महात्मा गांधी की प्रासंगिकता पर आप हंसिए फिर निश्चिंत होकर सो जाइए । उठेंगे तो ताजगी मिलेगी । ऐसी ही कुछ गंभीर लोगों के बीच में आजकल चर्चा है । आप पूछ सकते हैं कि गांधी फिर से प्रासंगिक हो रहे हैं क्या ? जवाब मिलेगा कि वे तब भी अप्रासंगिक नहीं थे जब स्वीडन ने चाह कर भी उन्हें नोबल पुरस्कार नहीं दिया था और वे आज भी अप्रासंगिक नहीं हैं जबकि नयी पीढ़ी उनसे लगभग अनभिज्ञ है । प्रसंगवश हम बात करें ‘लाउड इंडिया टीवी’ की । पिछले हफ्ते यहां तीन गम्भीर लोगों को हमने सुना । मु्द्दे दो थे वैश्विक स्तर पर गहराता आर्थिक संकट और राहुल गांधी का कारपोरेट प्रेम । इन विषयों पर जिन तीन लोगों की चर्चा हमने सुनी – अखिलेंद्र प्रताप सिंह, प्रो. अरुण कुमार और वरिष्ठ पत्रकार अभय कुमार दुबे । सूत्रधार थे संतोष भारतीय । तीनों की अलग अलग बातें आपस में गुंथी हुई थीं । वर्धा में, जहां मैं रहता हूं, वहां गांधीवादियों में ‘दूसरे गांधी’ कहे जाने वाले ठाकुर दास बंग जी भी रहते थे । अक्सर मेरी उनसे बात होती थी तो वे कहते थे मार्क्सवाद खत्म हो गया, पूंजीवाद भी जाएगा फिर दुनिया को गांधीवाद के रास्ते पर आना ही होगा । बंग साहब आज नहीं हैं लेकिन हम देख रहे हैं कि अर्थव्यवस्था के गांधी माडल पर बात होने लगी है ।
अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने संतोष भारतीय से बात करते हुए गांधी माडल को शिद्दत के साथ आज के वक्त की जरूरत बताया । उनका मानना था कि पूंजी विकास का भारतीय माडल पूंजी का ग्लोबल गठजोड़ है। इस पूंजीवादी विकास की ताकतवर शक्तियों ने ही गांधी को बूढ़ा खूसट आदमी कह कर हटा दिया , जिसमें हमारे कम्युनिस्ट भी शामिल रहे । गांधी कहते थे – अपनी खेती, अपनी किसानी, अपनी श्रमशक्ति, अपना कैपिटल, अपनी टेक्नोलॉजी, अपने उद्योग बनाओ और विदेशी टेक्नोलॉजी पर कम से कम निर्भर रहो । उन्होंने कहा गांधी की चेतावनियों को हमने माना होता तो आज यह देश पूंजी के धंधे के नीचे नहीं रहता । अखिलेंद्र जी कहते हैं, सवाल यह है कि हमारे देश में विकास का माडल क्या होना चाहिए । आज जो माडल है उसे ‘रिव्यू’ करने की या उसे पलटने की जरूरत है । अगर यही माडल चलने देंगे तो हम अभिशप्त होंगे फासीवाद के लिए और वर्ल्ड बैंक और आईएमएफ के डिक्टेट को झेलने के लिए । यहां गौरतलब यह है कि अखिलेंद्र प्रताप सिंह ने अभय दुबे की उस बात को ही पलट दिया जिसे राहुल गांधी के अडानी के समर्थन को लेकर अभय जी ने कहा था । अभय जी ने इस संदर्भ में ‘कैप्टिलिज़म’ और ‘क्रोनी कैप्टिलिज़म’ की बात करते हुए राहुल गांधी का बचाव (!!) किया था । लेकिन अखिलेंद्र जी का कहना है कि राहुल गांधी पर दबाव बनाया जाए कि वे ‘कैप्टिलिज़म’ का पूरी तरह से त्याग करें । उनकी इस बात में हमें तो दम लगा कि देश को गम्भीरता से गांधी माडल की दिशा में सोचना चाहिए ।
प्रो. अरुण कुमार ने देश में बेरोजगारी को लेकर पिछली 11 अक्टूबर को एक व्यापक पर्चा (विश्लेषण) दिल्ली में प्रस्तुत किया । यह भी दरअसल अखिलेंद्र प्रताप सिंह और उनके साथियों की एक पहल थी जिसका जिक्र अखिलेंद्र जी ने किया । इस पर जो चर्चा प्रो अरुण कुमार, अभय दुबे और संतोष भारतीय के बीच हुई और अगले दिन सुबह ‘अभय दुबे शो’ में अरुण जी के पर्चे पर ही अभय जी ने विश्लेषण किया वह काबिले गौर था । अभय जी अरुण जी के चहेते हैं । लेकिन उन्होंने एक बात बहुत स्पष्ट तौर पर कही कि इस रिपोर्ट (पर्चे) के इर्द-गिर्द एक लोकप्रिय राजनीति करनी पड़ेगी । अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह रिपोर्ट नक्कारखाने में तूती के समान हो कर रह जाएगी । उन्होंने इसके समर्थन में की महत्वपूर्ण बातें कहीं । दरअसल उनका मानना है, जो सौ-फीसदी सही भी है हमारे विचार में, कि देश की जनता तमाम राजनीतिक दलों से आजिज़ आ चुकी है । इस रिपोर्ट को कोई राजनीतिक दल नहीं पढ़ेगा । उन्होंने ‘सिविल सोसायटी’ के बारे में भी सही कहा कि ‘सिविल सोसायटी’ का फ्रेमवर्क पिट गया है । ट्विटर जैसे सोशल मीडिया पर भी सामाजिक बदलाव की इच्छविहीन लोग हैं । सिविल सोसायटीज पहले की तरह मजबूत और सक्रिय नहीं रह गयी हैं ।
