अजय बोकिल
वरिष्ठ संपादक

देश के सबसे स्वच्छ शहर इंदौर को भिखारी मुक्त नगर भी इस तरह बनाया जाएगा, उम्मीद न थी। आखिर सफाई की ऐसी भी क्या आदत कि नगर निगम भिखारियों को भी कचरा समझ कर ठिकाने लगाने लगे। जो हुआ, उस पर गुस्सा कम क्षोभ ज्यादा है। हालांकि इस अक्षम्य अमानवीयता पर शिवराज सरकार ने तुरंत एक्शन लेकर ननि के एक आला अफसर को सस्पेंड किया, दो दिहाड़ी मजदूरों को बर्खास्त भी किया। कलेक्टर मनीष सिंह ने सार्वजनिक रूप से माफी मांगी। लेकिन बेरहमी का जो तीर निष्ठुरता की कमान से छूट चुका था, वह तो वापस आने से रहा। क्योंकि बुजुर्ग भिखारियों को भेड़ बकरी की तरह मलबा ढोने वाले डंपर में लादकर शहर की सीमा से बाहर छोड़ आना शुद्ध निर्दयता और संवेदनहीनता है। सरकारी कार्रवाई शायद इस मामले में भी होगी, लेकिन जो सवाल अनुत्तरित है, वह ये कि इंसानियत को ताक पर रखकर यदि कोई शहर नंबर वन बन भी जाए तो उसका क्या मतलब?

सचमुच इंदौर में तीन दिन पहले जो हुआ, वह शर्मसार करने के साथ साथ रोंगटे खड़े करने वाला है। इसलिए कि किसी नेक उद्देश्य के लिए किया जाने वाला काम कितना बदी से भरा हो सकता है, यह पूरे देश और दुनिया ने देखा। महसूसा। हातिमताई अभिनेता सोनू सूद ने जब उन लाचार बुजुर्गों की हालत देखी तो मदद के लिए हाथ बढ़ाया। जिसने भी यह वीडियो देखा और खबर पढ़ी, उसने क्षण भर के लिए ही सही बुढ़ापे के आईने में अपना चेहरा जरूर देखा होगा।
बूढ़े और भिखारी हमारी सामाजिक व्यवस्था की दुखती रग हैं। बुढ़ापा तो प्रकृति दत्त है, लेकिन भिखारी होना हमारी सामाजिक विषमता और संवेदेनहीनता का दुष्परिणाम है। चंद लोग कामचोर और आलसी होने के कारण भी भीख मांगते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग ऐसे हैं, जिन्हें हालात ने भिखारी बना दिया है वरना आत्मसम्मान को लाचारी में दबाकर कोई किसी के हाथ क्यों फैलाना चाहेगा, वो भी इस दुआ के साथ कि जो दे उसका भी भला, जो न दे उसका भी भला।

इंदौर में जो हुआ, वह एक नेक नीयत संकल्प की अव्यावहारिक परिणति थी। ध्यान रहे कि भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग ने इंदौर सहित देश के 10 शहरों को भिखारी मुक्त बनाने का ऐलान किया है। हालांकि इस देश में कोई शहर सचमुच ‘भिखारी मुक्त’ हो सकता है क्या, यह बहस का विषय है, क्योंकि हम आज तक एक भी शहर झुग्गी मुक्त नहीं बना सके तो भिखारी मुक्त बनाना तो दूर की बात है। घोर सामाजिक व आर्थिक विषमता इसका बड़ा कारण है। दूसरे, हमारी अर्थनीति सामाजिक सोच और कुछ हद तक धार्मिक आग्रह भी भिक्षा वृत्ति को बढ़ाते ही हैं,कम नहीं करते। फिर भी सरकार अगर ऐसा करने जा रही है तो अच्छा ही है। लेकिन इस योजना के क्रियान्वयन का तरीका वैसा तो न हो, जैसा कि इंदौर में हुआ।

हममे से बहुत कम इस बारे में सोचते होंगे कि हाड़ कंपाने वाली ठंड, जानलेवा गर्मी और बेरहम बारिश में वो भिखारी कैसे जीते होंगे, जिनमें से बहुतों के पास न तो सिर छिपाने के लिए छत है और न ही सोने के लिए बिस्तर है। एक भीख का कटोरा ही उनका जीवन साथी होता है, जिसके भरने या खाली रहने से उनकी जिंदगी का ग्राफ तय होता है। ऐसे में जनवरी की भयानक सर्दी में भिखारियों और वो भी बुजुर्गों को इस तरह उठाकर मलबे की तरह शहर के बाहर फेंक आना, अमानवीय ही नहीं शर्मनाक भी है। वो तो भला हो, उस एक संवेदनशील नागरिक का जिसने डंपर से नीचे फेंके जाते बुजुर्गों का वीडियो बनाकर वायरल कर दिया, वरना इस हादसे की खबर भी दुनिया को ठीक से नहीं मिल पाती। इस पूरे मामले पर ऊपर से नीचे तक हड़कंप मचने के बाद दलील यह आ रही है कि वास्तव में इन भिखारियों को कड़ाके की ‍सर्दियों में रैनबसेरा भेजा जाना था, क्योंकि हर सर्दी में सुरक्षा के लिए लिहाज से ऐसा किया जाता है। लेकिन रैनबसेरे के बजाए इन बुजुर्गों को शिप्रा गांव के पास खुले आसमान के नीचे क्यों धकेल दिया गया, इसका सही उत्तर मिलना अभी बाकी है। यह काम किस अधिकारी के कहने पर किया गया? अगर आदेश देने वाले ने यह दे भी दिया तो उसकी हुकुम अमली इस तरह से क्यों की गई? और ऐसा करके वो क्या सिद्ध करना चाहते थे? अपनी सह्रदयता या निर्दयता ?

