वर्ष 2013 तक यह गठबंधन अच्छी तरह से काम करता रहा. भाजपा एक आदर्श गठबंधन सहयोगी बनी रही. जब तक यह गठबंधन जारी रहा, संघ परिवार ने भी बिहार में कोई अप्रिय व्यवहार नहीं किया. उसके बाद 2013 के मध्य में नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़ दिया. वजह किसी से छिपी हुई नहीं थी. उन्होंने लोकसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का पद त्याग दिया. फिर हमने मांझी को आते और जाते देखा. दरअसल, 2013 के मध्य से विकास का काम जदयू के अकेले के शासनकाल में बाधित रहा. 

विपक्ष को गठबंधन बनाने के लिए प्रेरित करना भाजपा- एनडीए की एक ऐसी उपलब्धि है, जिस पर किसी का ध्यान नहीं गया. विपक्षी दलों को एक मंच पर एकत्र होकर गठबंधन बनाने की प्रेरणा भाजपा, आरएसएस एवं विहिप के अत्यधिक धार्मिक लहजे से मिली है. वे सेकुलरिज्म का बैनर लहराते हैं, जो उनके मुताबिक संघ परिवार के हिंदू राष्ट्रवाद के ठीक विपरीत है. यही तर्क उत्तर प्रदेश एवं बिहार के यादव गठबंधन का है, जिसने राजद, जदयू और समाजवादी पार्टी को इकट्ठा किया है. गठबंधन बनाने में आपसी अहंकार आड़े आ गया और एक लंबे समय तक किसी को पता नहीं था कि इस गठबंधन का क्या होने वाला है. लेकिन, अंतत: मुलायम सिंह यादव की वरिष्ठता का लिहाज़ रखते हुए गठबंधन पर मुहर लग गई. अब ऐसा लगता है कि साल के बाकी बचे हिस्से के लिए या बिहार चुनाव तक नीतीश कुमार और लालू यादव ने अपने-अपने तीर अपने-अपने तरकश में छिपा लिए हैं. इस अ़फवाह के बावजूद कि सोनिया गांधी लालू यादव के हक़ में हैं, जबकि राहुल लालू को नहीं चाहते, कांग्रेस भी गिरते-पड़ते इसमें शामिल हो गई. ख्याल रहे कि यह वही राहुल हैं, जिन्होंने आवेश में आकर उस अध्यादेश को फाड़ दिया था, जिसके पारित होने की स्थिति में लालू यादव अपनी सदस्यता खोने से बच जाते. बहरहाल, इस वजह से लालू के लिए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार स्वीकार करना आसान हो गया.
बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के लिए जो सबसे दिलचस्प तथ्य है, वह है देश के अन्य भागों के एक बड़े हिस्से के विपरीत यहां हिंदू वर्ण व्यवस्था आज भी मतदान प्रणाली को प्रभावित करती है या कम से कम सेक्युलर पार्टियां तो यही सोचती हैं. लिहाज़ा, उम्मीदवारों को टिकट देने से पहले ऊंची जाति, ओबीसी एवं दलित के समीकरण को सावधानीपूर्वक बैठाया जाएगा. बेशक मुस्लिम वोटों के लिए भी खेल होगा. इसलिए ब्राह्मण, यादव, मुस्लिम एवं दलित की जोड़-तोड़ चुनाव प्रचार पर हावी रहेगी. यहां न तो रोटी, कपड़ा, मकान का कोई मतलब है और न बिजली, पानी, सड़क का. यहां आपके लिए आपकी जाति अहम है और मुसलमानों के लिए उनकी धार्मिक पहचान. अब सवाल यह उठता है कि उत्तर प्रदेश और बिहार आज भी जातिवाद की उलझन में क्यों फंसे हुए हैं? आज़ादी के 67 वर्षों बाद भी ये दोनों राज्य देश के अन्य राज्यों के मुक़ाबले पिछड़े क्यों हैं? देश की आबादी और पिछड़ेपन में इन राज्यों की बड़ी हिस्सेदारी है, जो मानव संसाधन विकास, प्रति व्यक्ति आय और न्याय के किसी भी मानक पर भारत की स्थिति कई पायदान नीचे गिरा देती है. देश में अब यही दोनों आ़िखरी बीमारू राज्य क्यों बचे हैं?
ज़रा गौर कीजिए कि इन राज्यों पर कौन शासन कर रहा है. आज़ादी के बाद के पहले 43 वर्षों तक यहां कांग्रेस सत्ता में रही. बाकी देश में कांग्रेस का वर्चस्व स्थापित करने में यही दो राज्य सहायक थे. कांग्रेस ब्राह्मण-ठाकुर राज चला रही थी और पिछड़ी जातियों को नज़रअंदाज़ कर रही थी. इस दौरान उसने इन जातियों की लड़कियों की कौन कहे, लड़कों में भी साक्षरता फैलाने की कोशिश नहीं की और न आधारभूत सुविधाओं में किसी तरह का निवेश किया. ये दोनों राज्य धार्मिक अंधविश्वास, जातीय दमन और अभिजात्य वर्ग की सत्ता के पर्यायवाची बन गए. राजीव गांधी की ग़लतियों की वजह से कांग्रेस के वर्चस्व की समाप्ति के बाद प्रतिक्रिया स्वरूप जो अवसर सामने आया, उसे यादव पार्टियों ने अपने हाथों से जाने नहीं दिया और अपनी जाति के लोगों को इन राज्यों को लूटने में लगा दिया. लालू दिलेरी से कहते रहे कि विकास नहीं, सम्मान चाहिए. मुलायम सिंह यादव ने तो यह भी नहीं कहा. उनके गांव सैफई के बाहर जैसे बाकी उत्तर प्रदेश ठहर गया. बिहार खुशकिस्मत था कि वर्ष 2005 में जदयू सत्ता में आ गया. भाजपा के साथ गठबंधन कर नीतीश कुमार ने विकास के सभी मोर्चों पर महत्वपूर्ण कामयाबी हासिल की, मुख्य रूप से लड़कियों की शिक्षा के क्षेत्र में. पहली बार बिहार की विकास दर राष्ट्रीय विकास दर से आगे थी. भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने राज्य के लिए एक संतुलित बजट पेश किया था.
वर्ष 2013 तक यह गठबंधन अच्छी तरह से काम करता रहा. भाजपा एक आदर्श गठबंधन सहयोगी बनी रही. जब तक यह गठबंधन जारी रहा, संघ परिवार ने भी बिहार में कोई अप्रिय व्यवहार नहीं किया. उसके बाद 2013 के मध्य में नीतीश कुमार ने गठबंधन तोड़ दिया. वजह किसी से छिपी हुई नहीं थी. उन्होंने लोकसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री का पद त्याग दिया. फिर हमने मांझी को आते और जाते देखा. दरअसल, 2013 के मध्य से विकास का काम जदयू के अकेले के शासनकाल में बाधित रहा. लिहाज़ा, जो गठबंधन अब बिहार में चुनाव लड़ने जा रहा है, राज्य की दुर्दशा में उसकी भागीदारी दो तिहाई है. अगर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के रूप में वापस आते हैं, तो उनके पास ऐसे सहयोगी होंगे, जिन्होंने बिहार को 58 वर्षों तक ऩुकसान पहुंचाया है. उनका नारा होगा कि विकास नहीं, सेकुलरिज्म चाहिए. अगर वे चुनाव जीत जाते हैं और जदयू पिछड़ जाता है, तो क्या वे फिर भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनने देंगे?

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