साहित्य क्या है इस विषय पर हमने एक परिचर्चा की।इस विषय पर मिशेल फूको का एक लंबा लेख है। हिन्दी में ही नहीं हर भाषा में साहित्य को परिभाषित करने की अनंत कोशिशें होतीं रहीं। यहां कुछ और सुंदर विचार आए हैं…

 

मीरा गौतम (चंडीगढ़)कहती हैं

साहित्य एक रचनात्मक दायित्त्व है. नज़रिए की समग्रता का दूसरा नाम. आपकी क्षमता, धैर्य, अनुभव का स्वेद इसे मज़बूती देता है.
यह सृजन है.आसान नहीं है.बिना प्रेरणा के एक शब्द भी नहीं रचा जा सकता…
यहाँ परिमाण नहीं गुणवत्ता चाहिए.
एक-एक शब्द भीतर पककर, तच-रझकर प्रसव- वेदना की तरह समय पर ही बाहर आता है ,पूरी मज़बूती के साथ. यह सचेत और सतर्क प्रक्रिया है.
चमत्कार तब होता है जब शब्द और ध्वनियाँ स्वयं ढल ढलकर बाहर आती हैं.
आप घर,बाहर और यात्रा में कहीं भी हों,इन्हें दर्ज़ करने के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं होता.
रचना के क्षणों में केवल आप उसके साथ होते हैं.
छपास रोग से दूर.
रचना में दम होगा तो वह बोलेगी.
दरवाज़ा तोड़कर बाहर आयेगी. आपको कुछ नहीं करना होगा.
यह एक ऐसा घर है जो
दीर्घजीवी ,सार्वकालिक और सार्वदेशिक होता है.
इसकी मज़बूती के लिए
नींव , खंभे, आँगन , दीवारें,खिड़की, दरवाज़े और चौबारे के निर्माण में वायु प्रोविज़न का होना
अनिवार्यतः ज़रूरी है.
रचना सांस लेगी तो चिरस्थायी होगी.आप उसमें प्रतिबिंबित होंगे.
समय के साथ यदि खंडहर भी होगी तो भी ,अपनी कथा स्वयं कहेगी और समय इसे फिर- फिर सहेजता रहेगा और,इसकी पहचान बरक़रार रहेगी.
दार्शनिक इमरसन ने कहा है कि रचनाकार सूनी बैंचों को सम्बोधित करता है.
उसे विश्वास है कि शताब्दियों बाद भी उसकी आवाज़ सुनी जायेगी.।

अरूण सातले( खंडवा) बताते हैं।

भाव और विचारों के अंतर्गुम्फन का प्रकटीकरण है,साहित्य
आमजन की अनभिव्यक्त बातों को अभिव्यक्त करता है,साहित्य.
स्मृतियों में दर्ज खयालात और अपने समकाल को अभिव्यक्त करने के साथ उनके प्रभावों को लक्षित करते हुए भविष्य के प्रति सचेतन करता है,साहित्य.
संवेदना का अनवरत प्रवाह है,साहित्य.
तो
हर मनुष्य में मानुष भावों का संचरण करता है,साहित्य.
सत का साथ ,सांची बात,और सबका हित चाहता है,साहित्य.
अरुण सातले

प्रदीप मिश्र (इंदौर)ने कहा कि

साहित्य मृत्यु के बरक्स जीवन का आख्यान है बस।

देवीलाल पाटीदार ने कहा
कोई भी कलाकार या लेखक जब कला या साहित्य का विद्यार्थी ही होता या रहता हे
जो अभी जानने की राह का राहगिर हे ओ मंज़िल का क्या पता बताएगा ?

