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उत्तर प्रदेश का नागरिक उड्‌डयन निदेशालय लंबे अर्से से भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और संदेहास्पद गतिविधियों का अड्‌डा रहा है. उत्तर प्रदेश नागरिक उड्‌डयन महकमे के घोटाले के मामले में निष्पक्ष जांच के जरिए असली सच जानने की कोशिश कभी नहीं की गई. घोटालों को उजागर करने के कारण ही उड्‌डयन निदेशालय के कर्मचारी देवेंद्र कुमार दीक्षित को नौकरी से निकाल बाहर किया गया. अदालत ने यह माना कि दीक्षित के खिलाफ लगाए गए आरोपों को औपचारिक तौर पर दर्ज किए बगैर उन्हें निकाला गया.

फिलहाल यह मामला अदालत में लंबित है. उसी कर्मचारी ने उड्‌डयन विभाग के तीन हजार करोड़ के घोटाले और अफसरों की राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के खिलाफ इलाहाबाद की लखनऊ खंडपीठ में याचिका दाखिल कर मामले की सीबीआई से जांच कराने की मांग की थी. अदालत ने महज इस बात पर याचिका खारिज कर दी कि याचिकाकर्ता ने एक अन्य लंबित याचिका के बारे में अदालत को जानकारी क्यों नहीं दी.

याचिकाकर्ता ने इस त्रुटि के लिए क्षमा मांगते हुए दोनों याचिकाओं को एक साथ क्लब करने की गुहार लगाई लेकिन अदालत ने एक नहीं सुनी. यहां तक कि याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका वापस लेकर उसे दोबारा फाइल करने की भी इजाजत चाही, लेकिन अदालत ने इसकी इजाजत नहीं दी और याचिका खारिज कर दी. उधर, सरकार ने अपनी जांच रिपोर्ट में किसी भी घोटाले और राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को सिरे से नकार दिया. याचिकाकर्ता ने अदालत का ध्यान इस तरफ भी दिलाया कि सरकार की जांच रिपोर्ट फर्जी है. शासन स्तर पर ऐसी कोई जांच ही नहीं हुई.

कागजी तौर पर जो जांच कमेटी गढ़ी गई, उसमें वही लोग शामिल थे, जिन पर घोटाले में शामिल होने का आरोप है. उन्हीं ‘कोतवालों’ ने अपने और अपने साथियों को बेदाग बता दिया और यह भी लिख दिया कि ऐसी याचिकाएं तो पहले भी दाखिल हुई हैं और खारिज हुई हैं.
दीक्षित के पास शीर्ष अदालत का दरवाजा खटखटाने की आर्थिक ताकत नहीं थी, लिहाजा, उन्होंने संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के तहत एक आम नागरिक की हैसियत से राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री, केंद्रीय कानून मंत्री और इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिख कर याचिका खारिज करने वाले दो जजों एपी शाही और एआर मसूदी की भूमिका की जांच की मांग कर दी.

इस मांग पत्र में उड्‌डयन निदेशालय के घोटाले और राष्ट्र-विरोधी गतिविधियों की जांच की मांग भी शामिल थी, लेकिन हाईकोर्ट ने उसमें से केवल जजों की शिकायत का प्रसंग उठा लिया और तत्कालीन कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश वीके शुक्ला के आदेश पर लखनऊ खंडपीठ की तरफ से देवेंद्र कुमार दीक्षित पर अदालत की अवमानना का मामला दर्ज कर दिया गया. उधर, दीक्षित ने भाड़े के सरकारी वकील जयदीप नारायण माथुर के खिलाफ जांच के लिए भी प्रधानमंत्री को पत्र लिख दिया था.

प्रधानमंत्री कार्यालय ने दीक्षित के पत्र का संज्ञान लेते हुए गृह मंत्रालय को जरूरी कार्रवाई करने को कहा. गृह मंत्रालय के आदेश पर इंटेलिजेंस ब्यूरो ने मामले की खुफिया जांच शुरू कर दी. इस जांच के सिलसिले में आईबी के अधिकारी एके तिवारी ने जयदीप नारायण माथुर से भी पूछताछ की, लेकिन इसपर हाईकोर्ट को गुस्सा आ गया.

