watan28 दिसंबर की सुबह मलाक बलऊ गांव वालों के लिए हैरान कर देने वाली थी. इसका कारण यह है कि तकरीबन 3 साल पहले आठ जनवरी 2013 को झारखंड के लातेहार जंगल में नक्सलियों द्वारा तेरह जवानों को मौत के घाट उतार दिया गया था. इसमें शहीद बाबूलाल पटेल भी शामिल थे. शहीद के हत्यारों को सरकार की तरफ से माफी देने की खबर 28 दिसंबर को आई. यह खबर पहुंचते ही शहीद बाबूलाल पटेल के पैतृक गांव वाले सन्न रह गए.

गांव के आसपास के सैकड़ों लोग शहीद के घर के सामने जुटे थे. सभी की जुबान पर बस एक ही सवाल कि उग्रवादी को फांसी के बजाए माफी क्यों? शहीद बाबूलाल के बूढ़े माता-पिता ने बिफरते हुए कहा ‘मेरे बेटे ने देश के लिए कुर्बानी दी है, सरकार ने जिन नक्सलियों को पुनर्वास और उनके मुकदमे वापस लेने का ऐलान किया है, वे मेरे बेटे के हत्यारे हैं. उसे मारने के लिए बम प्लांट किया गया था. ये शहीद की शहादत और उनके परिवार का अपमान है. सरकार की यह प्रश्रय नीति सरासर नाइंसाफी है.’

 आठ जनवरी 2013 को झारखंड के लातेहार जिले के कटिया जंगल में नक्सलियों ने हमला कर सीआरपीएफ जवान बाबूलाल पटेल समेत तेरह जवानों को मौत के घाट उतारा था. इस जघन्य वारदात से समूचा देश दहल उठा था. इतना ही नहीं, बाबूलाल पटेल की हत्या के बाद हत्यारों ने उनके पेट में बम प्लांट भी किया था. नक्सलियों की योजना पोस्टमार्टम के मौके पर भारी विस्फोेट कर और भी कई लोगों को मौत के घाट उतारने की थी. हालांकि, सुरक्षा एजेंसियों की सतर्कता से पेट में प्लांट बम विस्फोट नहीं हो सका और उस समय भारी हादसा टल गया था.

 शहीद बाबूलाल पटेल इलाहाबाद के नवाबगंज थाना क्षेत्र के मलाक बलऊ ग्रामसभा के छोटे से गांव शिवलाल का पूरा निवासी मुन्नीलाल पटेल और शिवपत्ती देवी की इकलौती संतान थे. बुजुर्ग माता पिता के अलावा परिवार में अब कोई भी नहीं है. शहादत की घटना के बाद शहीद के पैतृक गांव में करीब एक पखवाड़े तक काफी गहमा-गहमी रही. अपनादल की राष्ट्रीय अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल ने गांव पहुंचकर आमरण अनशन किया था.

बाद में भाजपा और बसपा के भी कई नेताओं ने वहां पहुंचकर आंदोलन किया. तगड़ा विरोध होते देख मुख्यमंत्री अखिलेश यादव शहीद बाबूलाल के घर आए और परिजनों को सांत्वना देने के अलावा बीस लाख रुपये अनुग्रह राशि दी. इसी दौरान प्रदेश सरकार की तरफ से गांव में शहीद के घर को पक्की सड़क से जोड़ने, विद्युतीकरण, शहीद स्मारक, खेलकूद के मैदान से लेकर शहीद गेट का भी ऐलान किया था.

तत्कालीन बसपा सांसद कपिलमुनि करवरिया, पूर्व विधायक व भाजपा काशी प्रांत के महामंत्री प्रभाशंकर पांडेय, नेता विरोधी दल व बसपा के राष्ट्रीय महामंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य से लेकर इलाकाई सपा विधायक अंसार अहमद ने भी शहीद के परिजनों से मिलकर कई तरह का आश्वासन दिया था. गांव वाले बताते हैं कि इसके बाद किसी जनप्रतिनिधि ने यहां झांका तक नहीं. शहीद बाबूलाल के परिजनों की कोई सुध नहीं ली. 

