rssबिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल (यू) के नए राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतीश कुमार रौ में हैं और ‘मिशन 2019’ के अपने एजेंडे को एक-एक कर सामने ला रहे हैं. उनका सबसे ताज़ा एजेंडा है ‘आरएसएस मुक्त भारत.’ उनका मानना है कि संघ की सत्ता के रहते भारत का समावेशी विकास नहीं हो सकता है. देश की रक्षा के लिए इसे संघ से मुक्त करना होगा, गैर-संघवाद का व्यापक अभियान चलाना होगा. इस सपने को साकार करने के लिए सभी भाजपा विरोधी राजनीतिक दलों को एक छतरी के नीचे लाने की जरूरत वह महसूस करते हैं और इस दिशा में सक्रिय भी हैं. इसके साथ ही बिहार के मुख्यमंत्री ने देश में दो द्रुवीय राजनीति के पक्ष में अपनी राय दी है.

उनकी समझ है कि देश में दो राजनीतिक ध्रुव ही हो सकता हैः भाजपा समर्थक और भाजपा विरोधी, अर्थात्‌ आरएसस समर्थक और आरएसएस विरोधी. देश में सक्रिय राजनीतिक दलों को किसी पक्ष में तो जाना ही होगा. पर ऐसा निर्णय लेते वक्त भाजपा के पुराने सहयोगी शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल के अनुभवों को भी देखना होगा. उन्होंने संघ मुक्त भारत बनाने के लिए डॉ. राम मनोहर लोहिया के गैर कांग्रेसवाद के प्रयोग को भी याद किया. हालांकि उस प्रयोग का एक बड़ा घटक तत्कालीन भारतीय जनसंघ था. नीतीश कुमार जद(यू) के औपचारिक सुप्रीमो पिछले हफ्ते ही बने हैं और तब से वह मिशन ‘मिशन 2019’ के तहत अपने एजेंडों की ताबड़तोड़ घोषणा कर रहे हैं.

सरकारी नौकरियों में आरक्षण की सीमा बढ़ाने की जरूरत को उन्होंने तो रेखांकित किया ही है, निजी क्षेत्र में भी इसे लागू करने की मांग कर दी है. उन्होंने शराबबंदी के लिए देशव्यापी अभियान के लिए प्रयास करने की अपनी प्रतिबद्धता जताई है, और अब उनका सबसे ताज़ा एजेंडा है ‘आरएसएस मुक्त भारत’. जद(यू) सुप्रीमो की इस राजनीतिक रणनीति का कांग्रेस और वमपंथी सहित प्रायः उन सभी पार्टियों ने स्वागत किया है जो भाजपा विरोधी हैं. उन राजनीतिक समूहों की भी सहानुभूति इस अभियान के साथ दिखती हैं जो भाजपा की विरोधी हों या न हों, नरेन्द्र मोदी के विरोध में हैं. लेकिन नीतीश कुमार का यह अभियान किस हद तक उड़ान लेता है, अभी यह कहना कठिन है. इसे लेकर महागठबंधन के दलों में भी मिश्रित भाव ही हैं.

राजनीति को यह नई छलांग देने के लिए नीतीश कुमार के पक्ष में कई सकारात्मक बातें हैं. केन्द्र में वर्षों तक मंत्री और दस साल से अधिक समय से बिहार में मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाल रहे इस समाजवादी राजनेता की छवि बेदाग तो है ही, उनकी पहचान बेहतर प्रशासक और विकास पुरुष की रही है. बिहार को उन्होंने अंधेरी सुरंग से निकाल कर आशा और विश्वास कीडगर पर लाकर खड़ा किया है. यह राजनीतिक हलके में उन्हें गंभीरता प्रदान करता है. बिहार विधानसभा चुनावों में नरेन्द्र मोदी को शिकस्त देने के बाद वह बड़े लड़ैय्या के तौर पर राष्ट्रीय राजनीति में पहचाने जाने लगे हैं.

बिहार में लालू प्रसाद को साध कर आगे बढ़ रहे हैं, सरकार चला रहे हैं. पिछले दस वर्षों में उन्होंने महिला-अतिपिछड़ा-महादलित का व्यापक वोट बैंक तैयार करने की कोशिश की है. अर्थात नीतीश कुमार हिन्दी पट्‌टी के उन गैर-कांग्रेसी और गैरभाजपाई नेताओं में शीर्ष पर हैं जिनका राजनीतिक आधार जाति और धर्म से बाहर है.
हालांकि भाजपा विरोधी राजनीति में सबसे बड़ी और राष्ट्रीय स्तर की पार्टी कांग्रेस है, पर गैर कांग्रेसी दलों में नीतीश कुमार की स्वीकार्यता हिन्दी पट्‌टी और पूर्वी भारत में किसी कांग्रेसी नेता से भी अधिक है. तृणमूल सुप्रीमो ममता बनर्जी, बीजद सुप्रीमो नवीन पटनायक जैसे नेताओं का साथ हासिल करने की राजनीतिक क्षमता उनमें है. वामपंथी दल भी उनके साथ आ सकते हैं.

इसके अलावा तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडु, शिरोमणि अकाली दल के प्रकाशसिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल, तमिलनाडु की द्रमुक और अन्ना-दमुक, कर्नाटक के जनता दल (एस) आदि को जरूरत पड़ने पर साथ लाने की कोशिश रंग ला सकती है. ये सारी खासियत नीतीश कुमार को राष्ट्रीय फलक के बड़े राजनेता की हैसियत देते हैं. जद(यू) के प्रवक्ता और सीनियर विधान पार्षद नीरज कुमार ने कहा है कि ‘संघ मुक्त भारत’ के आह्वान को सफल तो होना ही है. एनडीए विरोधी दल तो इस अभियान में शामिल होंगे ही, एनडीए में शामिल दल भी पीछे नहीं रहेंगे. जद(यू) नेताओं की यह आशावादिता साकार हो रही है क्या? इस प्रश्र्न का उत्तर देना अभी कठिन है.

