जजों की कॉन्सिल ने क्लारा सूरोनकुलोवा को बर्खास्त कर दिया. इसके बाद लोगों ने इसका विरोध किया और संसद का घेराव कर यह आग्रह किया कि संसद से उन्हें न्याय मिले. संसद से न्याय देने के बजाय किर्गिस्तान के राष्ट्रपति ने संसद में फर्जीवाड़े से बहुमत जुटाकर जज क्लारा सूरोनकुलोवा को दोषी करार दिया और उन्हें बर्खास्त कर दिया. सूरोनकुलोवा के मुताबिक कॉन्सिल ऑफ जज पर राष्ट्रपति अल्माज़बेक आतमबायेव ने ही यह दबाव दिया था कि उन्हें किसी भी कीमत पर रोका जाए.

यह उदाहरण इसलिए दे रहा हूं, ताकि आधार के पीछे लगी विदेशी शक्तियों की ताकत का अंदाजा लग सके. भारत में ये मामला सुप्रीम कोर्ट में है. हर सुनवाई के दौरान कोर्ट अपने पुराने फैसले को दोहराती है और अगली सुनवाई में यह पता चलता है कि सरकार कोर्ट के आदेशों का उल्लंघन कर रही है. फिर भी, कोर्ट हताश निराश और असहाय होकर सिर्फ सुनवाई की तारीख आगे बढ़ा दे रहा है.

प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी का आधार पर बयान

मित्रो, दो दिन पहले सुप्रीम कोर्ट का एक निर्णय आया. जिस आधार कार्ड के नाम पर पूरे हिन्दुस्तान में कांग्रेस के लोग नाच रहे थे और जिसे वे हर संकटों से मुक्ति दिलाने की जड़ी-बूटी बता रहे थे, उस आधार को लेकर खेले जा रहे इनके खेल पर सुप्रीम कोर्ट से इन्हें डांट पड़ी है. आज सवाल यह है कि प्रधानमंत्री जी से देश पूछना चाहता है कि इस आधार कार्ड के पीछे कितने रुपए खर्च हुए, ये रुपए कहां गए, आधार कार्ड का लाभ किसको मिला. सुप्रीम कोर्ट ने जो सवाल उठाए हैं, उन सवालों के जवाब इस देश की जनता आपसे मांगती है . मैं एक बात पहली बार आप लोगों के सामने रखने जा रहा हूं.

पिछले तीन साल से मैं लगातार गुजरात की तरफ से प्रधानमंत्री जी को चिट्‌ठी लिखता रहा हूं. मैंने आधार कार्ड के संबंध में गंभीर सवाल उठाए थे. मैंने उन्हें चेतावनी दी थी कि हमारा गुजरात सीमावर्ती राज्य है. आप इस प्रकार से किसी के माध्यम से किसी को भी आधार कार्ड देते जाएंगे, तो हिन्दुस्तान में जो इनफिलट्रेशन करने वाले लोग हैं, उनको बढ़ावा मिलेगा. पड़ोसी देशों के लोग हमारे यहां घुस जाएंगे, गैर कानूनी तरीके से वे नागरिक बन जाएंगे, हमारा हक़ छीन लेंगे. आप इस पर गंभीरता से सोचिए.

मैंने उसकी पद्धति के संबंध में सवाल उठाए थे. आज जो सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाए हैं, वे सारे सवाल तीन साल पहले मैं देश के प्रधानमंत्री के सामने उठा चुका हूं. मैंने प्रधानमंत्री से आग्रह किया था कि आप नेशनल सिक्युरिटी कॉन्सिल की मीटिंग बुलाइए, मुख्यमंत्रियों से इस विषय में चर्चा कीजिए, आधार कार्ड के नाम पर आप इस देश पर गंभीर संकट लाएंगे. इस पर गंभीरता से सोचिए. उन्होंने नहीं सोचा, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जब डंडा मारा तब उनको समझ में आया.

यूआईडी की शुरुआत

यह एक हैरत अंगेज दास्तां है. देश में एक विशिष्ट पहचान पत्र के लिए विप्रो नामक कंपनी ने एक दस्तावेज तैयार किया. इसे प्लानिंग कमीशन के पास जमा किया गया. इस दस्तावेज का नाम है स्ट्रैटेजिक विजन ऑन द यूआईडीएआई प्रोजेक्ट. मतलब यह कि यूआईडी की सारी दलीलें, योजना और उसका दर्शन इस दस्तावेज में है. बताया जाता है कि यह दस्तावेज अब ग़ायब हो गया है.

विप्रो ने यूआईडी की ज़रूरत को लेकर 15 पेज का एक और दस्तावेज तैयार किया, जिसका शीर्षक है, डज इंडिया नीड ए यूनीक आइडेंटिटी नंबर. इस दस्तावेज में यूआईडी की ज़रूरत को समझाने के लिए विप्रो ने ब्रिटेन का उदाहरण दिया. इस प्रोजेक्ट को इसी दलील पर हरी झंडी दी गई थी. हैरानी की बात यह है कि ब्रिटेन की सरकार ने अपनी योजना को बंद कर दिया. उसने यह दलील दी कि यह कार्ड खतरनाक है, इससे नागरिकों की प्राइवेसी का हनन होगा और आम जनता जासूसी की शिकार हो सकती है.

अब सवाल यह उठता है कि जब इस योजना की पृष्ठभूमि ही आधारहीन और दर्शनविहीन हो गई, तो फिर सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि वह इसे लागू करने के लिए सारे नियम-क़ानूनों और विरोधों को दरकिनार करने पर आमादा है. क्या इसकी वजह नंदन नीलेकणी हैं, जो यूपीए सरकार के दौरान प्रधानमंत्री के करीबी और यूआईडीएआई के चेयरमैन थे. क्या यह विदेशी ताक़तों और मल्टीनेशनल कंपनियों के इशारे पर किया जा रहा है? देश की जनता को इन तमाम सवालों के जवाब जानने का हक़ है, क्योंकि यह काम जनता के हज़ारो करोड़ रुपए से किया जा रहा है, जिसे सरकार के ही अधिकारी अविश्वसनीय, अप्रमाणिक और दोहराव बता रहे हैं.

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