घोषणाएं हुई हवा-हवाई

दो साल बीतने को हैं. अभी तक ज्यादातर घोषणाएं हवा-हवाई साबित हो रही हैं. शहीद स्मारक स्थल और खेलकूद के मैदान के लिए अभी तक जमीन का ही आवंटन नहीं किया जा सका है. पक्की सड़क भी अधूरी दशा में पड़ी है. घोषणा के सालभर बाद शहीद बाबूलाल के नाम जो गेट बना इसे लोहिया द्वार का नाम देकर घालमेल कर दिया गया. यहां तक कि शहीद बाबूलाल पटेल की शहादत तिथि भी भूल गए. गेट के एक किनारे छोटी सी लगाई गई शहीद बाबूलाल की तस्वीर में बाबूलाल पटेल की शहादत तिथि आठ जनवरी 2013 के बजाए आठ जनवरी 2012 दर्ज की गई है.

शहादत के छह महीने बाद कई वरिष्ठ अफसरों की मौजूदगी में शहीद के परिजनों को सार्वजनिक समारोह में सम्मानित तो किया गया पर यहां भी लापरवाही की हद पार हो गई. मंगलम संस्था की तरफ से आयोजित समारोह में सौंपे गए प्रशस्तिपत्र में शहीद बाबूलाल पटेल की शहीद बाबूलाल पांडेय का नाम दर्ज कर दिया गया. हालत यह है कि देश की सुरक्षा में शहीद

सीआरपीएफ जवानों के आधे दर्जन परिवार की सुध लेने वाला कोई नहीं है. सरकार और नौकरशाहों के उदासीन रवैए से रोजाना तिल-तिल की ‘मौत’ मरने को वे सब मजबूर हो रहे हैं. विकास के नाम पर तमाम सुविधा देने का दावा करने वाली केंद्र और प्रदेश की सरकारें शहीदों के परिजनों को बिजली, पानी, सड़क, चिकित्सा जैसी बुनियादी जरूरत के लिए तरसना पड़ रहा है. गांव के पूर्व प्रधान श्यामलाल पांडेय कहते हैं, ‘शहीद के शव पर नेताओं ने जमकर राजनीति की.

अफसरों ने भी ‘संवेदना’ जाहिर कर उस समय शहीद के आश्रित को विभाग में नौकरी, शहीद गेट बनाने, गुजर बसर के लिए खेत का पट्‌टा समेत तमाम सुविधाएं देने के सार्वजनिक वादे किए. दिन महीने साल गुजर गए पर वादे पूरे नहीं हुए. वारदात के आरोपी और नक्सलाइट मिशन के दो सबजोनल कमांडरों को सरकार की तरफ से माफी देने के ऐलान पर शहीद बाबूलाल के परिजन बेहद खफा हैं.

 उधर, छत्तीसगढ़ के सुकमा जंगल में नक्सलियों के हमले में शहीद मुकेश पासी के बूढ़े माता-पिता की आंखें सरकारी मदद का इंतजार टकटकी बांधे कर रही हैं. सरकार है कि शुरू में कर्ई लोकलुभावन वादे कर वाहवाही बटोरी पर बाद में अपने ही वादे भूल गई. याद दिला दें कि सुकमा के जंगल में 30 नवंबर को नक्सलियों ने सुरक्षाबल टीम पर हमला कर 14 जवानों को मौत की नींद सुला दिया था. इस कायरतापूर्ण वारदात में शहीद होने वालों में तीन जवान यूपी के भी शामिल रहे. मुकेश कुमार सरोज मजदूर परिवार के थे. रहने को एक अदद झोपड़ी, गुजारे के लिए दूसरे किसानों के खेतों में मजदूरी. माता प्रभादेवी और पिता पृथ्वीपाल सरोज ने अभाव के बीच ही सही, पर बेटे मुकेश को बड़े दुलार से पाल पोसकर बड़ा किया था.

जिक्र छिड़ते ही प्रभादेवी अपने आंसू रोक नहीं पाती. कहती हैं-सब कुछ छिन गया. सपने बिखर गए. अति पिछड़ी ग्रामसभा में शुमार बजहा ग्रामसभा का एक छोटा सा गांव है डिहवा. अभावग्रस्त जिंदगी जीने को अभिशप्त यहां के कई दर्जन परिवारों के बीच झोपड़ी में रहकर मजदूरी करने वाले पृथ्वीपाल सरोज का इकलौता बेटा मुकेश कुमार 2012 में सीआरपीएफ में भर्ती हुआ तब परिजनों की खुशी का ठिकाना न रहा. ट्रेनिंग के बाद मुकेश कुमार की पहली पोस्टिंग छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र सुकमा में हुई.

