7सभी जानते हैं कि नीतीश कुमार सोशल इंजीनियरिंग के माहिर खिलाड़ी हैं. पिछले कई चुनावों में उन्होंने अपने इस हुनर का बखूबी इस्तेमाल करके अपने राजनीतिक विरोधियों को चारों खाने चित किया है, लेकिन लगता है, इस बार के चुनाव में नीतीश के विरोधियों ने उनकी सोशल इंजीनियरिंग की ताकत कम करने के लिए अपने सारे घोड़े खोल दिए. यह उन्हीं घोड़ों की चाल का नतीजा है कि बिहार की ज़्यादातर सीटों पर जदयू उम्मीदवार घिरे हुए नज़र आ रहे हैं. जो जातीय ताना-बाना जदयू के लिए वोटों का इंतजाम करता था, आज जदयू उम्मीदवार उसी जातीय ताने-बाने में उलझ कर रह गए हैं. उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा है कि विरोधियों का जातीय चकव्यूह तोड़कर दिल्ली के लिए रास्ता कैसे साफ़ किया जाए.
सभी दलों नेे जो टिकट बांटे हैं, अगर उनकी लिस्ट ग़ौर से देखी जाएं, तो यह समझना आसान हो जाएगा कि कैसे नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग की धार दूसरे दल के नेताओं ने इस बार कुंद कर दी है. सासाराम सुरक्षित सीट से जदयू ने महादलित के पी रमैया को चुनाव मैदान में उतारा, तो कांग्रेस-राजद गठबंधन ने महादलित मीरा कुमार को सामने कर दिया. भाजपा ने यहां से दलित छेदी पासवान को मौक़ा दिया. साफ़ है कि महादलित वोटों पर जदयू का अपना दावा है. ऐसे में दो महादलित उम्मीदवार होने से यहां इस मत का बंटवारा होना तय है. इसी तरह काराकाट से जदयू ने कुशवाहा जाति के महाबली सिंह को उतारा है, तो भाजपा गठबंधन से उपेंद्र कुशवाहा मैदान में हैं यानी कुशवाहा वोटों में विभाजन तय है. नवादा से जदयू और राजद, दोनों के उम्मीदवार यादव जाति के हैं. जमुई से जदयू और राजद, दोनों के उम्मीदवार महादलित हैं.
दरअसल, नीतीश कुमार अभी तक जो सोशल इंजीनियरिंग कर रहे थे, उसमें यह ध्यान रख रहे थे कि ज़्यादातर सीटों पर उस जाति के उम्मीदवार उतारे जाएं, जिससे दूसरे दलों के उम्मीदवार आने की संभावना कम हो. इससे उन्हें सीधा लाभ यह मिल रहा था कि उस जाति के वोटों का ध्रुवीकरण जदयू के पक्ष में हो रहा था और इसके अलावा, गठबंधन के आधार वोटों का सीधा लाभ भी जदयू उम्मीदवार को मिल रहा था, लेकिन इस बार विरोधियों ने नीतीश कुमार की चालों को अच्छी तरह समझा और यथासंभव कोशिश की है कि एकल जाति का फ़ायदा नीतीश कुमार न उठा पाएं. जैसे कि नालंदा में ही नीतीश कुमार के कुर्मी उम्मीदवार कौशलेंद्र कुमार के मुकाबले में राजद गठबंधन से कुर्मी जाति के आशीष रंजन सिन्हा को उतारा गया है. मुंगेर से जदयू के भूमिहार उम्मीदवार ललन सिंह के ख़िलाफ़ लोजपा की उसी जाति की उम्मीदवार वीणा सिंह चुनाव मैदान में हैं.
पाटलिपुत्र से जदयू के रंजन यादव के ख़िलाफ़ रामकृपाल यादव हैं. मधेपुरा में शरद यादव के ख़िलाफ़ पप्पू यादव अखाड़े में हैं. जहानाबाद में जदयू के अनिल शर्मा के ख़िलाफ़ भाजपा गठबंधन के अरुण सिंह मैदान में हैं. दोनों भूमिहार जाति से हैं. इसी तरह सुपौल से जब जदयू ने अति पिछड़ा उम्मीदवार उतारा, तो भाजपा ने भी अति पिछड़े कामेश्‍वर चौपाल को उतार दिया. आरा में जदयू की मौजूदा सांसद मीना सिंह के ख़िलाफ़ राजपूत जाति के ही राजकुमार सिंह को भाजपा ने उतारा है. मधुबनी में जदयू के गुलाम गौस के ख़िलाफ़ राजद के अब्दुल बारी सिद्दीकी मुकाबले में हैं. इसी तरह खगड़िया में जदयू के दिनेश चंद्र यादव के मुकाबले राजद ने कृष्णा यादव को मैदान में उतारा है. दूसरे दलों की इसी चाल ने नीतीश कुमार की सोशल इंजीनियरिंग की धार कुंद कर दी है.
बिहार की ज़्यादातर सीटों पर कमोबेश यही हाल है. एक ही जाति के दो उम्मीदवार होने से वोटों का बंटवारा हो रहा है और जदयू को जो स्वाभाविक लाभ मिलता था, उससे वह वंचित हो रहा है. यही हाल जदयू के आधार वोटों का है. अब तक यह माना जा रहा है कि महादलित और अति पिछड़ा वर्ग जदयू के साथ है, लेकिन अगर टिकट बंटवारे में इन जातियों के उम्मीदवारों की संख्या पर ग़ौर किया जाए, तो यह अनुमान लगाना आसान हो जाएगा कि कैसे दूसरे दलों ने नीतीश कुमार को इस बार कोई साफ़ संदेश देने से रोकने का काम किया है. जैसे कि जदयू ने पांच महादलितों को अपना उम्मीदवार बनाया, तो राजद गठबंधन ने पांच महादलितों को टिकट दिया, वहीं भाजपा गठबंधन ने भी दो महादलित उम्मीदवार उतारे. इसी तरह अति पिछड़ों को टिकट देने में सभी दलों ने दरियादिली दिखाई है. जदयू ने जहां तीन अति पिछड़ों को उम्मीदवार बनाया है, तो भाजपा गठबंधन ने उसे पीछे छोड़ते हुए पांच अति पिछड़ों को टिकट थमा दिए. उधर राजद गठबंधन ने भी तीन अति पिछड़ों को चुनाव मैदान में उतारा है.
कहने का मतलब यह है कि नीतीश कुमार अब तक जिन महादलितों एवं अति पिछड़ों की बात करते थे, उन्हें उन्हीं की भाषा में भाजपा और राजद ने करारा जवाब दिया है. भाजपा नेता राकेश सिंह कहते हैं, बहुत पुरानी कहावत है कि लोहा ही लोहे को काटता है. नीतीश कुमार अब तक जिस सोशल इंजीनियरिंग की बात करते आ रहे थे, हमने उन्हें उन्हीं के स्टाइल में जवाब दे दिया है. अब लोगों को तय करना है कि उनका सच्चा हितैषी कौन है. राकेश कहते हैं कि जदयू ने अब तक केवल इन जातियों के वोट लेने का काम किया है, लेकिन इनके विकास को लेकर नीतीश कुमार कभी संजीदा नहीं रहे. उन्होंने इनका केवल वोट बैंक की तरह इस्तेेमाल किया. अब इन जातियों ने भी सच जान लिया है और इस चुनाव में नीतीश इनके वोट के लिए तरस जाएंगे.


