trainबीते वर्षों में रेल की उपयोगिता में परिवर्तन आया है. जिन रेलगाड़ियों का काम कभी माल ढोने का हुआ करता था, अब उनका मुख्य काम पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड से मजदूरों को मुख्य व्यापारिक केंद्रों जैसे, सूरत, अहमदाबाद, मुंबई, बंगलुरू, लुधियाना, भटिंडा, दिल्ली, फरीदाबाद, गुड़गांव तक पहुंचाने का रह गया है.

15 से 18 वर्ष की उम्र में रोटी की तलाश में घर से गठरी बांध कर निकला नौजवान अपने नजदीकी रेलवे स्टेशन पर पूरब से पश्चिम जाने वाली ट्रेन के इंतजार में घंटों बैठता है और जब ट्रेन स्टेशन पर पहुंचती है, तो वह देखता है कि उसमें 4-5 डिब्बे एसी के होते हैं, कुछ स्लीपर क्लास के तथा आगे-पीछे 2-2 डिब्बे सेकेंड क्लास के होते हैं, जिन्हें कठइया डिब्बा भी कहा जा सकता है. इन डिब्बों में बैठने के लिए भी बड़ी जंग लड़नी पड़ती है. पेट की भूख 90 सीटों की क्षमता वाले कठइया डिब्बे में 300 लोगों को बैठने पर मजबूर करती है. गेट पर लटकने वालों की जान जोखिम में बनी रहती है. अगर यात्रियों की संख्या की गिनती की जाए, तो चार डिब्बो में बैठने वालों की संख्या पूरी टे्रन के यात्रियों की संख्या से कहीं ज्यादा होती है.

वैशाली बरौनी से दिल्ली, पुष्पक लखनऊ से मुंबई और अन्य ट्रेनें जो पूरब से पश्चिम को जाती हैं, इनमें यात्रा करने के लिए प्लेटफॉर्म पर अपना बैग लेकर सुबह से ही लाइन में खड़ा होना पड़ता है. जीआरपी की गालियां और डंडे भी खाने पड़ते हैं और कैदियों की तरह लाइन से ही डिब्बे में घुसना पड़ता है. वही एक तबका जो एसी और स्लीपर में बैठता है, ट्रेन छूटने के कुछ क्षण पहले आता है और सैकड़ों की सुविधा अकेले भोगता है. इन जनरल डिब्बे में नौजवानों की यात्रा 24 से 50 घंटे तक की होती है. वे जिस हालत में बैठते हैं, उसी हालत में यात्रा पूरी करते हैं. शौचालय तक का इस्तेमाल नहीं कर पाते और रास्ते में पानी-भोजन भी नसीब नहीं होता. रास्ते में रेल के महंगे सामान इस्तेमाल नहीं कर सकते, क्योंकि ब्याज पर पैसे लेकर अपनी यात्रा शुरू करते हैं.

पेट की भूख इनके मान-सम्मान, स्वाभिमान और सारे अधिकार ख़त्म कर देती है. किसी भी शर्त पर ये ढाबे से लेकर फैक्ट्रियों तक घंटों बिना किसी न्यूनतम मजदूरी के गिरमिटिया से भी बदतर स्थिति में काम करते हैं. इस व्यवस्था से उद्योगपतियों को सस्ते से सस्ते मजदूर मिल जाते हैं, जिससे उनके मुनाफे में अकूत वृद्धि होती है. इससे एक नए किस्म का कारोबार भी पनपा है. अभी तक वस्तुओं की पूर्ती के ठेकेदार हुआ करते थे, लेकिन अब ढाबे, भवन निर्माण, सरकारी संस्थानों तथा छोटे-बड़े सभी उद्योगों में मजदूरों की पूर्ती का कारोबार भी ठेकेदारों के हाथ में चला गया है. इससे मजदूरों के सभी सार्वभौमिक अधिकार जैसे जीने का अधिकार भी समाप्त हो गया है. एक सशक्त नौजवान अब गिरमिटिया के तौर पर (जिसकी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं होती) शहर के गली कूचों में मारा-मारा फिरता है.