रेखा दुबे (विदिशा)ने लिखा कि

साहित्य भावों के आवेश की वो चरम सीमा है।जहां कवि मन प्रकृति, जीवन ,संस्कृति, सांसारिक व्यवहार यहां तक की राजनीति के अभेद दुर्ग को लांघता हुआ उसमें समाविष्ट हो कर उसकी संरचना का भेदन करता हुआ उसकी व्यथा कथा का अपनी रुचि और बौदिकता के आधार पर आंकलन करते हुए उसकी अच्छाइयों,बुराइयों एवं उसके परिणाम को उसी भावोनुकूल भय,दुख,खुशी,प्रेम,शोक,करुणा आदि.अलग अलग रसों से सुशोभित कर देता है।
अर्थात् मन के भावों की वो पराकाष्ठा जो स्व को खो कर लिखी जाए साहित्य है।

नीलिमा करैया (होशंगाबाद) ने बताया कि

साहित्य व्याकरण सम्मत भाषा का वह स्वरूप है जो मानव मात्र के लिये ज्ञानार्जन का साधन है।
रस से परिपूर्ण गद्य की विभिन्न विधाओं एवं काव्य के विभिन्न प्रकारों की सोच-विचार की दृष्टि से,भावनात्मक, कलात्मक,कल्पनात्मक ,अनुभूतिजन्य वाचिक या लिखित अभिव्यक्ति है।
शास्त्र कहते हैं रस के बिना मनुष्य पशु है।तो निश्चित ही रस की अनुभूति व ज्ञान की परिपक्वता का माध्यम है साहित्य जीवन है,ज्ञान है,संस्कार है,प्रेरणा है।उत्थान है। समग्रता में यही जीवन है।
पर संक्षेप में-
व्याकरण सम्मत व रस युक्त भाषा का वह लिखित या मौखिक स्वरूप जो अभिव्यक्ति व ज्ञानार्जन का माध्यम है ,साहित्य कहलाता है।

आशीष ठाकुर (छिंदवाड़ा) कहते हैं कि

साहित्य क्या है? यह वैसा ही प्रश्न है, जैसे कोई हमसे पूछे.. पानी क्या है?
जबकि पानी हमारी रोम-रोम में समाया हुआ है। पानी जड़-चेतन का साया है।
ज्यों पानी हमारे जीवन का आधार है, हमारे रोम-रोम में समाया हुआ है। त्यों ही साहित्य भी हमारे जीवन का एक अभिन्न व महत्वपूर्ण हिस्सा है।
आम बोलचाल में प्रयुक्त शब्द, कहावतें और मुहावरों से लेकर पूजा घर में रखी आरती की पुस्तक, ग्रंथ और महाग्रंथ; रसोईघर में रखी व्यंजन विधि की पुस्तक; अध्ययन कक्ष में रखी पाठ्य पुस्तकें हों या टेबिल पर पड़ा दैनिक अखबार इन सब की विषयवस्तु का मूल साहित्य ही है।
जैसे दूषित पानी का सेवन हमारे शरीर में विभिन्न व्याधियों को कारण बनता है जबकि स्वच्छ पानी चेहरे की चमक-धमक में झलकता है।
ठीक वैसे ही साहित्य भी है।
साहित्य को उसमे निहित भलाई और बुराई के आधार पर दो खंडो में विभक्त किया जा सकता है..
(क) सद्‌ साहित्य, (ख) बद् साहित्य
सद् साहित्य की छाँव में आया आदमी निखरकर प्रखरता को प्राप्त होता है। जबकि बद्‌ साहित्य के सेवन से जीवन विभिन्न व्याधियों से भर जाता है और अंत में बद् से बद्त्तर जीवन की ओर गमन करता है।
साहित्य या सद् साहित्य को उसके शाब्दिक अर्थ में इस तरह भी समझा जा सकता है..
सा + हित् + य = साहित्य
अर्थात् वह साधन जिसके साध्य में समष्टि का हित निहितार्थ हो, साहित्य कहलाता है।

 

सीमा जैन (ग्वालियर) से फरमाती हैं कि

शब्दों के महासागर में किताबों के अनंत द्वीपों का नाम है साहित्य। व्यथा के गहरे सागर में यही मानवता के द्वीप हमें आश्रय देते हैं।
हर लेखक का अपना शब्दों का सागर होता है जिनसे वह अपने द्वीप को रचता है।
एक पाठक या लेखक के रूप में इस महासागर में हम एक बूंद जितने ही हैं।

