डॉ. वेदप्रताप वैदिक

संसद का यह वर्षाकालीन सत्र शुरु होगा 14 सितंबर से लेकिन उसे लेकर अभी से विवाद छिड़ गया है। विवाद का मुख्य विषय यह है कि सदन में अब प्रश्नोत्तर काल नहीं होगा। इसके पक्ष में सत्तारुढ़ पार्टी भाजपा का एक तर्क यह है कि लोकसभा और राज्यसभा सिर्फ चार-चार घंटे रोज़ चलेंगी। यदि उनमें एक घंटा सवाल-जवाब में खर्च हो गया तो कानून-निर्माण का काम अधूरा रह जाएगा। दूसरा तर्क यह है कि सांसदों के जवाब जब मंत्री देते हैं तो उनके मंत्रालय के कई अफसरों को वहां उपस्थित रहना पड़ता है। इस कोरोना-काल में यह शारीरिक दूरी के नियम का उल्लंघन होगा। सरकार के ये तर्क प्रथम दृष्टया ठीक मालूम पड़ते हैं लेकिन वह संसद भी क्या संसद है, जिसमें जवाबदेही न हो। वह लोकतंत्र की संसद है या किसी राजा का दरबार ? संसद की सार्थकता इसी में है कि जनता के प्रतिनिधि जन-सेवकों (मंत्रियों) से सवाल कर सकें, जनता के दुख-दर्दों को आवाज़ दे सकें और सरकार उनके हल सुझा सके। यदि मंत्रिगण सवालों के जवाब ठीक से तैयार करें तो अफसरों को साथ लाने की भी जरुरत नहीं रहेगी। इस प्रश्नोत्तर की प्रक्रिया को स्थगित करना लोकतंत्र की हत्या है, ऐसा आरोप विरोधी लगा रहे हैं। यह आरोप अतिरंजित है, क्योंकि इस सत्र में ‘शून्य-काल’ बनाए रखा गया है, जिसमें अचानक ही कोई भी ज्वलंत प्रश्न उठाया जा सकता है। प्रश्नोत्तर प्रायः सुबह 11 से 12 और शून्य काल 12 बजे से शुरु होता है। इसे भी अब आधे घंटे का कर दिया गया है। इसी तरह प्रश्नोत्तर-काल भी आधे घंटे का किया जा सकता है। संसद की कार्रवाई यदि सिर्फ 14-15 दिन ही चलनी है तो उसके सत्रों को रोज 8-10 घंटे तक क्यों नहीं चलाया जाता ? यदि वे शनिवार और रविवार को चल सकते हैं तो 8-10 घंटे रोज़ क्यों नहीं चल सकते ? यदि जगह कम पड़ रही है तो दिल्ली के विज्ञान भवन जैसे कई भवनों में सांसदों के बैठने की व्यवस्था भी की जा सकती है। भारतीय संसद का प्रश्नोत्तर-काल पिछले 70 वर्ष में सिर्फ चीनी हमले के वक्त स्थगित किया गया था। अब तो कोई युद्ध नहीं हो रहा है। इस कोरोना-काल में प्रश्नोत्तर-काल ज्यादा जरुरी और उपयोगी होगा, क्योंकि सभी सांसद अपने-अपने क्षेत्र की समस्याओं से सरकार को अवगत कराएंगे ताकि वह इस महामारी का मुकाबला ज्यादा मुस्तैदी से कर सके।

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