नीतीश कुमार एक बात बार-बार कहते है, ‘सरकार चलाने में किसी का कोई दबाव मेरे ऊपर नहीं है.’ ऐसी ही बात राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद दूसरे तरीके से बोलते है, ‘सरकार को कहीं से कोई खतरा नहीं है.’ यह अपना कार्यकाल पूरा करेगी. महागठबंधन में सबसे बड़ा दल राजद है और उसके 80 विधायक हैं जबकि सबसे छोटा दल कांग्रेस है जिसके विधायकों की संख्या 27 है. नीतीश कुमार के जद(यू) के 71 विधायक हैं. सूबे में सत्ता समीकरण बनाने-बिगाड़ने में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं बनती है, लिहाजा दोनों बड़ी पार्टियां इसके बारे में सोचने की कोई जरूरत ही नहीं समझतीं.

कांग्रेस की उपयोगिता राष्ट्रीय राजनीति में इन दोनों दलों को एक छतरी से अधिक कुछ नहीं दिखती है. लालू प्रसाद और उनके राजद का बिहार के बाहर कोई संसदीय और राजनीतिक वज़ूद नहीं है, भले संगठन देश भर में हो. जद(यू) की भी यही हालत है. बिहार के बाहर उसके नेता तो दिखते हैं, कहीं-कहीं संगठन भी दिखता है, पर वक़त कहीं नहीं दिखती. ऐसे हालात में बिहार के किले को किसी भी सूरत में बचाना दोनों की राजनीतिक विवशता है. नीतीश कुमार को बिहार की सत्ता के कारण सुशासक और विकास पुरुष का तमगा मिला है. इसी रन-वे से उनकी राजनीति नई उड़ान ले रही है.

इसी तरह, कोई एक दशक बाद लालू प्रसाद के परिवार का राजनीतिक पुर्नवास हुआ है. सो, सरकार को अबाध चलाना ही नहीं, कामकाजी और परिणाम-उन्मुखी बनाना दोनों की मजबूरी है. हालांकि मतभेद के कई अवसर आए हैं, आते रहते हैं, पर बिहारी राजनीति के दोनों भाई-लालू प्रसाद और नीतीश कुमार-बड़े हिसाब से गाड़ी खींच रहे हैं. पर, यह सिलसिला इसी तरह सहज भाव से चलता रहेगा? यह लाख टके का सवाल है. दोनों दलों के उत्साह से लबरेज कुछ नेता-कार्यकर्ताओं को अपवाद मान लें, तो अधिकांश हंस कर टाल जाते हैं. राजनीतिक पंडितों के लिए इतना ही काफी है.

बिहार से दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश होकर ही है और बिहारी राजनीति के इन दोनों भाइयों-लालू प्रसाद और नीतीश कुमार- के बीच यह फंस गया है. यह कहना जल्दबाजी होगी कि यह संबंध पर असर डाल रहा है, पर इस मसले को दोनों टालते रहना चाहते हैं. नीतीश कुमार ने उत्तर प्रदेश में अपनी नई पारी की शुरुआत कर दी है. वह गाजीपुर में कुशवाहा समाज के आयोजन के साथ ही इसका आग़ाज कर चुके हैं. चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के जद(यू) में विलय की बातचीत अंतिम दौर में बताई जा रही है. यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश में नीतीश कुमार की राजनीति को नया रास्ता देगा. बताते हैं कि रालोद की शर्त के अनुरूप अजित सिंह को राष्ट्रीय नेतत्व में बड़ा ओहदा मिलना तो तय है ही, उनके पुत्र जयंत चौधरी को उत्तर प्रदेश में नीतीश कुमार के दल (जो अभी बनना है) की ओर से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित किया जाना है.

मुलायम सिंह की राजनीतिक घेराबंदी के ख्याल से अजित सिंह को ऐसा तवज्जो दिया जाना लालू प्रसाद और उनके परिवार को रास नहीं आ रहा है. फिर, पीस पार्टी के साथ उनके चुनावी तालमेल का मसला है. यह बातचीत नीतीश कुमार खुद बातचीत कर रहे हैं. हालांकि लालू प्रसाद फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं, वे किसी और की खातिर अपनी और परिवार की परेशानी बढ़ाना नहीं चाहते. लिहाजा खामोश हैं. नीतीश-लालू दोनों कह रहे हैं कि इस महागठबंधन का वज़ूद बिहार तक ही है. पर, यूपी कांटा बन सकता है. और कांटों के साथ पारी लंबी नहीं हो सकती है.

ऐसी हालत में बिहार की राजनीति की पिच पर दोनों की परेशानी बढ़ सकती है. गैर संघवाद को घर से ही ऐसा कोई झटका मिले तो विस्मय नहीं होना चाहिए. कांग्रेस भी मामूली मसला नहीं है. वह राष्ट्रीय पार्टी है और बिहार में वह बहुत ही जूनियर हैसियत में है. राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे किसी राजनीतिक अभियान में कांग्रेस बड़े भाई की भूमिका चाहेगी. ऐसा हो पाएगा क्या? इस सवाल का जवाब कठिन नहीं है. फिर, कांग्रेस के बगैर आरएसएस मुक्त भारत या गैर संघवाद की स्थिति को के बारे में सोचने के लिए बहुत कुछ नहीं है.

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