ख़ुदेज़ा खान (जगदलपुर)ने बहुत पते की बात कहीं कि

कुल मिलाकर साहित्य सृजन मनुष्य को मनुष्यता की ओर ले जाने का संवेदनशील लोगों के लिए एक सहज उपक्रम है, निजी जीवन में,समाज में, देश, दुनिया में जो भी घटित होता है अच्छा या बुरा, उसी से संवेदनाएं प्रभावित होती हैं और उसकी भावाभिव्यक्ति साहित्यकार अनेक विधाओं के माध्यम से लिखित रुप में करता है। यही साहित्य कहलाता है।
संवेदना,भाव, विचारों का समुच्चय।

शिवानी जयपुर (जयपुर) ने अलग हटकर कुछ कहा

जो साध ले सबका हित, वही है साहित्य।

आत्ममुग्ध विघटनकारी शक्तियों का जमावड़ा भी है तो सामाजिक सरोकारों का गहन और सूक्ष्म विश्लेषणात्मक रसायन भी यहाँ लोगों को निष्चेतन और सचेतन, दोनों करता है।
अपनी यात्राओं से वैभव प्रदर्शित करने वाली संस्कृति के पैरोकारों से, यात्रा का सच्चा आनंद साझा करने वाले नेपथ्य में छूट जाते हैं यहाँ कभी-कभी!
संस्मरण और व्यंग कभी-कभी भाई-बहन की तरह हाथ में हाथ डाले घूमते हुए भ्रमित करते देखे हैं। व्यक्तिगत रार का ग़ज़ब साहित्यिकरण देखा है।
चाटुकारिता पसंद लोगों की चाटुकारिता करते स्वहित साधक रोबोट भी मिलते हैं साहित्य जगत में।
आलोचना के माध्यम से भड़ास निकालने वाले कर्मवीर भी हैं तो नीर-क्षीर विवेचन करने वाले योद्धा भी कम नहीं हैं साहित्य में।
प्रेमिल भावनाओं का सर्वनाश करने का बूता सिर्फ साहित्य में ही था, सो बड़े गर्व और बेहयाही से कर ही रहा है। बैडरूम स्टोरी से लेकर विरह वेदना की कलकल बहती पीड़ा में प्रेम ऐसे नदारद होता है जैसे धरती पर से सरस्वती नदिया लुप्त है…
बहुत कुछ उबल रहा है भीतर पर अब विराम देती हूँ। इस चर्चा में जबरन उपस्थित होने का हित सध गया है मेरा, सो अब समापन करती हूँ।

बबीता गुप्ता( बिलासपुर )कहती हैं –

अपने समय के फलक पर बहुपक्षीय दृष्टिकोण से जीवन जगत के यथार्थ बोध से उपजी अंतर्मन की अनुभूतियों, मनोवेगों की लिपिबद्ध अर्थवत्ताप्रधान अभिव्यक्ति का माध्यम हैं साहित्य…
परिस्थितिजन्य गोचर-अगोचर, आभासी-वास्तविक, स्पष्ट-अस्पष्ट तथ्यों..घटनाओं से अंतर्मन में झंकृत उद्गगारों को शब्दों की जमावट से वैविध्यपूर्ण विधाओं में मानसिक सूक्ष्म वृत्तांत जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पाठकों का मानसिक पोषण जिज्ञासाओं को शांत करता मनोरंजन करता आनंदित करता हैं.. समाज को दिशा-निर्देशित करता हैं..यानि जीवन पर्याय का समृद्ध व्यौरा… साहित्य

ई अर्चना नायडू ने कहा कि

साहित्य एक ऐसी गौरवशाली विधा है जो सरस्वती की कृपा से ही सम्मानित होती है। इतिहास के पन्नो में रचा गया साहित्य आज भी अपनी सार्वभौमिक सत्ता के कारण कालजयी बना हुआ है। इसीलिए आज भी उतनी ही रूचि से पढ़ा जाता है.साहित्य को जानने वाले ,रचने वाले प्रबुद्ध वर्ग आज भी उसी खुशबू को महसूस करने के लिए बेताब है। आज का समय साहित्य के नए नए प्रयोगों को रचने का समय है। महाग्रंथो , महाकाव्यो , से निकलने वाली साहित्यधारा आज उपन्यासों ,धारावाहिक किश्तों की कहानियॉ से भी आगे बढ़ गयी है।

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परिचर्चा संयोजक

ब्रज श्रीवास्तव
(कवि एवं साहित्यकार)

 

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