rickshawएक तरफ़ समृद्धि और वैभव की ऊंची चोटियां और उसके नीचे अभाव और दरिद्रता की गहरी खाई, यह पूंजीवादी विकास की चारित्रिक विशेषता है. उदारीकरण-निजीकरण के इस दौर में अमीरी-ग़रीबी के बीच की यह खाई लगातार चौड़ी और गहरी होती जा रही है. आज दुनिया के पैमाने पर यही तस्वीर दिखायी दे रही है. अमेरिका, जापान सहित तमाम यूरोपीय देशों में आज बेरोज़गारों, ग़रीबों और बेघरों की संख्या बढ़ रही है. सम्पदा वितरण में यह असमानता एक देश के भीतर ही नहीं बल्कि साम्राज्यवादी देशों और एशिया-अ़फ्रीका-लातिन अमेरिका के देशों के बीच भी लगातार बढ़ती जा रही है. किन्हीं भले मानुषों की मासूम इच्छाओं और किसी भी तरह के जनकल्याणकारी नुस्खों से विषमता की इस खाई को पाटना मुमकिन नहीं.

समाज के एक छोर पर पूंजी संचय और दूसरे छोर पर ग़रीबी संचय पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का लाज़िमी नतीजा है. अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की हवस और दूसरों के मुकाबले बाज़ार में टिके रहने का दबाव पूंजीपतियों को लगातार अपना पूंजी संचय बढ़ाते जाने के लिए बाध्य करता है. पूंजीपति जितना अधिक शोषण करता है, संचित पूंजी उतनी ही ज़्यादा होती है और यह संचित पूंजी शोषण के नये-नये साधनों के ज़रिये मज़दूरों का शोषण और बढ़ाती जाती है. नयी-नयी मशीनें मज़दूरों को धकियाकर काम से बाहर कर देती हैं.

इसके अलावा, उत्पादन तकनीकों के लगातार विकास से स्त्रियां और बच्चे भी भाड़े के मज़दूरों में शामिल हो जाते हैं. साथ ही देहाती क्षेत्रों में पूंजी की घुसपैठ भारी संख्या में ग़रीब व मंझोले किसानों का भी लगातार कंगालीकरण करती जाती है और वे आजीविका कमाने के लिए शहरों की ओर उमड़ पड़ते हैं. यह पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया का न टाला जा सकने वाला नतीजा है, जिसके कारण आज दुनिया के पैमाने पर बेरोज़गारी बढ़ रही है. यह किसी की इच्छा से रुक नहीं सकती.

पूंजीपरस्त व्यवस्था में बढ़ती ग़रीबी को रोकना किसी की इच्छा के वश में नहीं है. मज़दूर अपनी श्रमशक्ति ख़र्च कर जो नया मूल्य पैदा करता है उसका अधिकाधिक हिस्सा पूंजीपति हड़पता जाता है और मज़दूरों की मज़दूरी का हिस्सा कम होता जाता है. राष्ट्रीय आय के वितरण में असमानता लगातार बढ़ते जाने का यह बुनियादी कारण है. इसके साथ ही लगातार बढ़ती बेरोज़गारी, मुद्रास्फीति के कारण वास्तविक आमदनी में कमी और ख़राब जीवन दशाओं के कारण मज़दूर वर्ग पूर्ण दरिद्रीकरण की अवस्था में पहुंच जाता है. पूंजीवादी समाज में मज़दूरों के पूर्ण दारिद्रीकरण की इस प्रक्रिया की चर्चा करते हुए मज़दूर वर्ग के शिक्षक और नेता लेनिन ने लिखा था, मज़दूरों का पूर्ण दारिद्रीकरण हो जाता है. यानी, वे ग़रीब से ग़रीबतर होते जाते हैं, उनका जीवन और दुखपूर्ण हो जाता है, उनका भोजन बदतर होता जाता है और पेट कम भर पाता है और उन्हें तलघरों और छोटी कोठरियों में रेवड़ों की तरह रहना पड़ता है.

पूंजीवादी उत्पादन की इसी प्रक्रिया यानी पूंजीपतियों की मुनाफ़े और पूंजी संचय की अन्धी हवस का ही नतीजा आज हमारे देश में देखने को मिल रहा है. सकल घरेलू उत्पाद की लगातार बढ़ती वृद्धि दर लेकिन आम मेहनतकश जनता की बढ़ती दरिद्रता, ये दो विरोधी सच्चाइयां एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. भूमण्डलीकरण के इस दौर में राष्ट्रीय आय में पूंजीपति वर्ग और उसके लग्गुओं-भग्गुओं का हिस्सा लगातार बढ़ता गया है और मेहनतकशों का घटता गया है. केंद्र और राज्य की सभी सरकारें आज देशी-विदेशी पूंजीपतियों को मेहनतकशों के शोषण की मनमानी छूट देने के साथ ही करों में भी बेतहाशा छूटें देकर उनकी तिजोरियां भरने के मौक़े दे रही हैं.

धनी तबकों को करों में छूट देने का आलम यह है कि सटोरियों की कमाई बढ़ाने के लिए शेयर बाज़ार से होने वाली पूंजीगत आय को पूरी तरह करमुक्त कर दिया गया है. इससे सरकारी खज़ाने को प्रतिवर्ष जो हज़ारों करोड़ रुपए का नुक़सान होता है उसकी भरपाई के लिए आम जनता को विभिन्न प्रकार के अप्रत्यक्ष करों से लाद दिया गया है. उद्योगपतियों को पिछले कुछ वर्षों के दौरान कई लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी और रियायतें देने वाली सरकारें जनता के लिए कल्याणकारी उपायों में लगातार कटौती कर रही हैं. शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, बिजली, यातायात, हर चीज़़ को लगातार महंगा बनाया जा रहा है.

