मरहूम चौधरी देवीलाल के मित्रों से उनका पुत्र ओम प्रकाश चौटाला बहुत खार खाता था। उसे लगता था कि इन ‘पढ़े लिखे’ लोगों ने मेरे बाप का दिमाग खराब किया है। चौटाला और इनके जैसे लोग इस बात के प्रमाण हैं कि जब जब सत्ता पर अनपढ़, गंवार, धूर्त और चालाक लोग बैठते हैं, उन्हें सबसे ज्यादा परेशानी समझदार, पढ़े लिखे और वामपंथी जमात के लोगों से होती है। लेकिन समय बड़ा शातिर होता है। वैसे ही उसका खेल भी निराला होता है।

सबकी अवधि तय है। हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात करें। वे निर्बाध गति और तरीकों से कांग्रेस को बदनाम कर कर के अपनी सत्ता की जड़ें मजबूत कर चुके हैं। कहीं से कोई चुनौती नहीं। मोदी मस्त खिलाड़ी हैं। हर गणित को समझने वाले। वे अति महत्वकांक्षी हैं। इसलिए उनके लिए दो चीजें महत्वपूर्ण हैं एक, कि उनका वोटबैंक बरकरार रहे और दूसरा, उनके सामने की हर चुनौती को पैरों से कुचल दिया जाए। इसके लिए उन्होंने विपक्ष और विशेषकर कांग्रेस को चुना। अब उनके लिए एक और बिरादरी परेशानी का सबब बन रही है।

अतीत गवाह है कि मोदी जी ने पढ़े लिखे और वामपंथी जमात को कभी तवज्जो नहीं दी। लेकिन किसान आंदोलन ने पहली बार नरेंद्र मोदी को दहशत में ला खड़ा किया है। वे बड़ी चतुराई से इसकी कमर तोड़ना चाहते हैं। उन्होंने राज्यसभा में एक शब्द गढ़ा ‘आंदोलनजीवी’। इस शब्द पर वे संतुष्ट थे लेकिन पांसा उलटा पड़ा। माना गया कि सारे आंदोलनकारियों को मोदी जी ने आंदोलनजीवी की संज्ञा दी। लोकसभा में उन्होंने ‘करैक्शन’ किया आंदोलन को पवित्र बता कर। मोदी जी की सबसे बड़ी परेशानी हैं बुद्धिजीवी।

सहारा के सुब्रत राय को भी इस शब्द से बेहद चिढ़ थी। गरीबों के नाम पर गरीबों को लूटने वाले हर शख्स को इस शब्द से चिढ़ होती ही होती है। नरेंद्र मोदी वोटों की खेती करके संसद की सीढ़ियों पर चढ़े हैं। वे हिटलर नहीं हो सकते, वे मुसोलिनी नहीं हो सकते, वे खुद को इंदिरा गांधी का प्रतिरूप जैसा नहीं दिखाना चाहते। वे अंतिम क्षण तक लोकतंत्र की दुहाई देकर लोकतंत्र का नया रूप तानाशाही में बदलना चाहते हैं।

वे ट्रंप भी नहीं हो सकते जो अपने समर्थकों को उकसा कर हमले करवा सकें। वे एक चतुर खिलाड़ी हैं। वे जानते हैं हिंदुस्तान न जर्मनी है, न इटली है और न अमरीका। और न ही यहां की जनता उन देशों की जनता जैसा सोचती है। यह देश आज भी किसी कोने में छिपी सांप सपेरों वाली मानसिकता का देश है। जहां एक आंसू समां बदल देता है। जहां राम रहीम और आसाराम जैसे लोग डूबने के बाद भी हमेशा जिंदा रहते हैं क्योंकि करोड़ों की संख्या में ‘बंद दिमाग’ उनके साथ हमेशा खड़ा रहता है। भले नरेंद्र मोदी गुजरात से आये हों पर उनमें उत्तर भारत और विशेषकर प. उप्र की कुटिलताएं छलांगे मारती हैं।

इसलिए उन्होंने आंदोलन से आंदोलनजीवियों को अलग कर उन पर हमला किया। दोनों सदनों में वे अपने चिर परिचित अंदाज में रहे। कारण मोदी के चाहने वाले उन्हें इसी अंदाज में देखना चाहते हैं। वे झूठ बोलेंगे, गलत आंकड़े व तथ्य प्रस्तुत करेंगे। फिर बाद में आप चाहे कितना ही उनके झूठ पर रोइए ,ढोल पीटिए, उन्हें जो करना था, कर गये। अपूर्वानंद का यह ट्वीट गौर करने लायक है कि ‘नेता जब विश्वास के साथ झूठ दोहराता है तो उसकी अपनी जनता में उसकी प्रामाणिकता बढ़ती जाती है’।

