आजीवन गरीबोें, वंचितोें और किसानोें के हक के लिए लड़ने वाले वीपी सिंह अपनी अंतिम सांसों तक आम लोगों की आवाज उठाते रहे. वीपी सिंह को लोग आज भी गरीबोें का मसीहा मानते हैं. इस साल 25 जून, 2015 को लखनऊ मेें किसान मंच ने अपने संस्थापक स्वर्गीय विश्वनाथ प्रताप सिंह की जयंती किसान दिवस के रूप मे मनाई. इस मौके पर किसान मंच के प्रदेश अध्यक्ष शेखर दीक्षित ने घोषणा की कि किसान मंच हर वर्ष 21 जून को योग दिवस को किसान सम्मान दिवस के रूप मे मनाता रहेगा. उनका मानना था कि मंच को योग से कोई समस्या नहीं है, लेकिन एक तर्रें जहां फसलों का भारी नुकसान हुआ है, वहीं दूसरी तर्रें केन्द्र सरकार योग पर वाहवाही लूटने के लिये अरबों रुपये केन्द्र के खजाने से योग दिवस मनाने में खर्च कर रही है. किसान मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष विनोद सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि राजा साहब ने पिछड़ों के लिये जो कार्य किया, वह किसी नेता ने नहीं किया. उन्होंने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करके पिछड़ों को अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया. कार्यक्रम मेें प्रमुख लोगों में राजद के प्रदेश अध्यक्ष अशोक सिंह, निरंजन मिश्र (पूर्व विधायक, लखीमपुर), वरिष्ठ पत्रकार संतोष भारतीय, ए जेड जेड खान, स्वामी विद्या चैतन्य जी, संजीव श्रीवास्तव, संजय द्विवेदी-प्रवक्ता किसान मंच, वसीम खान, मध्य प्रदेश के किसान नेता उमेश तिवारी सहित सैकड़ों कार्यकर्ता उपस्थित थे.

विश्वनाथ प्रताप सिंह का जन्म डैया रियासत में 25 जून, 1931 को हुआ था. उनका लालन-पालन यहीं हुआ, लेकिन अपने मूल पिता के परिवार में बालक विश्वनाथ का रहना पांच वर्ष तक ही हुआ. डैया के बगल की रियासत मांडा के राजा थे राजा बहादुर राम गोपाल सिंह. वह नि:संतान थे. अपनी राज परंपरा चलाने के लिए उन्होंने बालक विश्वनाथ को माता-पिता की सहमति से गोद ले लिया. फिर तो विश्वनाथ ने पीछे नहीं देखा और गंभीरता से पठन-पाठन में जुट गए. परिणामस्वरूप उन्हें हाईस्कूल तक कई विषयों में उत्कृष्ठता मिली. बाद में वह बनारस के उदय प्रताप सिंह कॉलेज में पढ़ने आए. वहां विश्वनाथ अच्छे छात्रों की पंक्ति में थे. प्रिंसिपल ने उन्हें प्रिफ़ेक्ट बनाया. तब तक भारत को आज़ादी मिल चुकी थी. विश्वनाथ ने छात्रसंघ गठित करने की मांग रखी. अध्यक्ष पद के लिए प्रिंसिपल का एक लाड़ला छात्र खड़ा हुआ. उसे गुमान था कि वह प्रिंसिपल का उम्मीदवार है. प्रतिरोध व्यवस्था में पक्षपात के ख़िलाफ़ विश्वनाथ के कान खड़े हुए. आजीवन इस्तीफों से मूल्यों को खड़ा करने और गलत का प्रतिरोध करने वाले भावी वी पी सिंह का यही उदय था. बस क्या था, प्रिफ़ेक्ट पद से इस्तीफा दे दिया. यह उनकी ज़िंदगी का पहला इस्तीफा था. समान विचारों के छात्रों ने संघ के अध्यक्ष पद के लिए उन्हें खड़ा कर दिया. युवा कांग्रेस का आग्रह टालकर वह स्वतंत्र उम्मीदवार बने और प्रिंसिपल के उम्मीदवार को हराकर जीत गए. वोट को आकृष्ट करने की क्षमता का यही बुनियादी अनुभव बना वी पी सिंह का. राजनीति इसी अंतराल में उनका विषय बनी. 1955 में 24 साल की उम्र में वे कांग्रेस के चवन्निया सदस्य बने. तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें 1971 का लोकसभा चुनाव फूलपुर क्षेत्र से लड़ना पड़ा. इसमें उन्होंने जनेश्वर मिश्र जैसे तपे-तपाए समाजवादी नेता को पछाड़ा था. 10 अक्टूबर, 1976 को इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में व्यापार के उपमंत्री बना दिए गए. इंदिरा गांधी की असामयिक मौत के बाद राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने. उन्होंने भी वीपी को वित्त मंत्री बनाया. वीपी ने महसूस किया कि इस व्यवस्था में केवल धनपतियों की चलती है. उन्होंने पूंजीवादी, काले धनपतियों और कर चोरों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल फूक दिया. वह वित्त से रक्षा मंत्री बना दिए गए. बतौर रक्षा मंत्री उन्होंने र्बोेंोर्स सौदे में दलाली के मुद्दे को उठाया और सत्ता के चरित्र का पर्दाफाश कर दिया. 19 जुलाई, 1987 को वीपी कांग्रेस से निकाल दिए गए. वीपी ने जनमोर्चा का गठन किया. सात प्रमुख विपक्षी दलों को मिलाकर एक राष्ट्रीय मोर्चा तैयार हुआ. 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा पूर्ण बहुमत में आया. और उन्होंने भारते के प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली. उन्होंने सात अगस्त, 1990 को मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों को लागू करने की घोषणा की थी. वीपी का यह निर्णय भारतीय इतिहास में वंचितों के उत्थान के लिए एक मील का पत्थर साबित हुआ.
हालांकि प्रधानमंत्री पद से इस्तीफ़ा देने के बाद भी वी पी सिंह के क़दम नहीं रुके. वह पूरे देश में घूम-घूमकर आम जनता के हितों के लिए संघर्ष करते रहे. इस दौरान जनता दल कई बार टूटा और टूटता ही रहा. धीरे-धीरे दलगत राजनीति से वी पी सिंह का मोहभंग होता गया और जुलाई 1993 में उन्होंने जनता दल संसदीय दल के नेता पद से त्यागपत्र दे दिया. इसके कुछ महीने बाद ही उन्होंने लोकसभा की सदस्यता भी छोड़ दी. दलगत राजनीति से बाहर आए तो जन चेतना मंच के ज़रिए जनसंघर्ष की शुरुआत की. दिल्ली की 30 हज़ार आबादी वाली वजीरपुर झुग्गी बस्ती को उजाड़ने के लिए सरकार ने बुलडोज़र चलाने की कोशिश की तो वह यह कहते हुए बुलडोज़र के सामने खड़े हो गए कि अगर सरकार सभी अनधिकृत फार्म हाउसों को भी ढहा दे तो हम इस झुग्गी बस्ती को उजाड़ने से नहीं रोकेंगे. बाध्य होकर सरकार को अपना निर्णय वापस लेना पड़ा. इस प्रकार झुग्गी-झोपड़ी वालों की समस्या को वी पी सिंह ने एक राष्ट्रीय परिघटना बना दिया. दादरी के किसानों की भूमि के अधिग्रहण के विरोध में बीमार वी पी सिंह ने जो लड़ाई लड़ी, वह आज के आंदोलनकारियों के लिए किसी सीख से कम नहीं है.

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