जयदीप नारायण माथुर ने अदालत से शिकायत की और कहा कि एके तिवारी ने शिकायत-पत्र के आधार पर छानबीन करने की बात तो कही लेकिन मांगने पर शिकायत-पत्र की प्रति उन्हें नहीं दी. लखनऊ पीठ के जज श्रीनारायण शुक्ल और वीरेंद्र कुमार ने बिना यह जांचे कि एके तिवारी किस जांच एजेंसी के अधिकारी हैं, फौरन यूपी के पुलिस महानिदेशक को तलब कर एके तिवारी को एक अगस्त 2017 को कोर्ट में हाजिर करने को कहा. सूचना मिलने पर एक अगस्त को इंटेलिजेंस ब्यूरो ने अदालत को यह आधिकारिक जानकारी दी कि एके तिवारी यूपी पुलिस के नहीं, बल्कि आईबी के अधिकारी हैं.

आईबी ने आधिकारिक तौर पर एके तिवारी के काम को सराहा और बताया कि आईबी का अधिकारी होने के नाते छानबीन के दरम्यान वो अपना परिचय (आईडेंटिटि) बताने के लिए बाध्य नहीं हैं. मामले में आईबी का इन्वॉल्वमेंट देख कर अदालत ने इस मामले को ही बंद (क्लोज) कर दिया. एक अगस्त के अपने फैसले में जजों ने लिखा कि माथुर ने शिकायत पत्र (कम्प्लेंट) की कॉपी कोर्ट में प्रस्तुत की है, लेकिन माथुर से यह नहीं पूछा कि जब आईबी के अधिकारी ने उन्हें कॉपी दी ही नहीं थी तो शिकायत-पत्र की कॉपी उन्हें कहां से मिल गई? देवेंद्र कुमार दीक्षित पर चल रहे अवमानना मामले में कोर्ट के ऑर्डर-शीट की कॉपी भी माथुर ने कोर्ट में पेश की. कोर्ट ने इसका अपने फैसले में भी जिक्र किया, लेकिन माथुर से यह नहीं पूछा कि कंटेम्प्ट का मामला चलने के बारे में उन्हें कैसे पता चला?

बहरहाल, विचित्रताओं का एक और दृश्य साथ-साथ देखते चलें. देवेंद्र कुमार दीक्षित पर चल रहे अवमानना मामले में डिवीजन बेंच के जज अजय लाम्बा और डॉ. विजय लक्ष्मी ने 21 जुलाई 2017 को चार्ज-फ्रेम (अभियोग निर्धारण) करने की तारीख मुकर्रर की थी. उस तारीख को जब दीक्षित कोर्ट पहुंचे और चार्ज-फ्रेम करने को कहा तब कोर्ट ने उन्हें जानकारी दी कि कंटेम्प्ट की फाइल सील-कवर में रख दी गई है. कोर्ट ने फाइल सील किए जाने की वजह नहीं बताई और इसे बताने में अपनी असमर्थतता जाहिर की. आश्चर्यजनक पहलू यह भी है कि सूचना के अधिकार के तहत उड्‌डयन निदेशालय से कुछ जानकारियां मांगने पर निदेशालय ने एक वकील नित्यानंद मणि त्रिपाठी को बताया कि अदालत में चल रहे अवमानना (कंटेम्प्ट) मामले के कारण विभाग कोई सूचना नहीं दे सकता, क्योंकि उस मामले में नागरिक उड्‌डयन के निदेशक देवेंद्र स्वरूप पक्षकार हैं. सवाल है कि जिस व्यक्ति (वकील) का इस मसले से कोई सरोकार नहीं है, उसे कंटेम्प्ट-केस के बारे में बताने का क्या औचित्य था? और दूसरी गंभीर बात यह है कि अवमानना मामला सीधे कोर्ट की तरफ से दर्ज हुआ है, फिर नागरिक उड्‌डयन विभाग के निदेशक इस

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