लेकिन मोदी फिलहाल डरे हुए हैं। पहली बार उनका डर सामने आया है। वे जानते हैं किसान आंदोलन काबू में नहीं हुआ और यदि ये शांति से इसी तरह फैलता चला गया तो यह इस सरकार की ताबूत में कील जैसा होगा। इसलिए वे बुद्धिजीवियों पर हमला कर रहे हैं। उन्हें धृष्टतापूर्ण तरीकों से ‘परजीवी’ बता रहे हैं। यहां तक तो ठीक कहिए लेकिन हम इसका अब खतरनाक पहलू भी देखेंगे – ‘साइबर सेल’ के रूप में। मोदी ने संसद में कहा, ऐसे लोगों को चिन्हित किया जाना चाहिए। यही लोकतंत्र का खौफनाक मंजर साबित होगा।

इन दिनों कृषि पर बात करने वालों में सोमपाल शास्त्री, देवेंद्र सिंह, हरपाल सिंह काफी मुखर हैं। सोमपाल शास्त्री से लाउड इंडिया टीवी के संतोष भारतीय ने दो तीन बार लंबी बातचीत की। खासतौर पर प्रधानमंत्री के राज्यसभा और लोकसभा के भाषणों पर उनकी प्रतिक्रिया। दोनों इंटरव्यू को देखिए। शानदार हैं। संतोष जी और आलोक जोशी इन दोनों की खासियत है कि ये लोग मेहमान को भरपूर मौका देते हैं, सुनते हैं। कोई टोका टाकी नहीं। संतोष जी इन दिनों छाये हुए हैं। उनके रोजाना आने वाले वीडियो बहुत सरल भाषा में जनता की आवाज बन कर आते हैं। मुझे जो फीडबैक मिलता है उसमें एक ही बात छन कर आती है कि पुण्य प्रसून वाजपेयी संतोष जी जैसे सरल भाषा में अपनी बात क्यों नहीं कहते। वे क्यों जनता की आज की नब्ज को टटोल कर बिना आंकड़ों के अपनी बात कहते।

हर समय का अपना अलग मूड होता है। व्यक्ति हर समय इतना गम्भीर नहीं हो सकता। आलोक जोशी का विश्लेषण हो, संतोष भारतीय का हो, भाषा सिंह का हो, आरफा के इंटरव्यू या बातचीत हो ये सब ध्यान खींचते हैं। लेकिन सोमवार आठ फरवरी का पुण्य प्रसून वाजपेयी का ब्लाग लोगों को बहुत पसंद आया। एकदम स्पष्ट विश्लेषण। कोई ‘सच’ नहीं। नीलू व्यास के कभी कभी इंटरव्यू रोचक होते हैं। निर्भर करता है कि वे किससे बात कर रही हैं।

आशुतोष ने ‘सत्य हिंदी’ को जमा कर रखा है। शीतल जी के चाहने वाले भी कम नहीं हैं। उनकी शैली हर किसी को भाती है। जैसा उनका नाम है। मुझे उनमें सादगी के साथ ईमानदार अभिव्यक्ति झलकती है। उर्मिलेश जी में पहले जैसी धमकी और आग कब लौटेगी इसका इंतजार है। ये सब लोग बताते हैं कि मोदी का जादू फीका पड़ रहा है। संतोष जी तो कल मोदी के भाषण के श्रोताओं की गिरती संख्या का जिक्र कर रहे थे।

पर हमें लगता है यह फिल वक्त कोई पैमाना नहीं है। यह देश खिंची हुई लकीर के सामने बड़ी लकीर खींचने वालों के साथ खड़ा होता है। वह विकल्प देखता है। प्रबुद्ध लोग विकल्प को झुठलाते हैं। इसीलिए मोदी के सामने फीके पड़ जाते हैं। अगर देश विकल्प चाहता है तो उसे विकल्प देना ही होगा। हमारा मानना है जिस भी दिन कांग्रेस मजबूत स्थिति में हुई वही दिन मोदी का आखिरी दिन होगा। माहौल बना हुआ है कांग्रेस को मजबूत कीजिए। वरना खौफनाक मंजर सामने है। मोदी को लोकतंत्र का तानाशाह बनते देर नहीं लगेगी।

बसंत पांडे

 

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