कुल मिलाकर जब चारों ओर ऐसा वातावरण हो तो उसमें यही एक विकल्प है कि इस रिपोर्ट को केंद्र में रखकर एक नयी राजनीति का निर्माण हो । यही बात अखिलेंद्र जी ने भी कही । हमारा तो संतोष जी से अनुरोध है कि अगली बार अभय दुबे शो में गांधी माडल पर विस्तार से चर्चा करवाएं । जो चिंता अखिलेंद्र जी और अभय जी की है वही चिंता हर उस देशवासी की है जो पूंजीपतियों की दलाल मौजूदा सरकार के विरोध में है और लोकतंत्र का हामी है । इसीलिए मैंने कहा अखिलेंद्र जी, अरुण जी और अभय जी की बातें सब एकमेव हैं । दरअसल ये एक ही प्लेटफॉर्म के लोग हैं । और ऐसे ही लोगों से अब उम्मीद बंधती है । मगर अभय जी को यह भी समझना होगा कि समय बहुत कम या कहें बहुत तेजी से दौड़ रहा है । वे नहीं समझते होंगे ऐसा तो नहीं पर हमारी चिंता 2024 के आमचुनावों को लेकर है । यह तो सब जानते हैं कि इन आम चुनावों में यदि फिर यही सरकार आयी तो परिणाम क्या और कैसे होंगे । इसलिए निवेदन है कि इस दिशा में तेजी से अमल किया जाए ‌। अभय जी ने कल एक और रहस्योद्घाटन किया । कम से कम आम आदमी के लिए तो रहस्योद्घाटन ही कहिए कि ‘जन धन खाते’ खोल कर गरीब आदमी के पैसे की गोलबंदी की गयी है । बैंकों में यह पैसा जमा होकर सरकार को और बैंकों को समृद्ध कर रहा है । बड़े पूंजीपति यहीं से लोन लेते हैं ।
इन दिनों फिज़ा में बहुत मायूसी है । वैकल्पिक मीडिया भी सिविल सोसायटीज की तरह थका हारा सा और दोहराव सा लिए दिखता है । वहीं बहसें, वही चर्चाएं । चर्चाओं में भी एक ही पक्ष के लोग । एक स्टीरियोटाइप हो गया है सब कुछ । एक एंकर और चार पांच घसीटेराम किस्म के लोग उनके बीच एकाध श्रवण गर्ग जैसे दिग्गज । कुछ निकल कर नहीं आता । टीवी टाइप बहसें । न कोई नयी जानकारी , न कोई आकलन । हमने तो बहुत ही कुछ देखना छोड़ दिया है जैसे कभी टीवी देखना छोड़ा था । अब कुछ देखने लायक बचा है तो दिग्गज लोगों के इंटरव्यू । और राजनीति से अलग की बातें । सुधा भारद्वाज से मनीषा पांडेय ने इंटरव्यू लिया । तो इधर मुकेश कुमार ने योगेन्द्र यादव से बातचीत की कांग्रेस की एक हजार किमी की यात्रा पूरी होने पर । किसी कुछ पुस्तक पर बातचीत अच्छी लगती है तो ‘सिनेमा संवाद’ और ‘ताना बाना’ जैसे कार्यक्रम । NSD का इन दिनों क्या हाल किया है इस सरकार ने यह कल ‘ताना बाना’ कार्यक्रम देख कर पता चला । पसमांदा मुसलमानों पर शीबा असलम फहमी की नीलू व्यास से बातचीत अच्छी लगी । शीबा बहुत स्पष्ट रहती हैं अपनी बातों में । अच्छा लगता है उन्हें सुनना। ऐसे ही सिनेमा संवाद से कई जानकारियां भी मिलती हैं ।
आरफा खानम शेरवानी जैसे लोग भी हैं जो जानते हैं कि उनकी भूमिका आज के इस दौर में क्या है । वे कहां बेबस हैं और कहां उनकी भूमिका स्पष्ट है । उनके एक भाषण को सुन कर उस चीड़िया की कहानी याद हो आयी जहां वह चिड़िया आग को अपनी चोंच के पानी से बुझा कर संदेश देती है कि जब इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें मेरा जिक्र तटस्थ के रूप में नहीं होगा, बल्कि इस रूप में होगा कि वक्त पर मैं अपनी भूमिका का निर्वाह तन्मयता से कर रही थी। ये वो लोग हैं जो लड़ रहे हैं । रवीश कुमार जैसे लोग भी हैं जो भले थक जाएंगे पर लड़ेंगे । यह सत्ता मुंडेर पर बैठी है बस एक मजबूत धक्का देने की देर है । आजादी के आंदोलन में हमने देखा । गांधी से पहले की कांग्रेस को और गांधी के साथ की कांग्रेस को । कहने का तात्पर्य यह कि कुछ मजबूती से लड़ते हैं कुछ लड़ने का ढोंग करते हैं । अगर गांधी माडल पर चिंतन करने वाली शक्तियां एकजुट हों तो उन्हें शायद कांग्रेस से भी किनारा करना पड़े । शासन के माडल में कुछ बहुत ज्यादा फर्क नहीं है कांग्रेस और बीजेपी में । एक नयी और बीच की धारा की जरूरत है देश को । ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर इन तीन लोगों की बातचीत से बहुत उम्मीद बंधी है ।

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