यूं तो दुनिया के लगभग सभी देशों में भिखारी हैं। लेकिन भारत में इनकी तादाद 5 लाख से ज्यादा है। ये आंकड़े भी 2011 की जनगणना के बाद के हैं। उसके बाद से कोई भिखारी गणना नहीं हुई। जबकि देश में उनकी संख्या में पहले से काफी वृद्धि हुई है। खासकर लाॅक डाउन में छिने रोजगारों ने भिखारियों की संख्या को काफी बढ़ाया ही है। पिछली जनगणना में देश में भिखारियों की संख्या के मामले में मप्र का नंबर 5 वां है। इनमें भी सबसे ज्यादा भिखारी शायद इंदौर में हैं, क्योंकि वह दिलदारों का शहर भी है। अपने देश में भीख मांगना कानूनन अपराध है, लेकिन उसका कहीं कोई व्यावहारिक असर देखने को नहीं मिलता। उल्टे भीख के नए नए तरीके ईजाद हो रहे हैं, जिनमें ट्रैफिक सिग्नल पर रूकने के दौरान भीख मांगना शामिल है। कई लोगों के लिए भीख एक बिन पूंजी का और मुनाफेवाला धंधा है। और वो भीख भी इस अंदाज में मांगते हैं कि यह उनका हक है और भीख देना आपकी मजबूरी। बहुत से लोग शारीरिक अक्षमता और परिवार द्वारा ठुकराए जाने के कारण भीख मांग कर पेट भरते हैं। कारण जो भी हों, लेकिन अंतत: हैं वो इंसान ही। इंदौर में ऐसे लोगों को रैनबसेरे में शिफ्‍ट किया जाना था तो भी कम से कम इस तरीके से तो ले जाना था कि उनकी मानवीय गरिमा तो कायम रहे। भिखारी हो जाना, जानवर हो जाना तो नहीं है कि कुत्ता गाड़ी में आवारा कुत्तों की तरह भरा और शहर की सरहद से बाहर छोड़ आए। वो जाने, उनकी किस्मत जानें।

ये सब क्यों हुआ, कैसे हुआ, इस सवालो से बड़ा सवाल यह है कि हम लाचार बुजुर्गों के बारे में ऐसा सोच भी कैसे सकते हैं? ऐसे असहाय लोग भीख भी न मांगे तो पेट कैसे भरें? हमे ज्यादातर भिखारियों की राम कहानी पता नहीं होती कि उस पर भीख मांगने की नौबत क्यों आई?क्यों वह सड़क, चौराहे या किसी धार्मिक स्थल के बाहर भीख मांगकर शहर की खूबसूरती पर बदनुमा दाग लगा रहा है? वह कुछ काम क्यों नहीं करता? हर राहगीर को आस भरी आंखों से तकते रहने के बजाए खुद पैसे क्यों नहीं कमाता?

हकीकत यह है कि जो इतना सोच पाता, वह कभी भिखारी बन ही नहीं पाता। खुद्दारी और लाचारी के बीच की लाइन ऑफ कंट्रोल मिटने पर ही आदमी सरे आम भीख मांग सकता है। इंदौर में डंपर में भरे गए ज्यादातर भिखारी उम्र के उस दौर मे हैं, जहां हाथ पैर,आंखें और कभी दिमाग भी साथ छोड़ चुका होता है। उन्हें हटाकर शहर को चार चांद कैसे लगते, यह भी एक बड़ा सवाल है। जो घटा,वह एक घटना भर नहीं है बल्कि उस बदले समाज का आईना भी हैं कि बूढ़े अब सिर्फ एक अवांछित बोझ हैं। अपनो के लिए भी, गैरों के लिए भी। घर के लिए भी और शहर के लिए भी। उनकी असल जगह वही है, जो नगर निगमकर्मियों ने उन्हें दिखा दी थी। अब मरहम लगाने की कोशिश हो रही है, लेकिन कल फिर ऐसा नहीं होगा, इसकी उतनी भी गारंटी नहीं है, जितनी कि चीनी माल की होती है।

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