महंगाई का आलम यह है कि अब इसकी मार सीधे ग़रीब आबादी के पेट पर पड़ रही है. मेहनतकश जनता को यह समझना होगा कि उनकी बदहाली का बुनियादी कारण महज़ किसी सरकार का निकम्मापन नहीं, वरन देश की मौजूदा पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली है. ये सारी सरकारें पूंजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी के तौर पर काम करती हैं, जिसका एक ही मक़सद है, अपने आकाओं के मुनाफ़े को सुरक्षित रखना और लगातार बढ़ाते जाना, चाहे इसके लिए जनता को कितना भी निचोड़ना पड़े.

पूंजीपतियों के लगातार बढ़ते मुनाफ़े या मुट्ठीभर ऊपरी धनी तबक़े की ख़ुशहाली का कारण मज़दूरों का दिनोंदिन बढ़ता शोषण है. किसी मज़दूर के लिए यह समझना कठिन नहीं कि अपनी श्रमशक्ति का उपयोग कर वह केवल उतना मूल्य नहीं पैदा करता जितना मज़दूरी के रूप में उसे मिलता है. वह तो उसके द्वारा पैदा किये गये मूल्य का एक छोटा हिस्सा ही होता है. बाकी हिस्सा पूंजीपति हड़प कर जाता है जिसे न केवल वह अपनी विलासिता पर ख़र्च करता है, बल्कि पूंजी संचय कर और अधिक मुनाफ़ा कमाता जाता है और मज़दूर दरिद्र से दरिद्रतर होता जाता है.

मज़दूर के गुज़ारे के लिए ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी की तुलना में उसकी वास्तविक आय में बढ़ोत्तरी इतनी कम होती है कि उसे और उसके परिवार को आधे पेट सोने पर मजबूर होना पड़ता है. लेकिन सरकार सहित सारे पूंजीवादी अर्थशास्त्री और समूचा पूंजीवादी मीडिया इस बुनियादी सच्चाई पर पर्दा डालने के लिए आंकड़ों के फ़र्ज़ीवाड़े के साथ ही मांग और पूर्ति की व्यवस्था के असन्तुलन को महंगाई के लिए ज़िम्मेदार ठहराते हैं. मनमोहन सरकार के वित्तमंत्री चिदम्बरम का यह बयान कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि लोग अब ज़्यादा खाने लगे हैं.

मगर यह झांसापट्टी सदा-सर्वदा चलती ही रहेगी, ऐसा मानने वाले भारी भुलावे में जी रहे हैं. उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों से देश के भीतर अमीरी-ग़रीबी की जो खाई लगातार चौड़ी होती जा रही है, वह देश की समूची पूंजीवादी व्यवस्था को अन्त के और क़रीब लाती जा रही है. पूंजीवादी व्यवस्था के इसी संकट ने भारत सहित दुनिया भर में फासिस्ट शक्तियों को मज़बूती दी है. तमाम शिकायतों के  बावजूद देश के बड़े पूंजीपति इसीलिए मोदी सरकार के पीछे खड़े हैं. मगर फासीवाद पूंजीवाद को उसके विनाश से नहीं बचा सकता, बल्कि जनता पर बरपा होने वाले कहर को और भी बढ़ाकर संकट को और तीखा कर देता है. आज जितने बड़े पैमाने पर देश में औद्योगिक सर्वहारा वर्ग औद्योगिक महानगरों में इकट्ठा होता जा रहा है, वह ख़ुद पूंजीवादी व्यवस्था के लिए मौत का साजो-सामान बन रहा है. देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने के नाम पर मेहनतकश अवाम के अन्धाधुन्ध शोषण के दम पर समृद्धि की जो मीनारें खड़ी हो रही हैं, उनके चारों ओर बारूद इकट्ठा होता जा रहा है.

पूंजीवादी व्यवस्था के अन्तर्गत इसे रोकने का कोई उपाय नहीं है. पूंजी संचय की प्रक्रिया न केवल पूंजीवाद के विनाश की परिस्थितियों, यानी सामाजिक आधार पर बड़े पैमाने के उत्पादन को तैयार करती है, बल्कि पूंजीवाद की क़ब्र खोदने वाले सर्वहारा को भी जन्म देती है. पूंजी संचय की प्रक्रिया की इस ऐतिहासिक परिणति की ओर इशारा करते हुए कार्ल मार्क्स ने घोषणा की थी. यह बम फटने वाला है, पूंजीवादी निजी स्वामित्व की घंटी बजने वाली है. स्वत्वहरण करने वाले का स्वत्वहरण कर लिया जायेगा.

स्वत्वहरण करने वालों का स्वत्वहरणकरना मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है. पूंजीपति वर्ग और उसे अपना ज़मीर बेच चुके बुद्धिजीवियों द्वारा बोले जाने वाले तमाम झूठों में से एक यह है कि पूंजीपति मज़दूर को पालता है. इसके उल्टे सच यह है कि मज़दूर अपनी श्रमशक्ति से नया मूल्य पैदा कर पूंजीपतियों का न केवल पेट पालता है बल्कि उसकी पूंजी भी बढ़ाता है. साफ़ है कि पूंजीपति वर्ग और उसके तमाम लग्गू-भग्गू मज़दूरों की देह पर चिपकी ख़ून चूसने वाली जोंकों के  समान हैं. इन जोंकों से छुटकारा पाना मज़दूर वर्ग का नैतिक कर्तव्य है. मज़दूर वर्ग के हरावलों को व्यापक मज़दूर आबादी के बीच जाकर उन्हें इस नैतिक कर्तव्य को निभाने के लिए तैयार करना होगा.

–(लेखक ‘मज़दूर बिगुल’ पत्रिका से सम्बद्ध वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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