 
जाति बची, सारे मुद्दे गायब
जातीय राजनीति और चुनाव बिहार की सच्चाई रही है और आज भी यह सूबा इस सच्चाई से पार नहीं पा सका है. चुनाव प्रचार जोरों पर है, लेकिन विभिन्न लोकसभा क्षेत्रों में चौक- चौराहों पर जातीय गुणा-भाग की कहानी आसानी से सुनी जा सकती है. फलां जाति के वोट फलां पार्टी को, तो फलां जाति के वोट फलां पार्टी को. बस इसी जोड़-घटाव से गांव की चौपालें गुलजार हैं. न स्थानीय मुद्दों की चर्चा है और न राष्ट्रीय समस्याओं की. हां, एक बात जो हर लोकसभा क्षेत्र में आम है, वह है नमो-नमो. तमाम जातीय गणित के बीच नरेंद्र मोदी चर्चा में हैं और इसे न केवल भाजपा, बल्कि उसके विरोधी दल वाले भी मान रहे हैं.
आख़िर समस्याओं की बारी चुनावी चर्चा में क्यों नहीं आती? इस सवाल के जवाब में विधान पार्षद नवल यादव कहते हैं कि जाति एक सच्चाई है, उससे कौन इंकार कर सकता है? हम जिस जातीय व्यवस्था में जीते हैं, उसे चुनाव के वक्त कैसे छोड़ सकते हैं? यादव कहते हैं कि लोगों को जाति से आगे निकल कर जमात की ओर भी देखना चाहिए और देश के सामने जो समस्याएं हैं, उन्हें देखकर भी अपने वोट का इस्तेमाल करना चाहिए. लोजपा के प्रदेश अध्यक्ष पशुपति पारस कहते हैं कि िंबहार में तो वोट और बेटी अपनी ही जाति में देने का रिवाज चलता आ रहा है, लेकिन लोजपा हमेशा जमात की बात करती है. पारस कहते हैं कि चुनावी राजनीति में जाति एक अहम भूमिका निभाती है, इसलिए चुनावी मौसम में जातीय राग कुछ ज़्यादा ही सुनाई पड़ता है, लेकिन लोजपा सभी जातियों एवं धर्मों का बराबर सम्मान करती है.


 
 
 

Adv from Sponsors

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here