30 नवंबर 2014 की रात सुकमा के जंगल में नक्सलियों के हमले में जो चौदह जवान शहीद हुए उनमें इसी इलाके के डिहवा गांव के जांबाज मुकेश कुमार भी शामिल रहे. पिता पृथ्वीपाल ने मजदूरी कर इकलौते बेटे को पाल पोस कर देश की सुरक्षा के लिए भेजा था. शहीद के पिता पृथ्वीपाल सरोज बताते हैं कि तारीख तो याद नहीं, पर 2015 को मार्च महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन पर ढांढस बंधाते हुए हर तरह की मदद का आश्वासन दिया था.

क्षेत्रीय भाजपा सांसद केशव प्रसाद मौर्य ने शहीद स्थल के लिए दस लाख रुपये देने और तत्कालीन कलेक्टर भवनाथ ने आश्रित परिजनों को पक्का मकान उपलब्ध कराने का ऐलान किया था, पर हुआ कुछ नहीं. गांव के बाहर बने यहां के भी शहीद गेट को लोहिया गेट का नाम दे दिया गया है. विधायक निधि से निर्मित गेट के पास कार्य योजना और लागत राशि तक का बोर्ड नहीं है. गेट पर इलाके के सपा विधायक अंसार अहमद और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का नाम सुनहरे अक्षर में दर्ज है पर शहीद मुकेश कुमार की शहादत तिथि तक दर्ज नहीं की गई.

पांच-पांच बिस्वा भूखंड पर पक्का मकान और शहीद स्थल बनाने का ऐलान महज सरकारी फाइलों तक सिमटा है. मुकेश कुमार के परिजन के अलावा गांव वाले भी निराश हैं. यहां से तकरीबन दो किमी उत्तर दिशा में मौजूद शहीद का एक और गांव है जूड़ापुर बीहर. इसी गांव का छोटा सा पुरवा है लोनाखार का पूरा. यहां के किसान सुरेश तिवारी का बेटा वरूण तिवारी का भी नाम शहीदों की सूची में दर्ज है. इनकी याद में बनाए जा रहे शहीद गेट की छत का लिंटर निर्माण के दौरान ही दो बार ढह चुका है.

सबसे दुखद तो यह है कि जब शहीद सैनिकों के परिवार के साथ सरकार को सहानुभूति दिखानी चाहिए, वैसे समय में उन्हें सिवाय तकलीफ के कुछ और नहीं हासिल हो रहा है. इसे हम हमारे तंत्र की कमजोरी ही कहेंगे कि शहीदों के परिवार को ढांढस बंधाने की बजाए अब उनके जख्मों को कुरेदने का काम चल रहा है. अगर शहीदों के आश्रितों के साथ ऐसा ही सरकारी व्यवहार चलता रहा तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब लोग अपने सेना और अर्धसैनिक बलों में नौकरी करने से कतराने लगेंगे.

वज्रपात से कम नहीं

शहीद बाबूलाल पटेल के घर पहुंची ‘चौथी दुनिया’ टीम से बातचीत के दौरान शहीद के बूढ़े माता-पिता ने कड़ा विरोध जाहिर किया. आंसुओं से डबडबाई आंखें और भर्राई आवाज में कहा-यह तो कोई इंसाफ नहीं है. इस दौरान हमारी उनसे बातचीत हुई… 

लातेहार के जंगल में तेरह जवानों की मौत के आरोपियों को सरकार माफी दे रही है. इनके मुकदमे भी वापस लेने का ऐलान किया है.

यह सरासर गलत है. ऐसा करना कतई ठीक नहीं. घर के इकलौते चिराग और हम बूढ़ों के लिए सहारा बनने वाले हमारे बेटे को पहले हत्यारों ने हमसे छीनकर बिल्कुल तनहा कर दिया. हम सब कोर्ट से न्याय मिलने का इंतजार कर रहे थे, पर सरकार उन्हें कड़ा दंड दिलाने के बजाए माफी दे रही है. यह तो शहीदों के परिजनों की उम्मीदों पर किसी वज्रपात से कम नहीं. इस मुद्दे पर सरकार को फिर से विचार करना चाहिए.

क्या सरकार के इस फैसले से आप लोग संतुष्ट नहीं हैं?

अरे, आप संतुष्ट की बात कर रहे हैं. यह सरासर अन्याय है. ऐसे में तो अब लोग अपने बेटे-बेटियों को फख्र से फौज में भर्ती कराने के लिए सौ बार सोचेंगे.

क्या चाहते हैं आप?

हम दोनों का साफ तौर पर कहना है कि देश के दुश्मनों को माफी नहीं, फांसी मिलनी चाहिए. इससे कम नहीं. तभी हम बुजुर्गों की आत्मा को शांति मिलेगी.

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