भारत में पुर्तगाली, फ्रांसीसी और अंग्रेजों ने जिन व्यापार केंद्रों को स्थापित किया था, आज भी लगभग वही व्यापारिक केंद्र जीवित हैं. बीच-बीच में कुछ क्षेत्रीय स्तर पर छोटे-छोटे व्यापारिक केंद्र स्थापित हुए, जो क्षेत्रीय कृषि उत्पाद आधारित उद्योग थे. उद्योगपतियों और सरकारों की मिलीभगत से जो आर्थिक नीतियां तय हुईं, उनमें क्षेत्रीय व्यापार केंद्र पूरी तरह नष्ट कर दिए गए. मुख्य रूप से 1989 के बाद बड़े पैमाने पर यह घटना घटित होती है. मंडल और कमंडल की राजनीति का भी इसमें मुख्य योगदान है. सत्ता का पश्चिम में केंद्रीकरण भी पूरब के विनाश का कारण है. अगर हम उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें, तो कल्याण सिंह, मुलायम सिंह और मायावती ने कभी भी युवाओं, किसानों, मजदूरों, छात्रों एवं महिलाओं को उनकी मूलभूत जरूरतों के लिए पारंपरिक स्थापित रोजगारों से जुड़ने नही दिया.

इनको बहस से बाहर करके जाति और धर्म को बहस के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया. इसने अफीम का काम किया और यहां का पिता परदेश में मजदूरी करने वाले अपने बेटे की फिक्र करना भूल गया. 20वीं सदी के शुरूआती दौर पर नजर डालें, तो पाएंगे कि उत्तर प्रदेश बिहार की सीमा पर देवरिया में 1903 में पहली बार बैतालपुर देवरिया सुगर मिल और 1921 में भटनी सुगर मिल स्थापित हुई. इसके लिए किसानों ने पट्टे पर जमीनें दी थीं. इसके साथ ही आजादी से पहले कुल 14 चीनी मिलें देवरिया जनपद में स्थापित हुई थीं. इसके बाद गन्ना उत्तर प्रदेश में नगदी फसल के रूप में स्थापित हुआ. छोटे-छोटे व्यापरिक केंद्र जैसे मऊ, बनारस, भदोही, मिर्जापुर, टांडा, गोरखपुर, मगहर, सहजनवां, खलीलाबाद, बस्ती, गोंडा, आदि हथकरघा, साड़ी कपड़ा, कालीन सीमेंट के लिए जाने जाते थे. इन्होंने लाखों स्थानीय मजदूरों को रोजगार दिया. किसानों के उत्पाद ही यहां मुख्य कच्चे माल के रूप में काम आते थे.

1989 के बाद तेज़ी से इन उद्योगों का विनाश शुरू हुआ. आज हाल यह है कि सभी मिल और उद्योग केवल बच्चों के किताबों पढ़ाई के लिए मौजूद हैं. मजदूरों के हाथ खाली हो गए और किसानों की हालत खराब हो गई. स्थानीय स्तर पर रोजगार ख़त्म हो गया और यहां के नौजवान ट्रेनों में लदकर ट्रेड सेंटरों पर पहुंचाए जाने लगे. उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार, झारखंड और असम का बड़ा भूभाग खाली हो गया. थोड़े बहुत बचे नौजवान स्थानीय शहर के लेबर चौराहों पर खड़े होते हैं, जहां केवल कालोनियां बसाने के लिए मजदूरों की जरूरत पड़ती है, वह भी बस कुछ मजदूरों को ही खपा पाती हैं, बाकी अपने गांव वापस लौट जाते हैं. गांव में बचे हैं, तो सिर्फ बेसहारा मां-बाप, वह भी पश्चिम की तरफ मुंह उठा कर ताकते हैं कि बेटा पैसे भेजेगा तो उनकी दवा और रोटी का इंतज़ाम हो सकेगा.

इस गांव प्रधान और किसान प्रधान देश में अब मेट्रो सिटी के असंतुलित विकास ने गांवों को निगल लिया है. अब संसद और विधानसभा में इन पलायित मजदूरों, नौजवानों, किसानों और उजड़ते गांवों पर चर्चा नहीं होती, बल्कि बुलेट ट्रेन, मेक इन इंडिया, स्किल्ड इंडिया, स्टार्टअप और चुनावी जुमले उछालकर संसद को बंधक बना कर पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाता है. अब चर्चा होती है, देव दिवाली की, त्रेता युग की दिवाली की, लव जेहाद की. अब चर्चा होती है, मंदिर मस्जिद की, धार्मिक जुलूस निकालने की. इस बात की चर्चा अब ज्यादा होती है कि सरकारी इमारतों की दीवारों का रंग क्या होगा. अब चर्चा है स्वच्छता अभियान और गंगा सफाई की. देश-प्रदेश का बड़ा बजट और तंत्र भी इन चर्चाओं में खप जाता है. यहां अब किसानों की आत्महत्या, युवाओं के पलायन, कृषि उत्पाद की खरीदारी एवं मूल्य निर्धारण, गन्ना बकाये के भुगतान, कुपोषण से निजात, गरीबी और भुखमरी, छात्रों की बढ़ती समस्याओं और शिक्षा के गिरते स्तर पर कभी चर्चा नहीं होती.

सकल घरेलू उत्पाद और विकास दर के आंकड़ों से इन समस्याओं का समाधान संभव नहीं है. नरेंद्र मोदी और अरुण जेटली बैंको को उबारने के लिए 2 लाख 11 हज़ार करोड़ देते हैं और शेयर बाज़ार में उछाल आ जाता है, बाज़ारों में रंगत दिखती है. एनपीए के बदले में इन पैसों का भुगतान सरकार करती है. जब मोदी जी का गुजरात मॉडल ढहता है, तो साफ़ है कि जिस विकास की बात मोदी कर रहे थे वह और कोई नहीं, बल्कि वही अंग्रेजों द्वारा स्थापित बड़े व्यापार केंद्रों पर आधारित मॉडल है, जिसके कारण देश का नौजवान पलायन करता है. लेकिन हम भूल जाते हैं कि अगर बाहर का नौजवान बिना शर्त मजदूरी के लिए उपलब्ध है, तो फिर स्थानीय नौजवान बेरोजगारी और भुखमरी की कगार पर निश्चित ही पहुंच जाएंगे और ऐसा ही हुआ. मोदी ने गुजरात चुनाव जीतने के लिए जो नया दांव चला, वो था बुलेट ट्रेन का. गुजरात के आधा प्रतिशत से भी कम लोगों का हित साधने के जापान से एक लाख 10 हजार करोड़ का कर्ज लिया गया. इस कर्ज का भुगतान देश के 125 करोड़ गरीब, किसान-मजदूर से कर वसूल कर किया जाएगा.

21 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों में छोटे-छोटे उद्योग बंद हो गए, मिलें बेच दी गईं. यदि एक लाख 10 हज़ार करोड़ रुपए से इन केंद्रों को जीवित कर दिया जाता, तो उसकी सार्थकता सिद्ध होती और इससे पलायन निश्चित ही कम हो सकता था. बैंको को उबारने के बजाय अगर मोदी किसानो की पूर्णतया कर्ज मुक्ति कर देते, तो उनका उत्पादन बढ़ जाता. फिर ये ट्रेनें मजदूर ढोने के बजाय माल ढोतीं, जिससे इन इलाकों में माल के बदले दाम आता और अर्थव्यवस्था सिर के बजाय पैर के बल खड़ी हो जाती. हालांकि अब वो दिन दूर नहीं, जब ट्रेड सेंटरों पर इकट्‌ठा होने वाले पलायित बेरोजगार युवा इस व्यवस्था की नींद हराम कर देंगे.

(लेखक गन्ना किसान मजदूर संघर्ष मोर्चा उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष हैं)

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